उत्तराखण्ड में पर्यटकों के आने की संख्या इस साल अच्छी खासी है. इससे पर्यटन कारोबारियों के चेहरों में रौनक आना भी स्वाभाविक है. चारधाम यात्रा में आने वाले यात्रियों का आंकड़ा इस साल 2013 की पर्यटक संख्या को पार कर लेगा ऐसा अनुमान है. मसूरी, नैनीताल जैसे सुगम और लोकप्रिय पर्यटक स्थलों में आने वाले सैलानियों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है. इसके अलावा दुर्गम हिमालयी ट्रैक में आने वालों की तादाद भी पहले के मुकाबले काफी ज्यादा है. बद्रीनाथ-केदारनाथ की ऑफिसियल वेबसाइट के मुताबिक इस साल अब तक 1400991 यात्री इन दोनों धामों में पहुँच चुके हैं.
सैलानियों की संख्या में यह बढ़ोत्तरी पर्वतीय राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है. इससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं और कारोबार भी. लेकिन इन सैलानियों की प्रकृत्ति चिंताजनक है. इस गिनती में शामिल होने वाले सभी लोग धार्मिक प्रवृत्ति के और प्रकृत्ति प्रेमी नहीं हैं. हालांकि इनमें धार्मिक श्रद्धालु व प्रकृति से प्रेम करने वाले लोग भी शामिल हैं.
इनमें खासी संख्या ऐसे लोगों की है जो ठंडे इलाकों में मौज मस्ती की गरज से पहाड़ों का रुख कर रहे हैं. ये यात्राएं इनके लिए स्टेटस सिम्बल हैं. एक तरह के नए पर्यटन का चलन देखने में आ रहा है जिसे सेल्फी पर्यटन भी कह सकते हैं. इस साल आप अपने आसपास ऐसे लोगों की खासी तादाद देख सकते हैं जिन्होंने बद्री-केदार जाकर सेल्फी ली और उसे सोशल मीडिया में पोस्ट कर वाहवाही बटोरी. इन लोगों को न तो धार्मिक, प्राकृतिक जगहों के आचारशास्त्र से कुछ लेना-देना है न पर्यावरण से.
ये लोग यात्रा के दौरान का दारू, चरस, गांजे का कोटा साथ लेकर चलते हैं. यात्रा के दौरान मीट-मच्छी का अभाव इनके लिए सर्वाधिक चिंता का विषय होता है. इनके शस्त्रागार में मोबाइल, कैमरा, ब्लूटूथ स्पीकर जैसे आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों की भरमार हुआ करती है. इस साल केदारनाथ में तो दुस्साहसी पर्यटक बाकायदा भांगड़ा बजाने वाले साजिंदे लेकर पहुंचे, खूब रंग भी जमाया. इनका विडियो वायरल भी हुआ, यही इनका हेतु भी था. ऐसा नहीं है कि इनमें सिर्फ उत्तराखण्ड के बाहर के लोग शामिल हैं बल्कि राज्य के शहरी-कस्बाई भी इस भीड़ का हिस्सा हैं.
पुराने समय में चारधाम यात्रा इतनी सुगम नहीं हुआ करती थी. उन दिनों यात्रियों को अस्थायी धर्मशालाओं, प्लास्टिक की पन्नी से बने अस्थायी टेंटों में रात बितानी होती थी. गिने-चुने ढाबे हुआ करते थे तो बाज मौकों पर अपना भोजन भी खुद बनाना पड़ता था. काली कमली बाबा जैसी धार्मिक संस्थाएँ भोजन बनाने के लिए अनाज और ईधन की निशुल्क व्यवस्था किया करती थी, यात्री स्वयं भी ओढ़ने-बिछाने, भोजन बनाने के साधन साथ लेकर चला करते थे. उन दिनों विकट श्रद्धालु ही इन यात्राओं को करने का साहस किया करते थे. आज भी इस विलुप्तप्रायः प्रजाति के लोगों को यात्रा मार्ग पर देखा जा सकता है.
वक़्त बदला आवागमन के साधन बढ़े. रहने-खाने की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी हुई. संचार साधनों ने इन जगहों के बारे में पल-पल का हाल जानने की सुविधा बढ़ा दी. अब मौज-मजे के लिए भी इन जगहों पर आना आसान है, लिहाजा लोग आ भी रहे हैं. गंगोत्री धाम के परिसर में मल्टी कुजीन रेस्टोरेंट आज की हकीकत है.
इसके नतीजे भी देखने में आ रहे हैं. पहाड़ दारू-बीयर, कोल्डड्रिंक की खाली बोतलों, डिस्पोजेबल गिलासों, पॉलीथीन से अटे पड़े हैं. लोग ब्रह्मकमल कट्टों में भरकर लेते जा रहे हैं.
‘भैया, कैसे भी एक बोतल का जुगाड़ कर दो चाहे जितने रुपए लग जायें’ के निवेदन छोटे कारोबारियों को ठग-लुटेरे बनने की प्रेरणा दे रहे हैं. स्थानीय बच्चे मौका देखकर सैलानियों के आगे हाथ पसार दे रहे हैं.
ऐसे में धार्मिक व प्राकृतिक पर्यटन स्थलों की गरिमा व प्राकृतिक सम्पदा की सुरक्षा की गारंटी जरूरी है. शासन-प्रशासन को इस मामले में सख्त रवैया अपनाने की जरूरत है. इन सभी जगहों के लिए कठोर आचार संहिता बनायी जाए और उसके कड़ाई से पालन सुनिश्चित हो.
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