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संगठित लेखक प्रकाशकों पर भारी पड़ते हैं

हालत पाठकों की भी कुछ कम ख़राब नहीं थी. शर्मा जी के बारे में पता चला कि पुस्तक मेले से लौट कर उन्हें साँस लेने में तकलीफ़ है, तो मैं देखने चला गया. (Satire by Priy Abhishek)

बिस्तर पर लेटे-लेटे शर्मा जी गहरी-गहरी साँसें ले रहे थे. नेबूलाइज़र, ऑक्सीजन सिलेंडर बगल में रखे थे. बात करने में कुछ तकलीफ़ भी मालूम होती थी. मैं उनके बगल में जाकर बैठ गया. धीरे से पूछा ,”आख़िर हुआ क्या? क्या इतना प्रदूषण था दिल्ली में?”

“हाँ भी, नहीं भी.” उन्होंने कुछ हाँफते हुए बताया.

“मतलब?”

“मतलब पुस्तक मेले के समय प्रदूषण कुछ ज़्यादा हो जाता है.”

“कैसे?”

“मैं पुस्तक मेले में पहुँचा तो वहाँ भारी भीड़ थी. मुझे लगा कि हो-न-हो, इस बार भारत विश्वगुरु बन कर रहेगा.  सभी के चेहरे पर एक अलग ही नूर था. पुस्तकों का तो देखा था, पर पुस्तक मेले का नूर पहली बार देख रहा था. धोती-कुर्ता, टू-पीस, थ्री-पीस, शेरवानी, बिना डाई के सफेद बाल वाले लोग. अगर बाल बिखरे भी थे तो यूँ कि बहुत करीने से बिखेरे गए हों. पुस्तक मेलों में जाने वाले अपनी चाल से ही बौद्धिक नज़र आते हैं. सजी-धजी महिलाएं; ऐसी कि बगल से निकलें तो खुशबू से मन महक जाए. और अगर कहीं छू जाएं तो पलट कर ‘हाउ डेयर यू’ बोल दें.”

“इसका आपकी तकलीफ़ से क्या लेना-देना है भाई?”

“बताता हूँ. तो जब मैं अंदर घुसा तो देखा कि एक दुकान के बाहर लोडिंग ऑटो में बहुत सारी पुस्तकें लादी जा रहीं थी. मैंने वहाँ खड़े शख़्स से कहा कि भाई अभी तो मेला शुरू हुआ है और आप दुकान बंद कर के, किताबें लाद कर जाने भी लगे? वो बोला- ‘तमीज़ से बात करो! ये किताबें मैंने पढ़ने के लिए खरीदी हैं, समझे!’ अपने सात जनम तक पढ़ने के लिए काफ़ी किताबों को एक आदमी को खरीदते देख मुझे गश आ गया. मैंने कहा कि भाई इतनी पुस्तकें क्या आप अकेले पढ़ेंगे या आपकी कोई पर्सनल यूनीवस्टी है? तभी अंदर से प्रकाशक निकल आया. धक्का देते हुए बोला-‘ चल, चल, आगे बढ़! बोहनी ख़राब कर रहा है.’ मैं आगे बढ़ा तो महसूस किया कि वहाँ से एक आदमी मेरे पीछे-पीछे चलने लगा.” (Satire by Priy Abhishek)

“आदमी पीछे-पीछे चलने लगा? कौन आदमी?”

बताता हूँ. मैं आगे बढ़ा तो देखा कि दो लोग हाथ में चार-पाँच किताबें पकड़े खड़े थे. मैंने कहा- भाई! लोग-बाग लोडिंग ऑटो भर-भर कर किताबें ले जा रहे हैं, और आप सिर्फ़ इतनी सी किताबें पढ़ेंगे? उनमें से एक दांत पीसते हुए बोला- ‘साले हम किताबें बेच रहे हैं. चल,चल आगे बढ़!’ फिर वो आँखें बंद करके- हरेराम-हरेराम, रामराम -हरेहरे जपने लगा. एक आदमी वहाँ से भी मेरे पीछे हो लिया.”

“फिर एक और आदमी पीछे लग गया?”

“हाँ! अंदर पंडाल में काफी भीड़ थी. पहली बार किताब वालों को मुस्कुरा कर बुलाते देखा. हाथ जोड़ कर वड़क्कम भी कर रहे थे. फिर मैं क्रांतिकारी प्रकाशन के स्टॉल पर पहुँचा. एक किताब की बड़ी धूम थी. प्रकाशक  ने कहा -‘ये वाली किताब पढिये. बहुत शानदार है.’ मैंने किताब खोल कर देखी- अरे ये! इसमें तो अट्ठारह बिसवा वाले कान्यकुब्जों की तुलना, बीस विसवा वालों से की है. और बताया है कि बीस विसवा वालों ने बहुत शोषण किया अट्ठारह वालों का. लेखक कहता है-अट्ठारह वालों को हमला कर बीस वालों की संपत्ति छीन लेनी चाहिये.”

“आपको पहले से ही पता था किताब में क्या लिखा है?”

“यही प्रकाशक ने भी कहा. मैंने बताया-‘भाई इस किताब के पृष्ठ क्रमांक तिहत्तर पर ही तो बाहर भटूरा दिया गया था. और पृष्ठ क्रमांक चौहत्तर पर एक्स्ट्रा भटूरा. ये सुन कर दो-तीन लोग जो वो किताब हाथ में पकड़े थे, उन्होंने किताबें रख दीं. मेरे बगल में खड़ा एक बिखरी हुई खिचड़ी दाढ़ी, और न नहाने से बनी जटाओं वाला युवक, जिसके शरीर से भयानक दुर्गंध आ रही थी अचानक ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ मार कर रोने लगा और वहीं छाती पीटता हुआ पसर गया. मैंने पूछा- आपको क्या हुआ श्रीमान? तभी पीछे से प्रकाशक ने आकर मेरा कॉलर पकड़ा और धक्का देते हुए बोला- साले ये इस किताब के लेखक हैं. मैंने कहा -श्रीमान मुझे आपसे पूरी सिम्पेथी है. फिर मुझे लगा कि मुझे उनकी पीड़ा कुछ कम करनी चाहिये. मैंने कहा- पर आप दुःखी न हों श्रीमान, भटूरा असली घी का था, कोई गंदे तेल का नहीं. ये सुन कर वो और चीख-चीख कर रोने लगा- आमार भटूरा होएछिलो. प्रकाशक ने फिर एक ज़ोर का धक्का देते हए कहा- चल, चल, आगे बढ़!”

“अरे!”

“उसके धक्के से मैं एक, एक क्या, दो स्त्रियों से जा टकराया. वे बोलीं- ‘हाउ डियर यू! दिखता नहीं?’ मैंने उनकी ओर मुड़ कर देखा तो देखता रह गया. एक कलमकारी की साड़ी पहने थी, उसके झुमके कंधे तक आते थे. बड़ी सी बिंदी लगाए वो, जूट का ख़ूबसूरत झोला लिए थी. और दूसरी छोटा सा नेकर और बिना आस्तीन की बनियान पहने थी. उसके सर पर धूप का चश्मा रखा हुआ था. पैरों में टखने तक के जूते थे. सहेलियों का ऐसा अभूतपूर्व कॉम्बिनेशन मैंने पहले कभी नहीं देखा था. मेरे मुँह से निकला- ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है. सखियों मैं कितना डियर हूँ, ये मैं खुद कैसे देख सकता हूँ? आप ने मुझे डियर कहा, मैं अभिभूत हूँ. वे बोलीं- साले डेयर को डियर बोलता है. बत्तमीजी करता है.” (Satire by Priy Abhishek)

“तो वो तो डेयर ही होता है. आपको नहीं मालूम?” मैंने कहा.

“अबे, अब तो मुझे भी पता है. शुरू में बताया था न! तो उन लड़कियों ने मेरा गिरेबान पकड़ लिया. तभी और लोग जो पीछे लगे थे, वो भी आ गए. बोले- ‘तब से देख रहे हैं, ये मेले का माहौल बिगाड़ रहा है. किसी की दुकानदारी ख़राब कर रहा है, तो किसी की पाठकी. मारो साले को!’ मै गिरेबान छुड़ा कर दौड़ा. वे मेरे पीछे-पीछे दौड़े. वहीं मुझसे गलती हो गई.”

“क्या?”

“ये गलती मुझसे हर बार होती है. प्रगति मैदान से बाहर आकर मुझे काले खां की तरफ़ मुड़ना था. परन्तु मैं राजघाट की तरफ़ मुड़ लिया. हर चौराहे पर प्रकाशक मेरे स्वागत के लिए खड़े थे. मुद्रिका पर उन्होंने मेरा तीव्र मुद्रिका बना डाला. जिस रेड लाइट पर मैं रुकता, वहाँ वे मुझे कूटते. ग्रीन होने पर मैं फिर दौड़ने लगता, और वे मेरे पीछे दौड़ने लगते. पूरी दिल्ली का प्रदूषण मेरे फेंफड़ो में जाता रहा.”

“अब कैसा लग रहा है?”

“अरे दिल्ली से लौट कर तीन दिन तो मेरे मुँह से धुआँ निकलता रहा. डॉक्टर कह रहे हैं धुआँ तो निकल गया, अब इंजन ऑइल बचा है. मैं डॉक्टरों से कह रहा हूँ -कुछ भी करो, पर मुझे जल्दी स्टार्ट करो. भगवान की कसम जो अब दुबारा पुस्तक मेला गया.”

“पर आप बचे कैसे?”

“अरे प्रकाशक तो दौड़ा ही रहे थे. कह रहे थे – भाग साले ,देखें कितना भागता है! अरे हमने एक से एक लेखकों को दौड़ाया है, तू क्या चीज़ है. हेबिटेट सेंटर के बाहर मैं हाँफते-हाँफते रुक गया. वहाँ लेमन सोडा वाले ने मुझे सहारा देकर बैठाया. मैंने उसे सारी बात बताई. वो बोला- ‘चिंता मत करो! मैं, ये चनाझोर वाला, वो मोमो वाला, छोले-कुलचे वाला, चूर-चूर नान वाला, हम सब राइटर ही थे. प्रकाशक इधर नहीं आएंगे. संगठित लेखक प्रकाशकों पर भारी पड़ते हैं.’ बात सही थी. प्रकाशक आए, और दूर से देख कर लौट गए.” ये कह कर उन्होंने गहरी साँस ली. उनकी साँस में किसी इंजन की गड़गड़ाहट सी थी. फिर उन्होंने आँखे बंद कर लीं. (Satire by Priy Abhishek)

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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  • रोचक...??? पाठक साहब अब न आएँगे पुस्तक मेले

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