दोपहर को फिर घूमने का मन हुआ तो गर्ब्यांग गांव से आगे काली नदी की ओर निकल गए. काली नदी में बना एक पैदल पुल बना दिखाई दे रहा था. नदी पार नेपाल में कुछ झुग्गियां दिख रही थी. सांझ होने लगी तो वापस अपने ठिकाने में पहुंचकर सामने चमकती हिमालय की ऊंची चोटी और उसके बगल में घनी हरियाली से ढके तीखे ढलान वाले पहाड़ को काफी देर तक निहारते रहा. इस पहाड़ को कुछ साल पहले ‘अमर उजाला’ ने देवी बताकर फ्रन्ट पेज में छाप दिया था. कुछ दिन बाद यह कहते हुए खेद भी जता दिया कि किसी पाठक ने फोटोशॉप से छेड़छाड़ कर भेजी थी. (Sin La Pass Trek 9)
‘चक्ती चलेगी’ के सवाल पर हमने हाथ खड़े कर दिए. मेरा मतलब था – नहीं और साथी लोग भी इस साहसिक यात्रा को पवित्र जानकर तौबा किए हुए थे. रात में दाल-भात बनाया गया. वायरलैस से नीचे की सूचना का आदान-प्रदान चल रहा था. चला कि हमारे दोनों साथी- पंकज और संजय बूंदी पहुंच गए हैं, कल दोपहर तक वे भी गर्ब्यांग पहुंच जाएंगे. भोजन के बाद हम कुछ देर तक गपियाते रहे. हीरा ने धारचूला जाना था तो वह अपनी तैयारियों में जुटा था.
सुबह हीरा ने अपना पिट्ठू लादा और हमसे विदा लेकर धारचूला को निकल गया. उसे शाम तक धारचूला पहुंचना था. नाश्ते के बजाय हमने आने वाले साथियों के साथ दोपहर में भोजन करने का मन बनाया और आगे की तैयारियों में जुट गए. इस बीच एक पोर्टर ने संजय का रुकसेक लाकर रखा और बताया कि वह पीछे से आ रहा है. दोपहर तक पंकज और संजय गर्ब्यांग पहुंचे तो उन्होंने गुंजी तक चलने के लिए हड़बड़ी दिखानी शुरू कर दी. बड़ी मुश्किल से उन्हें भोजन के लिए राजी किया. लगातार चलने से संजय के पांवों में छाले पड़ गए थे और उसका रुकसेक भी उसकी हाइट के हिसाब से काफी बड़ा था. उन दोनों के पास पर्वतारोहण का सामान भी काफी था जिसे बाद में हमने आपस में बांट लिया.
भोजन करने के बाद हीरा के साथियों से विदा लेकर हम पांच जनों की टीम गुंजी की ओर निकल पड़ी. रास्ता तिरछा और शांत था. जगह-जगह शिव के नारे लिखे हुए थे. तीन घंटे की पदयात्रा के बाद में नपलच्यू गांव में थे. गांव काफी खूबसूरत था. खेतों में जंबू के अलावा अन्य फसलें लहलहा रही थी. गांव का प्रवेश द्वार काफी खूबसूरती से बनाया गया था. मुश्किल से चार परिवार गांव में दिख रहे थे. गुंजी सामने कुट्टी यांगती नदी के पार दिखाई दे रहा था. गांव से नीचे पुल तक हल्का उतार के बाद गुंजी के लिए हल्की चढ़ाई थी. गुंजी गांव की बाखलियों के बीच से होते हुए दाहिनी ओर पर्यटक केंद्र की ओर चले. रास्ते में एक छप्परनुमा दुकान में बैठी दुकानस्वामी हम ग्राहकों को देखकर खुश हो गई. अभिवादन के बाद उसने हमारे लिए बैंचे बिछा दीं.
दरअसल, व्यास-दारमा के इस ट्रैक में हम राशन लेकर नहीं लाए थे. सिर्फ आपातकालीन भोजन ही हमने बचाकर रखा था. इस ट्रैक की पूरी जानकारी के बाद ही राशन नहीं ले जाने का ये निर्णय लिया गया, क्योंकि इस मार्ग में हर जगह आवास और भोजन की व्यवस्था है. हमारे पास टैंट, स्लीपिंग बैग, मैट्रस, रोप, छोटे बर्तन और एक छोटा स्टोव ही था. हर जगह गांव के स्थानीय पड़ाव में रुकने का मन बनाया था. इससे एक तो स्वादिष्ट भोजन मिल जाता है और स्थानीय लोग बड़ी आत्मीयता के साथ घुलमिल जाते हैं.
सांझ ढलने लगी तो सूरज भी अपनी दुकान समेटने लगा. गुंजी गांव की ओर दूर कई लोगों का हुजुम सा दिखाई दिया तो कौतुहलवश हम भी उसे देखने को रुक गए. जयघोष के साथ झुंड करीब आया तो पता चला कि यह काफिला पर्यटन मंत्री प्रकाश पंत का है. सर पर साफा बांधे हुए पन्त जी की चाल में गजब की तेजी दिखाई दी. वह छोटा कैलास की यात्रा पूरी कर लौट रहे थे.
दुकानस्वामिन अर्चना गुंज्याल, गुंजी गांव की ही थी. वह यहां यात्रा सीजन में अपने छोटे भाई के साथ सुबह से रात तक काम में जुटी रहती थी. अंधेरा घिर आया था. भोजन में दाल-भात और टपकिया के साथ मिली तीखी चटनी ने दिनभर की थकान दूर कर दी. सोने के लिए बैंचों को आपस में जोड़कर डबलबैड बना हमने अपने मैट्रस और स्लीपिंग बैग निकाल लिए. अर्चना बहन ने भी बगल में दो बैंचे जोड़कर अपना और छोटे भाई का बिस्तर निकाल लिया. (Sin La Pass Trek 9)
अर्चना से बातचीत से पता चला कि आगे कालापानी और नाभीढांग में दो-एक दिन बाद यात्री पहुंचेंगे. इसलिए वहां के पर्यटक आवास अभी खाली मिलेंगे. इस पर मैंने सभी को छाता, विंडचेटर/जैकेट, तौलिया, वाटर बोटल सहित कुछ बिस्कुट-टॉफी जैसे कुछ जरूरी सामान सांथ ले जाने और टैंट सहित बाकी सामान यहीं रखने का सुझाव दिया. इतना सामान एक छोटे रुकसेक में आ जाएगा जिसे हम बारी-बारी से ढो लेंगे. सभी तैयार हो गए सिवाय पंकज के. मुश्किल से उसे मनाया लेकिन सुबह उसने महेश दा, पूरन, संजय समेत खुद की पीठ को मैट्रस और स्लीपिंग बैग से लाद ही दिया. मैं खाली हाथ रहा.
जारी…
– बागेश्वर से केशव भट्ट
पिछली क़िस्त: गर्ब्यांग गांव के काकू और उनकी जड़ी-बूटियों की खुशबू वाली जादुई चाय
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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