“बाढ़ और अकाल से मुर्गा बच जाए मगर वह हमसे सुरक्षित नहीं रह सकता”
कमिश्नर ने कहा और इस मजा पर सब जोर से हंसने लगे. बाहर बाढ़ और अन्दर लंच चल रहा है. भारतीय दर्शक कुछ समय तक मंच पर केवल पात्रों का मुंह चलते देखता है. प्लेटें साफ़ हो रही हैं, वेटर खाली प्लेटें उठा रहे हैं. तहसीलदार खिड़की से बाहर बाढ़ का दृश्य देख रहा है.
यह बानगी है हिन्दी के मूर्धन्य व्यंग्यकार शरद जोशी के लेखन की जिनका आज जन्मदिन है (Sharad Joshi Birthday). वे 21 मई 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में शान्ति जोशी और श्रीनिवास जोशी के घर जन्मे थे. छः भाई बहनों में वे दूसरे नंबर पर थे. जीवन के आरम्भ में उन्होंने सरकारी नौकरी की लेकिन बाद में वे पूर्णकालिक लेखक हो गए. एक समय था जब हिन्दी के किसी भी अखबार या पत्रिका को उनके लेख के बगैर अधूरा माना जाता था. (Sharad Joshi Birthday)
उन्होंने 1950 के दशक में इंदौर में रहते हुए रेडियो के लिए लिखना शुरू किया जब उनकी मुलाक़ात लेखिका और रेडियो तथा थियेटर कलाकार इरफ़ाना सिद्दीकी से हुई. उन्होंने बाद में विवाह कर लियी और उनकी तीन बेटियाँ हुईं – बानी, रिचा और नेहा. नेहा शरद ने कवि-लेखिका और अभिनेत्री के रूप में बहुत नाम कमाया.
व्यंग्यकार के रूप में शरद जी की मेधा अतुलनीय थी और आलोचक उन्हें हरिशंकर परसाई के समकक्ष रखते हैं. धारदार राजनैतिक और सामाजिक व्यंग्य लिखने में उन्हें महारत हासिल थी, जिसका नमूना आप इस पोस्ट के आखिर में देख सकते हैं.
एक व्यक्ति के तौर पर उनके जानने वाले उन्हें साधारण जीवन में विश्वास रखने वाले एक आत्माभिमानी लेखक के रूप में याद करते हैं. एक किस्सा यूं मशहूर है कि उन्हें किसी जगह रचनापाठ के लिए बुलाया गया. श्रोताओं में एक स्थानीय नेता भी उपस्थित था. उनकी रचना के तीखे राजनैतिक स्वर नेताजी को नहीं भाये. आयोजकों ने उनसे कुछ और सुनाने को कहा. इस पर शरद जी ने कहा की उन्हें पहले से बताया जाना था कि कौन सी रचना सुनानी है और कौन सी नहीं और शालीनतापूर्वक कार्यक्रम से बाहर आ गए.
शरद जोशी के बारे में भोपाल में रहने वाले मशहूर पत्रकार व लेखक राजकुमार केसवानी ने एक जगह लिखा है – “शरद जोशी जितने अनुशासित और ज़बरदस्त लिक्खाड़ थे, उससे कहीं ज़्यादा बड़े और ज़्यादा कड़े पाठक थे. इतिहास में उनकी गहरी रुचि थी. एक मर्तबा की उनकी बात भूलती नहीं है. वे कह रहे थे कि देखो इतिहास में धोखा ही धोखा है. पुराने ज़माने में बड़े-बड़े राजा-महाराजा, बादशाह और शहंशाह जब जंग के लिए निकलते थे तो वे अपने साथ अपने इतिहास लिखने वाले दरबारियों को भी साथ लेकर चलते थे. ये कथित इतिहास लेखक हमेशा फौज की आखिरी पंगत में रहते थे ताकि पूरा हाल देख सकें और अपने मालिक का यशोगान लिख सकें. उन्हीं के साथ-साथ सफाई करने वाले मुलाज़िम चलते थे. इनका काम होता था फौज के हाथी-घोड़ों के कदमों के निशान मिटाना और लीद जमा करना ताकि दुश्मन को उनकी फौज के मूवमेंट और ताकत का अंदाज़ा न हो सके.”
आज उनके जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनकी एक यादगार रचना –
जिसके हम मामा हैं
-शरद जोशीएक सज्जन बनारस पहुँचे. स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आया.
‘मामाजी! मामाजी!’ – लड़के ने लपक कर चरण छूए.
वे पहताने नहीं. बोले – ‘तुम कौन?’
‘मैं मुन्ना. आप पहचाने नहीं मुझे?’
‘मुन्ना?’ वे सोचने लगे.
‘हाँ, मुन्ना. भूल गए आप मामाजी! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गए.’
‘तुम यहाँ कैसे?’
‘मैं आजकल यहीं हूँ.’
‘अच्छा.’
‘हाँ.’
मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे. चलो, कोई साथ तो मिला. कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर.
फिर पहुँचे गंगाघाट. सोचा, नहा लें.
‘मुन्ना, नहा लें?’
‘जरूर नहाइए मामाजी! बनारस आए हैं और नहाएँगे नहीं, यह कैसे हो सकता है?’
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई. हर-हर गंगे.
बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब! लड़का… मुन्ना भी गायब!
‘मुन्ना… ए मुन्ना!’
मगर मुन्ना वहाँ हो तो मिले. वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं.
‘क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है?’
‘कौन मुन्ना?’
‘वही जिसके हम मामा हैं.’
‘मैं समझा नहीं.’
‘अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना.’
वे तौलिया लपेटे यहाँ से वहाँ दौड़ते रहे. मुन्ना नहीं मिला.
भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है. मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार. होनेवाला एम.पी.. मुझे नहीं पहचाना? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं. बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया. वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया.
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं. सबसे पूछ रहे हैं – क्यों साहब, वह कहीं आपको नजर आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं. वही, जिसके हम मामा हैं.
पाँच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं.
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