इस देश के अमूमन हर क़स्बे के बाहरी हिस्से में एक मुख़्तलिफ़ और यकसां क़िस्म की तासीर सी तारी होती है. वो क़स्बा चाहे आंध्र प्रदेश के कत्थई से आसमान तले फैले तटीय इलाक़े में बसा हुआ हो, या पंजाब के दोआबे की चमकीली ऊर्जा से भरे गतिशील क्षेत्र में, और या फिर उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड की तराई के नमी से चिपचिपे मैदान के किसी अलसाए से हिस्से में – हिंदुस्तानी क़स्बों के बाहरी, ख़ामोश, अनगढ़, बेतरतीब और उपेक्षित से हिस्सों के मिज़ाज और सीरत लगभग मिलती-जुलती होती है.
सामान्यतया मुख्य क़स्बे से किसी निकटवर्ती बड़े शहर (जो ज़्यादातर उनका तहसील या ज़िला मुख्यालय हुआ करता है), को जोड़ती सड़क पर बसे यह इलाक़े आम तौर पर रिहायशी आबादी से लगभग खाली होते हैं, और क़स्बे के कुछ गिने-चुने धनाड्य लोगों के लिए मुनाफ़े के एक हिस्से को बतौर निवेश खपाने का उम्दा साधन भर. आगे चलकर कुछ सालों बाद जब आबादी के दबाव के चलते क़स्बा अपने पैर फैलाने लगता है, तब यह निवेश उन धनाड्य लोगों की अगली पीढ़ियों के लिए समृद्धि के रास्ते पर एक और लंबी छलांग लगाने का बाइस बन जाता है.
लेकिन जो चीज़ इन हिस्सों को मुख्य क़स्बे से बिल्कुल अलग करती है, वो इनका हर क़िस्म के बंजारों और मुसाफ़िरों से क़रीबी राबता होती है. क़स्बे की मूल आबादी द्वारा लगभग उपेक्षित यह उदास, बेरंग से इलाक़े दरअसल उन्हीं क़स्बों का एक ऐसा हाशिया बन जाते हैं जिनके पास मुख्यधारा में अवस्थित हर शै के लिए विद्रोह और तल्ख़ी भरा रवैया, और हाशिए पर पड़ी हर चीज़ के लिए पूरी तरह खुली बाँहें और उनसे भी ज़्यादा खुला दिल होता है. यहाँ तक कि इन इलाक़ों की अर्थव्यवस्था भी पेट्रोल पंपों, रोडसाइड ढाबों और ट्रकों-बसों की वर्कशॉप्स जैसे पूरी तरह घुमंतू बंजारों पर निर्भर होकर क़स्बे की पारिवारिक सत्ता से बग़ावत कर ख़ुदमुख़्तार, आज़ाद और बेलौस हो जाती है.
हर तरफ़ बेतरतीब छितरे और आड़े-तिरछे खड़े लावारिस जैसे ट्रक इन इलाक़ों की सबसे बुनियादी और साफ़ पहचान होते हैं. उन ट्रकों में से उनके शदीद बेफ़िक्र और लापरवाह ड्राइवर और उनके शागिर्द क्लीनर हर वक़्त बाहर निकल कर जाने कहाँ ग़ायब और गुम रहते हैं.
क़स्बे के सभ्य, शिष्ट दायरे में जिन्हें कोई जगह मयस्सर नहीं होती, वो सब चीज़ें क़स्बे से बाहर की इस बेरोकटोक दुनिया के साए में ख़ुद को महफ़ूज़ महसूस करती हैं, और सूरज के ढलने के साथ-साथ पसरती रात की चादर के नीचे यहाँ इकट्ठे होती चली जाती हैं.
दिन भर क़स्बे के रोडवेज़ या रेलवे स्टेशन पर भीख माँगते लावारिस और बेघर लोग, अपना नाम तक न जानने वाले अर्द्धविक्षिप्त, घर से निकाल दिए गए या ख़ुद वहाँ से निकल चुके नशेड़ी, ट्रक ड्राइवरों के साथ कुछ वक़्त बिता कर दो-एक दिनों की रोटी का इंतज़ाम करती और अमूमन उन्हीं के साथ बैठ कर अगली सुबह किसी दूसरे क़स्बे में उतर जाने वाली सस्ती वेश्याएँ, रोडसाइड ढाबों के चलते पुर्ज़ेनुमा मालिक, उनके बेहद चालाक रसोईए, 24 घंटे में किसी भी वक़्त मिनटों में किसी भी नशे से लेकर वेश्याएँ तक उपलब्ध करवाते शातिर बैरे, सुबह दिन-चढ़े से आधी रात तक बर्तन माँजते और उसके बाद रसोइयों और बैरों की जिस्मानी हवस मिटाने का साधन बनते छोटे-छोटे बच्चे, आवारा कुत्ते, चोरी का माल बाँटने पहुँचे छोटे-मोटे गिरहकट – और इन सब पर पैनी नज़र रख कर अपनी ड्यूटी बजाते, बड़े अफ़सरों की प्रताड़ना की खीझ इन सब पर निकालने और इनकी जेबों से अपनी दिहाड़ी का इंतज़ाम करने की राह देखते, हम सबकी गालियाँ खाने को अभिशप्त गश्ती पुलिस कॉन्स्टेबल – यह सब दरअसल क़स्बों के इन परित्यक्त, उपेक्षित, उनींदे, उदास और मायूस बेरंग-बेनूर इलाक़ों के हमनवा होते हैं, जिन में कोई किसी दूसरे का कुछ नहीं होता, लेकिन इस बेरहम, बेमुरव्वत हाशिए की सोहबत के सिवा जिनके पास अपना कहने भर को भी कुछ और नहीं होता.
किच्छा के रहने वाले अरविन्द अरोरा का सिनेमा जगत से गहरा ताल्लुक है. इनके लेखन में उत्तर भारत के क़स्बाई जीवन की बहुरंगी छवियाँ देखने को मिलती हैं. आमजन के प्रति उनकी निष्ठा और प्रतिबद्धता बेहद स्पष्ट है. अरविन्द काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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बहुत अच्छा और सच। कुछ-कुछ राग दरबारी की झलक है लेखन में । लेकिन पूरी तरह से मूल। प्रभाव पूर्ण और उस मनहूसियत, निराशा का सच्चा बयान जो इन छोटे कस्बों में मौजूद है। लिखते रहें।
बहुत अच्छा और सच। कुछ-कुछ राग दरबारी की झलक है लेखन में । लेकिन पूरी तरह से मूल। प्रभाव पूर्ण और उस मनहूसियत, निराशा का सच्चा बयान जो इन छोटे कस्बों में मौजूद है। लिखते रहें।
मेरा मन भी लम्बे अरसे तक क़स्बों और दरमियानी शहरों की परिधि पर झूलता रहा है। लगता है मेरी चेतना का कोई हिस्सा अब भी वहीं अटका है। अरविन्द के इस संक्षिप्त आलेख से मानवीय आसक्ति, चीज़ों की नापायदारी और बहुत से भूमिगत संवेगों का जहान खुलता मालूम होता है। ज़बान और बयान दोनों ऐतबार से उम्दा तहरीर।
मेरा मन भी लम्बे अरसे तक क़स्बों और दरमियानी शहरों की परिधि पर झूलता रहा है। लगता है मेरी चेतना का कोई हिस्सा अब भी वहीं अटका है। अरविन्द के इस संक्षिप्त आलेख से मानवीय आसक्ति, चीज़ों की नापायदारी और बहुत से भूमिगत संवेगों का जहान खुलता मालूम होता है। ज़बान और बयान दोनों ऐतबार से उम्दा तहरीर।