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कुमाऊं की रामलीला से कुछ झलकियां

कुमाऊं की रामलीला बहुत चर्चित रही है. देश को अनेक रंगकर्मी इस रामलीला ने दिए. बी एल शाह, बी एम शाह, मोहन उप्रेती जैसे कलाकारों ने रामलीला की तालीमों में अपनी आरंभिक दीक्षा ली थी. दिल्ली में थे तो बार-बार रामलीला की याद आती थी. चंडीगढ़, मुंबई और दिल्ली में भी कुमाऊं और गढ़वाल की रामलीलाएं देखी लेकिन वह मज़ा नहीं आता था. हल्द्वानी आया तो मन में बड़ी उमंग थी इन रामलीलाओं को देखने की. यहाँ बहुत सी जगहों पर रामलीलाओं के बैनर दिखे.

हल्द्वानी को एक असांस्कृतिक शहर मना जाता है. लेकिन लगभग हर मोहल्ले में सामुदायिक रामलीला मंच बने हुए हैं. जहां नवरातों में रामलीलाएं होती हैं. यानी ऊपर से असांस्कृतिक लगने वाले इस शहर के भीतर भी जन संस्कृति की एक अजस्र धारा बह रही है. लेकिन उन दिनों कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं कि नवरातों में रामलीला नहीं देख पाया. मन में कसक बनी रही. लेकिन पिछले दिनों चैती नवरात्रों से पहले अपने इलाके की एक दूकान पर जब रामलीला का एक नोटिस देखा तो बहुत खुशी हुई. आप कहेंगे कि इस मौसम में रामलीला ! लेकिन कुमाऊं में चैती नवरातों में भी रामलीलाएं होती हैं. मेरे गाँव में भी इसी मौसम में लीला होती थी.

दूर-दूर के गावों से पैदल चल कर लीला देखने आने वाले दर्शकों के लिए भी यह मौसम सुविधाजनक होता है. हम लोग पांच किलोमीटर पहाड़ी चढाई चल कर रामलीला देखने निकलते थे. आठ बजे लीला शुरू होती थी और ग्यारह बजे तक खत्म हो जाती थी. हम लोग हाथ में मशालें लिए हुए रात एक-दो बजे तक घर पहुँच पाते थे. मन में चाह होते हुए भी मैं कोई पार्ट नहीं खेल पाता था, क्योंकि हमारा गाँव काफी दूर था. लेकिन मेरी क्लास का राजू सीताबना था और एक क्लास सीनियर कुंदन ने राम का पार्ट खेला था. हमारे हेड मास्साब ने दशरथ और राम सिंह सेक्रेट्री ने रावन का. ये छवियाँ कभी नहीं मिटतीं. पंचवटी में शूर्पणखा के आने की तैयारी इसलिए इस बार चैती नवरात्र में ब्लाक इलाके में रामलीला का मैं दिल से इन्तज़ार कर रहा था.

दिल्ली से अपनी पत्नी को भी रामलीला देखने को बुलाया लिया था. एक दिन हम लोग निर्धारित समय से काफी पहले रामलीला स्थल पर पहुँच गए. शुरू में हमें लगा कि शायद लोग नहीं आयेंगे लेकिन धीरे-धीरे भीड़ जुटने लगी. जिस हल्द्वानी में लोग नौ बजे तक सोने लगते हैं, उसी शहर के एक कोने में लोग दस बजे लीला देखने चले आ रहे थे. अनुशासित होकर अपने स्थान पर बैठ रहे थे. पंडाल काफी अच्छा था. मंच में भी कोई कमी नहीं थी. लोग स्वेच्छा से पंडाल के एक कोने में बैठे आयोजकों के पास जाकर चन्दा देने लगे. मैंने देखा कि देखते ही देखते दानदाताओं की लाइन लग गयी. मेरी पत्नी भी सौ रुपये दे आयी.कोई पचास दे रहा है, कोई सौ और कोई दो सौ. यानी ये ऐसे लोग थे जो मुफ्त में लीला नहीं देखना चाहते. आयोजकों की हर तरह से मदद करना चाहते हैं.

हम लोग दिल्ली में इस फिराक में रहते थे कि किसी तरह मुफ्त का पास मिल जाए और हम नाटक देख आयें. लेकिन ये ऐसे प्रेक्षक हैं, जो पैसे देकर नाटक देखना चाहते हैं. जबकि इनकी माली हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है. अब असली बात पर आते हैं. जिस लीला का हम घंटे भर से इंतज़ार कर रहे थे, वह शुरू हुई. पहले ‘श्री रामचंद्र कृपालु भगवन’ हुआ. फिर कोई और मंगलाचरण और फिर लीला. लेकिन जल्दी ही मालूम हुआ कि आयोजकों में दर्शकों के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं है. दो मिनट का सीन, और फिर पटाक्षेप. फिर पीछे से कड़-कड़. कोई सूत्रधार नहीं. कोई अनाउंसर नहीं. बीच में कोई हास्य का सीन भी नहीं. विभिन्न दृश्यों के बीच कोई ताल-मेल नहीं.

इससे लाख गुना अच्छी रामलीला ४० साल पहले मेरे गाँव में होती थी. कोई साधन नहीं थे, बिजली नहीं थी, लालटेन जला कर मंच पर उजाला किया जाता था. किरदार अपना पार्ट याद करके रखते थे. हर दृश्य की अपनी धुन होती थी. हर चीज एकदम व्यवस्थित होती थी. उद्घोषक सज्जन की वाचन शैली को तो मैं कभी नहीं भुला सकता. घंटा भर ‘लीला’ देखने के बाद लगा कि इसका हाल भी दिल्ली की नौसिखिया रामलीला जैसा ही है. लेकिन यहाँ तो इसका इतना समृद्ध समाज है! फिर ऐसा क्यों? लगा कि हमारी संस्कृति को जैसे घुन लग गया है. लोग तो ऐसे आयोजनों में जाना चाहते हैं, लेकिन आयोजन करने वाले ही जैसे सब कुछ भूल गए हैं. रामलीला का आयोजन ही नहीं भूले, अपना कर्त्तव्य भी भूल बैठे हैं.

यह भी लगा कि लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये धनोपार्जन तो करना चाहते हैं, लेकिन बदले में देना कुछ नहीं चाहते. हम इस रामलीला के आयोजकों को कोसना नहीं चाहते पर इतने सारे दर्शकों का सम्मान तो उन्हें करना ही चाहिए. आपकी इस काहिली का नतीजा यह निकलेगा कि एक दिन आप पंडाल सजा के बैठे रहेंगे और कोई घर से नहीं निकलेगा और कोई मल्टीनेशनल आपके ही बगल में भारी टिकट लेकर रामलीला दिखायेगा. तब आप अपनी संस्कृति का रोना रोयेंगे.

-प्रो गोविन्द सिंह

पिथौरागढ़ में जन्मे प्रो गोविन्द सिंह पत्रकारिकता के शिक्षक हैं और भारत के वरिष्ठ पत्रकारों में शामिल हैं. 

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