केशव भट्ट

गर्ब्यांग गांव के काकू और उनकी जड़ी-बूटियों की खुशबू वाली जादुई चाय

सुबह जागे तो मौसम ठंडा और खुशनुमा था. चाय पीने के बाद कुछ देर आंगन में धूप के इंतजार में चहल-कदमी करते रहे. धीरे-धीरे धूप ने पूरे गांव में अपनी चादर फैला दी तो महेशदा ने एक थाली पकड़ उसे हुड़के की तरह थाप दे गिर्दा के बोलों को लय देनी शुरू की और हम सब भी उनके सांथ झूम उठे. (Sin La Pass Trek 8)

छानी-खरिकों में धुंआ लगा है,
ओ हो रे, आय हाय रे, ओ हो रे…
ओ दिगौ लाली.
थन लगी बाछी कि गै पंगुरी है
द्वि-दां, द्वि-दां की धार छूटी है
दुहने वाली का हिया भरा है…
ओ हो रे…
आय हाय रे…
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है,
गीली है लकड़ी, गीला धुंआ है,
साग क्या छौका कि पूरा गौं महका है,
ओ हो रे आय हाय रे.. गन्ध निराली…

‘गिर्दा’ के बोलों को गर्ब्यांग गांव में साक्षात महसूस किया तो कहीं भीतर तक छपछपी लग गई.

हीरा ने गांव घूमकर आने की बात कही तो हम खुश हो लिए. गुंजी वाले रास्ते में कुछ दूर जहां गांव की सरहद खत्म हो रही थी, वहीं से गर्ब्यांग के भीतर प्रवेश किया. कुछ पल थमकर गांव को निहारा तो सामने छियालेख तक नजर गई. यहां से यह गांव धंसता हुआ सा महसूस होता है. घरों के आंगन से गुजरते हुए लगा कि ज्यादातर घरों में बुजुर्ग ही थे. युवा-बच्चे कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. शिष्टाचार अभिवादन के जवाब में वे चाय पीकर जाने का आग्रह कहते और हम, “अभी आते हैं…” कहकर सकुचाते हुए कदम बढ़ा लेते. इस गांव के पुरखों ने काली नदी के किनारे समतल जमीन देख कभी यहां अपने आशियाने बसाए होंगे. लेकिन धीरे-धीरे गांव धंसता चला गया और आज भी धंस रहा है. कई तीमंजिले घर भी इस वजह से ढह गए थे. आधे-अधूरे घर जिनमें कभी किलकारियां गूंजती होंगी.., दिनभर के थके-हारे माता-पिता उन्हें गोद में लेकर पुचकारते होंगे.., उन घरों में बन रहे पकवानों की महक फिजा में मंद-मंद बहती होगी.., कभी त्योहारों की चहल-पहल में पूरी घाटी चमक-धमकती भी होगी..

गर्ब्यांग

वक्त के साथ सब कुछ थमता चला गया. पुरानी यादों को संजोये बुजुर्ग साल में कुछ महिने यहां आकर खंडहर होते अपने घरों को बचाने प्रयास करते हैं. तेजी से भाग रही इस दुनिया में नई पीढ़ी का मोह अपने गांव के प्रति अब ज्यादा बचा नहीं है. लकड़ी की बेहतरीन नक्काशी वाले ये घर अब आधे-अधूरे की बचे हैं, इस बात का दुःख उन्हें है लेकिन गांव की जमीन धंस रही है तो वे भी क्या करें.

कुछ आगे को बढ़े तो एक जगह रास्ते को सीमेंट से ठीक करते हुए कुछ मजदूर दिखाई दिए. एक बुजुर्ग महिला उन्हें काम के निर्देश दे रही थी. अभिवादन के बाद पता चला कि वह ग्राम प्रधान हैं – बागेश्वरी गर्ब्याल. आंगन में चारदीवारी में बैठ उनसे बातें शुरू हुईं तो वह अपने अतीत में खो गईं. (Sin La Pass Trek 8)

क्या बताऊं अब हो… यहां पहुंचने तक तो आपको पता ही चल गया होगा कि यहां कितनी परेशानियां हैं. पैदल रास्ते के यह हाल है. हां… कभी सड़क आ जाती तो शायद कुछ भला हो जाता हमारे गांव का भी. क्यां कहें… सरकारों को तो अपना ही घर भरने से फुर्सत नहीं है. हम खानाबदोशों के बारे में वे क्यों सोचने लगीं. हमारे बगल में चीन ने लिपूलेख की जड़ में मोटर गाड़ी पहुंचा दी है… हर साल कैलास जाने वाले यात्री वहां से गाड़ी में ही बैठकर जाते हैं और हमारी सड़क घटियाबगड़ से आगे नहीं बढ़ पाई है और वह भी नामभर को ही सड़क है. अब भी पैदल ही सफर करना पड़ता है. पहले जमाने में पैदल चलना उतना नहीं अखरता था. पता था इतना पैदल है. अब इस टूटी-फूटी रोड से मन कसकने वाला हुआ. अब सरकार को देखो, इस गांव में कभी हिरन नहीं दिखे लेकिन इसे मृग विहार बना दिया. यह हट जाता तो क्या पता सड़क बन जाती. हम नहीं भोगते उस सड़क को, हमारी अगली पीढ़ी तो क्या पता फिर आती गांव को देखने…

उनके पास गांव और अपने बारे में कभी न ख़त्म होने वाली लंबी दास्तान थी. उस वक्त गलियों का काम चल रहा था तो हमने भी उन्हें ज्यादा नहीं कुरेदा. आगे बढ़े तो एक चाय की दुकान में पसर गए. हीरा ने जाते ही उन्हें काकू कह प्रणाम किया तो वो मुस्कुरा दिए. अस्सी का दशक पार कर चुके काकू उर्फ तब्दू ने चूल्हे में केतली चढ़ाकर आग तेज करते हुए बताना शुरू किया –

एक जमाने में हम तकलाकोट में व्यापार के लिए यहां से गुड़, फाफर, नपल और आलू ले जाते थे. वहां बकरियों की खूब खरीद-फरोख्त हुआ करती थी. बहुत लंबा व्यापार चलता था उन दिनों तो, अब तो खाली दिखावा रह गया है. चीन युद्ध से पहले हमारा गांव सोने की मंडी था. सारा व्यापार यहीं से होता था. नेपाल के छांगरू के लोग कीड़ा-जड़ी लेकर वहां बेचने को आते थे. चीन युद्ध के बाद व्यापार बंद हो गया और इधर हमारा गांव भी धंसना शुरू हो गया. गांव वालों को सरकार ने भाभर में जमीन दी लेकिन वह सब भी बहुत खराब रहा. हमारा मन तो अपना गांव छोड़ने को करता नहीं है. अब लोग कम रहते हैं तो ज्यादा संसाधन भी हम जुटा नहीं पाते हैं. इसलिए जाड़ों में नीचे धारचूला चले जाते हैं और फिर गर्मियों में छह-एक महिनों के लिए यहां आ जाते हैं… (Sin La Pass Trek 8)

चाय बन गई थी. जड़ी-बूटियों की खुशबू से महकती चाय स्वादिष्ट लगी. चाय पीकर काकू से विदा ली और अपने ठिकाने में पहुंच गए. गांव की चहल-पहल बस इतनी ही थी.

(जारी…)

– बागेश्वर से केशव भट्ट

पिछली क़िस्त: छियालेख के बुग्याल में मरी हुई चिड़िया के फुर्र होने का जबरदस्त किस्सा

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड: योग की राजधानी

योग की भूमि उत्तराखंड, तपस्या से भरा राज्य जिसे सचमुच देवताओं की भूमि कहा जाता…

8 hours ago

मेरे मोहल्ले की औरतें

मेरे मोहल्ले की औरतें, जो एक दूसरे से काफी अलग है. अलग स्वभाव, कद-भी  एकदम…

10 hours ago

रूद्रपुर नगर का इतिहास

रूद्रपुर, उत्तराखंड का एक प्रमुख शहर, अपनी सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक परिवर्तनों के लिए प्रसिद्ध…

3 days ago

पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय और तराई-भाबर में खेती

उत्तराखंड की धरती पर कृषि शिक्षा, अनुसंधान और विकास का एक चमकता सितारा है "गोविंद…

4 days ago

उत्तराखंड की संस्कृति

उत्तराखंड, जिसे प्यार से "देवभूमि" कहा जाता है, उस अद्भुत सांस्कृतिक विविधता, परंपराओं और प्राकृतिक…

4 days ago

सिडकुल में पहाड़ी

उत्तराखंड में औद्योगिक विकास को गति देने के लिए सिडकुल (उत्तराखंड राज्य अवसंरचना एवं औद्योगिक…

4 days ago