दिनेश कर्नाटक की ताजा पुस्तक ‘शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ’ भारतीय शिक्षा प्रणाली के कई मुद्दों पर विस्तृत चर्चा करती है और उसकी कार्यप्रणाली को देखने और समझने के लिए एक दृष्टिकोण प्रदान करती है. पुस्तक विभिन्न स्कूली प्रक्रियाओं का व्यवस्थित रूप से विश्लेषण करती है. इसके अलावा यह शिक्षा से जुड़े अहम् मुद्दों को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ में देखती है जो इसे सार्वजनिक चिंतन का विषय बनाती है. पुस्तक मूल रूप से यह सवाल उठाती है कि शिक्षा की चुनौतियों को सिर्फ शिक्षा से जुड़े लोगों के विमर्श का विषय नहीं, बल्कि सार्वजनिक मुद्दा बनना होगा तभी इसमें बदलाव संभव है.
(Shiksha mein badlav ki chunautiyan)
लेखक के अनुसार हमें रोटी, कपड़ा व मकान की तरह शिक्षा की समस्याओं के बारे में बात करनी होगी क्योंकि शिक्षा हमारे सोचने, कार्य करने और प्रतिक्रिया देने के तरीके को प्रभावित करती है. पुस्तक में “शिक्षित होने के अर्थ” और “शिक्षा के अर्थ” पर भी प्रकाश डाला गया है. प्रायः शिक्षित होने को साक्षर होने, सर्टिफिकेट अथवा डिग्री प्राप्त करने या नौकरी अर्जित करना मान लिया जाता है. लेखक का तर्क है कि शिक्षित होना सिर्फ डिग्री हासिल करना या अच्छी नौकरी पाना नहीं है, यह जीवन की तैयारी और एक अच्छे इंसान के बनने की प्रक्रिया है. पुस्तक के विभिन्न अध्याय शिक्षा प्रणाली और स्कूल प्रक्रियाओं से जुडी चुनौतियों पर चर्चा करते है. यह पुस्तक शिक्षा के निजीकरण, शिक्षण अधिगम प्रक्रिया, शिक्षण पेशे का यांत्रीकरण, छात्रों की विफलता, शिक्षा के माध्यम, शिक्षकों की स्वायत्तता आदि विषयों के बारे में सोचने को विवश करती है.
पुस्तक वार्तालाप के स्वर में है और ऐसा लगता है जैसे लेखक पूरी पुस्तक में पाठकों के साथ बातचीत कर रहा है. प्रत्येक मुद्दे पर चर्चा करते हुए लेखक उस मुद्दे से संबंधित कुछ प्रश्न उठाता है, यह पाठक को पढ़ने में व्यस्त रखता है और उन्हें सोचने और चिंतन करने के लिए प्रेरित करता है. लेखक का तर्क है कि शिक्षा की असफलता के मुख्य कारणों में से एक प्रक्रिया-उन्मुख मानसिकता के बजाय परिणामवादी मानसिकता है. शिक्षा से संबंधित सभी नीतियां और कार्यक्रम सुस्पष्ट कार्यान्वयन को नज़रअंदाज़ कर बनाये जाते हैं. शिक्षकों का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि उन्होंने पाठ्यक्रम कितना पूरा किया और उनके छात्रों के कितने अंक आये. इसी तरह छात्रों को परीक्षा में उनके प्रदर्शन से आंका जाता है, जिसकी वजह से शिक्षण प्रक्रिया से जुड़े मुद्दों के बारे में कोई चर्चा नहीं होती है. छात्र कैसे सीखते हैं और क्या जानते हैं, शिक्षक कैसे पढ़ाते हैं, स्कूल में किस तरह का वातावरण है, छात्र किस तरह के मूल्य सीख रहे हैं, आदि मुद्दे नजरअंदाज हो जाते हैं. इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता कि शिक्षकों को कक्षा में पढ़ाने की स्वतंत्रता और स्वायत्तता है कि नहीं और क्या छात्रों को प्रश्न पूछने और सीखने की प्रक्रिया में भागीदार बनने के लिए अवसर दिए जाते हैं कि नहीं.
लेखक की सबसे बड़ी चिंता यह है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छे इंसानों का निर्माण करने और लोकतांत्रिक और मानवतावादी मूल्यों पर आधारित समाज बनाने में विफल हो रही है. इसके फलस्वरूप एक अनैतिक, भ्रष्ट, परिणामवादी समाज का निर्माण हो रहा है. शिक्षा से जुड़े होने के कारण लेखक शिक्षण प्रणाली कैसे, कहां और क्यों विफल हो रही है के विषय में एक विस्तृत विवेचन कर पाया है. लेखक ने बहुत दिलचस्प अंदाज़ में स्कूलों की सूक्ष्म प्रक्रियाओं को बड़े सामाजिक मुद्दों से जोड़ा है. लेखक शिक्षा प्रणाली के मशीनीकरण को लेकर सवाल उठाता है, उसका कहना है कि शिक्षा प्रणाली यांत्रिक हो गई है, जिसका मुख्य उद्देश्य छात्रों को परीक्षा उत्तीर्ण करना और भविष्य में नौकरियों के लिए तैयार करना है और अब इस में तर्कसंगत सोच, रचनात्मकता, दूसरों के प्रति सहानुभूति आदि के लिए कोई जगह नहीं बची है. शिक्षा की वर्तमान प्रणाली के कारण, छात्र आत्मबोध करने और उनके हितों की पहचान करने में अक्षम हैं, बाजार में उपलबध विकल्प और उत्पाद उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं.
स्कूल प्रणाली की एक और बड़ी दुविधा यह है कि इसे मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया के बजाय नौकरशाही के पारंपरिक तरीके से चलाया जाता है जहां अधिकारी आदेश पारित करते हैं और शिक्षकों और छात्रों से आदेशों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है. इस प्रणाली में छात्रों और शिक्षकों के लिए शिक्षण प्रक्रिया में भागीदार बनने के की जगह और स्वतंत्रता निरन्तर सिकुड़ती जा रही है. हालांकि विकृत प्रणाली और उसकी विफलता को छिपाने के लिए दोष शिक्षकों पर थोप दिया जाता है. लेखक की चिंता है कि शिक्षा की वर्तमान प्रणाली हमारे संवैधानिक और लोकतांत्रिक आदर्शों को प्राप्त करने में असफल हो रही है. शिक्षा की वर्तमान प्रणाली हमें व्यक्तिवादी बनाती है और विशेषाधिकार वाले वर्ग को बढ़ावा देती है. वर्तमान प्रणाली वर्ग हित में कार्य करती है और माता-पिता की क्रय शक्ति के अनुसार शिक्षा प्रदान करती है. शिक्षा के बाजारीकरण के परिणामस्वरूप, ट्यूशन, महंगे निजी स्कूल और कोचिंग सेंटर अंकुरित हुए हैं जिन्हें सफलता की गारंटी के रूप में प्रचारित किया जाता है. नतीजतन सरकारी स्कूल उन लोगों के लिए छोड़ दिए जाते हैं जो या तो निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का खर्च नहीं उठा सकते या उन जगहों पर रहते हैं जहां कोई निजी स्कूल उपलब्ध नहीं हैं. निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या और सरकारी स्कूलों की घटती साख का उपाय शासन में बैठे लोगों को स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम में बदलना लगता है, यह समाधान शिक्षा के बारे में परिणामवादी ढंग से सोचने और शिक्षा की प्रक्रिया पर चर्चा नहीं करने का नतीज़ा है. इस आसान लगते समाधान के पीछे यह मानसिकता है कि शिक्षा का माध्यम बदलने से ही छात्रों के सीखने के स्तर में सुधार हो जायेगा और उन्हें अच्छे परिणाम मिलेंगे.
लेखक का मानना है कि शिक्षा की असफलता को सफलता में बदलने का प्रभावी तरीका समानता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित समावेशी स्कूल ही हो सकते हैं. वह मातृभाषा को शिक्षा की माध्यम भाषा और अंग्रेजी को द्वितीय भाषा के रूप में अपनाने का सुझाव देता है. लेखक के अनुसार जिन छात्रों की मातृभाषा और कार्यात्मक भाषा अंग्रेजी से अलग है, उनके लिए अंग्रेजी में अवधारणाओं को समझना मुश्किल होता है, इस कारण वह भाषा के साथ निरंतर संघर्ष करते हैं और यह उनके मन में शिक्षा से अलगाव पैदा करता है, और वे सीखने की प्रक्रिया का आनंद लेने में अक्षम हो जाते है. इसका परिणाम यह होता है कि यह हमें हमारे स्थानीय ज्ञान और संस्कृति से अलग कर देता है और हम उसे कमतर समझने लगते हैं. लेखक कहता है कि शिक्षा के क्षेत्र में चल रही वर्तमान चर्चाएं वास्तविक सवालों से कोसों दूर हैं, इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि इस प्रणाली के माध्यम से किस तरह का समाज और मानव निर्मित हो रहा है.
यह पुस्तक इस महत्वपूर्ण मुद्दे को भी उठाती है कि शिक्षा छात्रों के लिए बोझ क्यों बन जाती है और वे सीखने की प्रक्रिया का आनंद क्यों नहीं उठा पाते. लेखक का कहना है कि इसका एक बड़ा कारण इस मानवीय पेशे का मशीनीकरण है जहां पूरी बात छात्रों की संख्या, पाठ्यक्रम, समय- सारणी और अंकों तक सिमट जाती है. ज्यादातर शिक्षक, छात्रों को उनके अनुक्रमांक से ही जानते हैं और केवल वही छात्र शिक्षकों की नज़र में आते हैं जो परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करते हैं. परिणामवादी सोच की समस्या यह है कि छात्रों पर परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए दबाव डाला जाता है और उन्हें सीखने की प्रक्रिया का आनंद लेने, खेलने या अन्य जीवन कौशल विकसित करने का समय नहीं मिलता. लेखक का कहना है कि छात्रों में पढ़ने की आदत को उनके जीवन के शुरुआती वर्षों में सीखने और जानने की प्रक्रिया के रूप में विकसित किया जाना चाहिए न कि अच्छे अंक प्राप्त करने के साधन के रूप में. उसने इस बात पर भी जोर दिया है कि छात्रों को प्राथमिक ग्रेड तक कोई होम-वर्क नहीं दिया जाना चाहिए. होम-वर्क के बोझ के कारण छात्रों को दूसरों के साथ मेलजोल बढ़ाने और अन्य जीवन कौशल सीखने का ज्यादा समय नहीं मिल पाता. वह स्कूल के पाठ्यक्रम में काष्ठकला, पेंटिंग, नलसाजी आदि जैसे कौशल को शामिल करने के लिए तर्क देता है. उसका मानना है कि इससे विद्यार्थी कुशल होने के साथ-साथ शारीरिक श्रम के प्रति संवेदनशील भी बनेंगे. लेखक की मुख्य चिंता निरंतर विकृत होती शिक्षा प्रणाली के कारण बनने वाले समाज की है. उसका तर्क है कि इस विकृत प्रणाली के परिणाम स्वरूप एक विकृत समाज का निर्माण हो रहा है जहां भोग व उपभोग को ही जीवन की उपलब्धि समझा जा रहा है और सामूहिकता को अपनाने के बजाय व्यक्ति खुद को समाज से अलग मानकर चलता है.
लेखक के अनुसार वर्तमान शिक्षा प्रणाली भय, विश्वास की कमी और परिणामवादी मानसिकता की ओर उन्मुख है. शिक्षा व्यवस्था का शिक्षकों पर भरोसा नहीं है और उन पर पाठ्यक्रम को समय से पूरा करने को लेकर लगातार दबाव बना रहता है, जबकि हर रोज नए-नए फरमानों के जरिए पढ़ाई के मौके कम होते जाते हसीन. छात्रों को सवाल पूछने से डर लगता है क्योंकि सवाल पूछना कक्षा के प्रवाह में व्यवधान माना जाता है. हमारी शिक्षा प्रणाली लक्ष्य और अच्छे अंक प्राप्त करने की ओर केंद्रित है, इसलिए शिक्षक छात्रों के प्रश्नों में रुचि नहीं रखते, वे पाठ्यक्रम को पूरा करने और फिर छात्रों को अपनी परीक्षाओं के लिए तैयार करने की दिशा में अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं. विद्यालय में कृत्रिम अनुशासन स्थापित करने के लिए शिक्षकों को छात्रों के साथ एक अंतर बनाए रखना होता है, जिस वजह से छात्रों को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करने वाले एक सकारात्मक और स्वतंत्र वातावरण का निर्माण नहीं हो पाता. लेखक का मानना है कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य छात्रों को जानने व खोजने के प्रति उत्सुक बनाना और सवाल पूछने के लिखे प्रेरित करना है.
(Shiksha mein badlav ki chunautiyan)
पाठ्यपुस्तक केंद्रित शिक्षा छात्रों, शिक्षकों और समाज के लिए उपयोगी साबित नहीं हो रही है. शिक्षक एक ही पाठ्यकरण को बार-बार पढ़ाकर बोर हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि वे सब कुछ जानते हैं. छात्र पाठ्यपुस्तक पर पूरी तरह निर्भर हो जाते हैं और नई चीजों का पता लगाने की क्षमता खो देते हैं. लेखक इस बात पर जोर देता है की शिक्षा केवल तभी आनंददायक हो सकती है जब शिक्षक और छात्र दोनों सीखने में भागीदार बनें और शिक्षा का उद्देश्य अच्छे अंक प्राप्त करने के बजाय बेहतर इंसान बनाना हो जाए.
लेखक शिक्षक के पेशे के बारे में भी चर्चा करता है. उसका कहना है कि शिक्षकों के पेशे को राष्ट्र की सेवा के रूप में देखा जाता है लेकिन शिक्षकों को स्वायत्तता नहीं दी जाती है और शिक्षा व्यवस्था की विफलता के लिए हमेशा उसकी जवाबदेही बनी रहती है. शिक्षकों से केवल आदेशों का पालन करने और किसी भी चीज पर सवाल नहीं उठाने की उम्मीद की जाती है. उन्हें उनके जीवन और पेशे को प्रभावित करने वाली नीतियों और निर्णयों में भागीदार नहीं बनाया जाता. आदेशों का पालन करने में कुशल होने वाले शिक्षकों को आधिकारिक स्तर पर पुरस्कृत किया जाता है. शिक्षकों का मूल्यांकन छात्रों के अंकों और पाठ्यक्रम पूरा होने के आधार पर किया जाता है, जो इस पेशे को एक बहुत ही यांत्रिक कार्य के रूप में बना देता है. सेवारत प्रशिक्षण कार्यक्रम भी केवल नाम की खातिर आयोजित किए जाते हैं. लेखक ने जोर देकर इस बात को कहा है कि जिस तरह की स्वतंत्रता की हम छात्रों के लिए उम्मीद करते हैं, शिक्षक को भी उसी तरह की स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है.
लेखक ने शारीरिक दंड के बारे में भी अपने विचार प्रस्तुत किये हैं. उसका तर्क है कि शारीरिक दंड की उपस्थिति एक सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मुद्दा है क्योंकि हम समस्या के कारण को समझने के बजाय छात्रों को चुप कराने को समाधान मान लेते हैं. हम समस्या को तिल से ताड़ बनने तक दबाते हैं और समस्या के बड़े होने के बाद उसे हल करने के लिए अभियान शुरू करते हैं. उसने जोर देकर कहा है कि छात्रों में आत्मविश्वास डर के माध्यम से उत्पन्न नहीं किया जा सकता, वे शिक्षकों का सम्मान तभी करेंगे जब उन्हें पाठ दिलचस्प लगेगा और जब उन्हें एहसास होगा की शिक्षक के लिए वह महत्वपूर्ण हैं. बल का प्रयोग, अनुशासन का भ्रम पैदा करता है लेकिन यह वास्तविक नहीं है. वास्तविक अनुशासन तब आता है जब सिस्टम अनुशासित होता है और सिस्टम में काम करने वाले लोग अपने काम के प्रति अनुशासित होते हैं. एक शिक्षक का कर्तव्य छात्रों को शिक्षा के महत्व का एहसास कराना है और जब छात्र इसे समझते हैं तो जबरदस्ती की कोई आवश्यकता नहीं रहती है. शारीरिक दंड से प्रेरित डर छात्रों के समग्र विकास पर बुरा प्रभाव डालता है. उनका मानना है कि छात्रों को समस्या के रूप में देखने के बजाय शिक्षण प्रक्रिया के भागीदार के रूप में देखा जाना चाहिए.
लेखक वर्तमान परीक्षा पैटर्न के समावेशी नहीं होने पर आपत्ति करता है. चूंकि समाज में सफलता का मानदंड छात्रों के अंकों पर निर्भर करता है, इसलिए जो छात्र परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं होते हैं, उन्हें नीचा दिखाया जाता है और इससे उनके आत्मसम्मान पर बुरा प्रभाव पड़ता है. परीक्षाएं रोचक होने के बजाय छात्रों के लिए बोझ बनकर सामने आती हैं. वह कहता है कि छात्रों की विफलता उनकी व्यक्तिगत विफलता नहीं है, यह शिक्षकों, स्कूल और समाज की विफलता है. शिक्षक का पेशा न केवल शिक्षकों की शिक्षण क्षमता की मांग करता है, बल्कि छात्रों के साथ जुड़ने और छात्रों के साथ सहानुभूति रखने की क्षमता की भी मांग करता है. शिक्षण पेशे में समर्पण और आत्मनिरीक्षण की अत्यधिक आवश्यकता होती है. हालांकि, वर्तमान में, केवल छात्रों के अंक और पाठ्यक्रम को लेकर ही सिस्टम और शिक्षक परेशान हैं.
8वीं और 10वीं कक्षा में बोर्डों को फिर से शुरू करने की मांग करने वाले शिक्षकों का तर्क है कि यह शुरुआती चरण में छात्रों को फ़िल्टर करेगा और परिणामों में सुधार करेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या स्कूल एक फ़िल्टरिंग मशीन की तरह हैं या एक ऐसी जगह है जहां छात्र सीखते हैं और बेहतर इंसान बनते हैं. लेखक का कहना है कि फ़िल्टरिंग मशीन के रूप में काम करने के बजाय, शिक्षा को छात्रों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाने की दिशा में केंद्रित किया जाना चाहिए. वैज्ञानिक सोच विकसित करना, जिज्ञासु होना और सवाल करना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन शिक्षा की वर्तमान प्रणाली में सवाल और जिज्ञासा के लिए जगह लगातार खत्म होती जा रही है. नतीजतन युवाओं की सोच रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है और वे अपने व्यक्तिगत हितों के आधार पर अपनी राय बनाते हैं और यही समाज में उपस्थित सामाजिक बुराइयों का कारण है.
यह पुस्तक शिक्षा प्रणाली में मौजूद चुनौतियों की ओर इशारा करने के साथ-साथ उन चुनौतियों से निपटने के लिए संभावित समाधानों की भी सिफारिश करती है. लेखक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे (2005) एनसीएफ-05 दस्तावेज़ का हवाला देता है. उसका कहना है कि यदि दस्तावेज का पूरी ईमानदारी से पालन किया जाता तो यह शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव होता और परिणामस्वरूप एक बेहतर समाज का निर्माण होता. एनसीएफ -05 बाल केंद्रित शिक्षा के बारे में बात करता है लेकिन वर्तमान में छात्रों के दृष्टिकोण क्लास में दबा रह जाता है, और पाठ्यपुस्तक और पाठ्यक्रम ही उनका मार्गदर्शन करता है. एनसीएफ-05 में उल्लेख किया गया है कि बच्चे तभी सीख सकते हैं जब वे कक्षा में महत्वपूर्ण महसूस करते हैं, लेकिन हमारे स्कूल उन्हें ऐसा महसूस नहीं करा पाते. यह बहुत आवश्यक है कि शिक्षकों को अपने छात्रों की समझ हो और वे उन्हें महत्वपूर्ण महसूस कराएं.
इसके अलावा, एनसीएफ-05 मानकीकृत परीक्षा के बजाय व्यापक और निरंतर मूल्यांकन के बारे में बात करता है लेकिन हमारी वर्तमान प्रणाली केवल छात्रों की याद रखने की शक्ति का मूल्यांकन करती है. एनसीएफ -05 हमारी शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी विफलता यह मानता है कि यह छात्रों की रटने, याद रखने और दोहराने की क्षमता का परीक्षण करती है. एनसीएफ-05 मेरिटोक्रेसीय यानि योग्यतातंत्र से उबरने के बारे में बात करता है क्योंकि यह छात्रों को व्यक्तिवादी बनाता है और विभाजन पैदा करता है. एनसीएफ-05 में यह भी उल्लेख किया गया है कि शिक्षा का ध्यान परीक्षा और अंतिम परिणामों पर नहीं बल्कि जानने और सीखने की प्रक्रिया पर होना चाहिए.
मुझे यह किताब बहुत दिलचस्प लगी और शिक्षा पर सोचने-विचारने वाले लोगों को इसे जरूर पढ़नी चाहिए. शिक्षा प्रणाली की परिधि के भीतर या बाहर सभी लोगों के लिए समान रूप से यह एक उपयोगी मार्गदर्शिका है तथा हमें यह तथ्य समझाने में सफल होती है कि शिक्षा और इसकी चुनौतियां हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन से कैसे जुड़ी हुई हैं. यह हमें शिक्षा के मुद्दों के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण और विचारशील बनाने का एक प्रयास है जो की शिक्षित होने का महत्वपूर्ण पहलू है. इस पुस्तक ने मुझे कई सवालों के साथ छोड़ दिया है और शिक्षा के बारे में अपने विचारों का आत्मनिरीक्षण करने के लिए प्रेरित किया है. एक छात्र शोधकर्ता के रूप में, इस पुस्तक ने मुझे शिक्षा प्रणाली की चुनौतियों को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने में मदद की है और मुझे शिक्षा प्रणाली में काम करने वाले लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाया है. इस पुस्तक में उन सवालों के बारे में भी चर्चा की गई है जो हमें शिक्षा प्रणाली को समझने की कोशिश करते समय खुद से पूछने कीआवश्यकता होती है. अधिकतर, सरकारी प्रणाली की विफलता सरकारी अधिकारियों और पदानुक्रम के सबसे निचले स्थान पर काम करने वाले लोगों पर थोपी जाती है, लेकिन हकीकत यह है कि अगर सरकार का मन्तव्य एक व्यवस्था का बेहतर काम करना है तो सिस्टम अच्छा प्रदर्शन करता है. यह पुस्तक हमें बार-बार याद दिलाती है कि हमारे देश में सरकारी स्कूलों की विफलता शिक्षकों, छात्रों और सिस्टम में काम करने वाले लोगों के कारण नहीं है, बल्कि अप्रभावी नीतियों और कार्यक्रमों के कारण है.
पुस्तक शिक्षा ही नहीं विभिन्न सरकारी प्रणालियों के बारे में पुनर्विचार को प्रेरित करती है और हमें अपने मूल्यों, विश्वासों और आदर्शों पर आत्मनिरीक्षण करने के लिए प्रेरित करती है. पुस्तक का तर्क है कि स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में बेलगाम निजीकरण लोगों के लिए काफी नुकसानदायक हो सकता है, यह लोकतांत्रिक मानदंडों और आदर्शों के खिलाफ है. सरकारी प्रणालियां सेवा उन्मुख होती हैं और यदि ये प्रणालियां बेहतर प्रदर्शन करती हैं, तो लोग सेवाएं प्राप्त करते हैं. जबकि, निजी प्रणालियां लाभ उन्मुख होती हैं, उनका तर्क मुनाफे द्वारा निर्देशित होता है. इसलिए शिक्षा में बदलाव के लिए सबसे पहले विभिन्न प्रकार के स्कूलों को समन्वयी शिक्षा प्रणाली द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए.
(Shiksha mein badlav ki chunautiyan)
शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ पुस्तक इस लिंक द्वारा मंगाई जा सकती है – शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ
–नवेन्दु जोशी
नवेन्दु जोशी शिक्षा के समाजशास्त्रीय मुद्दों पर रुचि रखते हैं. वर्तमान में बेंगलुरू स्थित ‘नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज’ से ‘स्कूल में जीवन: पारस्परिक क्रिया, अर्थवत्ता, अस्मिता तथा आकांक्षाएँ’ विषय पर शोध कर रहे हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…