गुलज़ार की नज़्म ‘बादल ‘-
'कल सुबह जब बारिश ने आ कर
खिड़की पर दस्तक दी थी
नींद में था मैं...
बाहर अभी अंधेरा था '
ये बारिश नूपुर पहन के आती है. अभी-अभी दिख रहा था आकाश पर सावन है न चुटकियों में घेर लेता बादल भार नहीं उठा पाता श्रवण और घनिष्ठा नक्षत्र की गति आता है तैरते हुए ठिठक कर सिमट ऊँचे पहाड़ से असुरचुला की चोटी से कहाँ -कहाँ से बटोर के लाये आंसू उमड़ -घुमड़ के बाद टप -टप धरती की प्यास विचारों का खालीपन धान के अंकुर मिट्टी की सुगंध तृप्त कर देता.
गीत गोविन्द में राधा कहती कृष्ण से काले घने बादलोंसे घना हो गया अँधियारा, अकेले कैसे लौटूं घर, तुम संग रहो बस. संयोग मिलन को आतुर मन तो बिछुड़े प्रेमी विछोह से विचलित मेघदूत का विरही यक्ष नभ के विचरते हाथियों के आकार वाले बादलों को देख खिन्न है. रामचरितमानस में भी कहा -“घन घमंड नभ गरजत घोरा. प्रियाहीन डरपत मन मोरा ”
विरहिन की पुकार से जेठ -वैसाख में झुलसी धरा को सावन की मदमस्त फुहार ने हरेले से भिगाना शुरू कर दिया. इसकी अपनी मुस्कानहै. बूंदों की टिप टिप, झड़ी, अपनी अकुलाहट, अपनी ध्वनि, स्पर्श, अनुभूति, सर पर चांदी की बूंदो का मन्द्र सप्तक, एकस्वर, पत्तियों पे लटकती, खिड़की से झम झम टपकती बारिश को देखना उसे सुनना. गीले परदे की तरह गिरना, बड़ी -बड़ी बूंदों की परत दर परत .
प्रकृति ने बारिश से तृप्त धरा के जो दृश्य दिखाए इनकी साझेदारी में हमारे आपके अपने रंग हैं. भीगे हुए इन रंगों में संगीत है, आरोह -अवरोह. ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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