वैसे कविता के नाम पर लोगों की खाल में भूसा भरने की भारत में लंबी परंपरा रही है. अगर याद करें तो आपके हमारे आसपास हमेशा कोई ना कोई भुसकैट कवि विद्यमान रहा है जिसने आपकी सज्जनता भरी सहनशीलता का चीरहरण करते हुए आपकी किसी उम्दा शाम को कबाड़ा किया है. वो आपके बेडरूम में घुसा है उसने आपकी बैठकों को बाज़ दफ़े बेरौनक़ किया है. आपकी ख़ुशामद करते हुए उसने कविता सुनाने के एवज़ में अदरक इलायची मिश्रित चाय भी प्रस्तुत की है और फिर शब के तमाम ढलते प्रहरों में आपने सस्ता ज़हर खाने का विचार कई बार किया है. satire on modern poetry Brajbhushan Pandey
इसलिए काव्यसेवन के घनघोर कुटैव वाले इस देश में हम इन आपदाओं के अभ्यस्त हैं लेकिन बीते दिनों के कवितापुरूषों में और अब के काव्यसाधको में बड़ा अंतर आ गया है. तब कोई एकाध महापुरूष आपके पड़ोस में,कॉलेज मे या कार्यस्थल पर पाये जाते जिनसे एकाध इतवार काला करा कर, एकाध बार कन्नी काट कर या मर्यादा का पल भर त्याग कर की गयी बेलौस प्रतिक्रिया से आप उनके प्रभाव से बच सकते थे. लेकिन अब जबकि आप हर तीसरे क्षण अपने समांतर संसार सोशल मीडिया पर जाने को मजबूर हों आप इनसे छुटकारा नहीं पा सकते. ये हर तीसरी पोस्ट ,हर दूसरे शेयर में विद्यमान हैं और हर पाँच अनरेड नोटिफिकेशन में से तीन में इनकी कविता ठुसी पड़ी है. वीरेन डंगवाल अगर जीवित होते तो देखते कविता केवल दरवाजा भड़भड़ाती नहीं बाकायदा गारी-गुप्ता और जूतमपैजार भी करती है. किसम किसम की कविताएँ हैं और भाँति-भाँति के कवि. पहले कम से कम तुकबंदी की बंदिश कवि होने की आवश्यक शर्त थी किन्तु अब मुक्तछंद की वैदिक परंपरा के अनुगमन ने रही सही दीवार भी गिरा दी. मसलन कविता कुछ ऐसी हो चली है कि
ऐ हवा पैदा कर ऐसा असर
कि उसके छाती में मरोड़ उठे
आजकल पढ़ती नहीं वो नज़्म मेरी
हालाँकि मेरे अल्फ़ाज़ के हैं दीवाने हज़ार
पता नहीं कहाँ रहती है वो
आजकल मसरुफ
फिर आपके उर्दू ज्ञान को संदिग्ध मानकर कवि नीचे जानकारी दे देता है : मसरूफ=व्यस्त. अब अगर आप गौर से पढ़ें तो इन पंक्तियों में आपको चौराहे पर खड़ा एक शोहदा नज़र आएगा जो अपने डबल लुच्चे साथी से किसी गुज़रती लड़की के बारे में गुफ़्तगू कर रहा है “पता नहीं क्यों आजकल भाव नहीं देती साली. नखरे कुछ ज़्यादा ही बढ़ गए है. वैसे साला अपने चाहने वालों की कमी थोड़ी है गुरु.” satire on modern poetry Brajbhushan Pandey
दीगर बात है कि वो शोहदा कायर निकला और आजकल कवि है और समाज की छाती पर मूँग दलने मे जुटा है. इस प्रकार वो कुछ और नहीं कर रहा केवल समाज से अपनी भीरूता का बदला ले रहा है. satire on modern poetry Brajbhushan Pandey
दरअसल इन सब कवियों का कोई ना कोई दर्द, कोई ना कोई अधूरापन है. हर कविकर्म के पीछे एक चपंटुक कथा है जिसे आप बस ज़रा सी होशियारी के इस्तेमाल से पकड़ सकते हैं. जैसे कोई कवि प्रेम को ज्यामितीय सिद्धांतों से व्यक्त कर रहा है. वो व्यास भर की दूरी पर खड़ी नायिका को घसीट कर त्रिज्या भर नज़दीक लाने का प्रयत्न करता है और इस घिसटम से खीझ कर वृत को ही कुचल कर छोटा कर देना चाहता है. आप उस पर तरस खाएँ क्योंकि उसका यौवन ज्यामितीय आकृतियाँ नापते अतृप्त वर्षों का निचोड़ है जिसे वो अपनी उम्र की अधेड़ मंजूषा में लिए लिए फिर रहा है. वैसे ही जो कवि वैज्ञानिकों को आईना दिखा रहा है कि “जा रहे होगे तुम चाँद पर अब हम तो वर्षों पहले साईकिल पर चाँद देखने जाते थे” – उसके पीछे भी एक पीड़ा है. वो सीटियाबाजी की अपनी हरकतों के कारण विज्ञान विषयों में फ़ेल हुआ एक विद्यार्थी मात्र है जिसके चाँद को एक कामयाब इंजीनियर प्रेम विवाह में उड़ा कर ले गया है. कुछ कवि जापान से प्रभावित हैं और हाईकू की शैली में लिख रहे हैं आप समझो ना समझो उनकी बला से.
तुम्हारे साथ हूँ और तुम्हारे बिना भी हूँ
तुम मुझ पर लिख सकते हो.
यह रहस्यवादी पंक्ति चीख़ चीख कर मुनादी कर रही है कि कवि के उदर प्रांगण में पर्याप्त आसव पहुँच चुका है और वह उस परमदशा में है जिसे ज्ञानी जनों ने अमनी दशा कह कर पुकारा है और लोकभाषा जिसे टुन्न होना कहती है. Satire on Modern Poetry Brajbhushan Pandey
तीसरी श्रेणी में गा कर कवितापाठ करती टोली है जो दो दो विधाओं साहित्य और संगीत को एकसाथ स्वर्गवासी बनाना चाहती है. ये पेशे से पत्रकार, अभिनेता, इंजीनियर, वकील, विदूषक सब हैं. ये अपना अपना काम बंद कर कवि हो गए हैं और कविता को पत्रकारिता, अभिनय, इंजीनियरिंग, वकालत और कामेडी इत्यादि से रिप्लेस कर दिया है जिसे वे मंचों से पूरे कांफिडेंस से सुनाते हैं. ये निहायत काईंया क़िस्म के लोग हैं जिन्हें कविता बनाने का फ़ार्मूला पता है. तीर से मीर से जोड़ कर चार सस्ती तुकबंदियां, संता बंता जोक्स से दस लतीफ़े, किसी पुराने कामेडी शो के पिटे हुए चंद पंचलाइन्स और फ़ोन को इनकॉग्निटो मोड में डालकर ‘डबल मीनिंग जोक्स’ का फ़्लेवर. ये ये चीज़ें इस अनुपात में डाल कर आधा घंटा हिलाओ कविता तैयार. लिमिटेड मैटेरियल में सेलेबल आइटम चोखे दामों में. इतना एक घंटा खींचने के लिए काफ़ी है. इसलिए ये ज़बर्दस्त हिट हैं. इनके पास दुबई में बडा सा स्टेज है, गाड़ियाँ हैं, फ़ाइव स्टार होटल हैं, फ़ॉलोवर्स हैं और अनुगामिनी कवयित्रियों की क़तारें हैं.
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लिपे-पुते चेहरे वाली एक कवयित्री प्रेम में प्रेमी की प्रोफ़ाइल पिक को ज़ूम कर रही हैं. पीछे बैठे वरिष्ठ कवि की दृष्टि उनकी ठोढी के तिल से नीचे की ओर फिसल रही है. वो दाद पर दाद दिए जाता है और नीचे बंद-गला सूट और शेरवानी में बैठा एलीट वर्ग वाह-वाह किए जाता है. जोशी जी आए हैं क्योंकि आप्रवासी भारतीय कमेटी के अध्यक्ष मेहरा जी ने उन्हे इनवाइट किया है जिनके साथ वो ज्वाईंट वेंचर प्लान कर रहे हैं. उनने बीबी को जल्दी ही लौटकर बॉलरूम ले जाने का वादा किया है – ‘तुम्हे तो पता है ये सोशल कान्टैक्ट्स मेंटेन करना कितना इंप है बेबी. आई थिंक यू अंडरस्टैंड’ उनने कंधे उचकाए हैं. सबने मान्यवर से ख़ास इसी मौक़े के लिए भारतीय परिधान खरीदा है और वे अब तक के इतिहास में बौद्धिकता के सबसे निचले पायदान पर हैं. उन्हे देखकर शमशेर याद आते हैं-
जो नहीं है
जैसे कि सुरुचि
उसका ग़म क्या?
वह नहीं है
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बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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