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जलते जंगल का वसंत

आज सुबह आँख खुली तो मन कुछ उद्विग्न था. बेसिरपैर का, पता नहीं क्या सपना देखा था रात को, कि पिताजी के स्वास्थ्य की चिंता लग गयी. उम्र के 96 वर्ष देख चुके ‘पप्पा’ के स्वास्थ्य को लेकर, बावजूद उनकी स्ट्रोंग विलपॉवर और जीजिविषा के, चिंता लगना स्वाभाविक ही है. नौ बजे के करीब घर फोन किया तो पता चला कि पप्पा एकदम सामान्य हैं. इस बीच बाहर से मंगवाए हुए कुछ इक्सिया, फ्रीजिया, ग्लोड़ीओलस और डेफोडिल्स के बल्ब्स का पैकेट पिछले तीन चार दिनों से मेरे पास यहाँ नैनीताल में ही पड़ा था. ये सारे फूल पप्पा को बहुत ही प्रिय हैं, सोचा चलो इन्हें चल कर अपने सामने ही प्लांट करवा देता हूँ. इस बहाने थोड़ी देर के लिए ही सही, पप्पा से मुलाकात भी हो जायेगी.

एक-आधे घंटे के बाद में अपनी गाड़ी से भीमताल के लिए निकल गया. तल्लीताल स्टेशन पर पुलिस का भारी जमावड़ा, वो भी सुबह सुबह, कुछ अजीब सा लगा. कुछ आगे बढ़े तो देखा कि गांधीजी की मूर्ति के सामने, तिब्बती समुदाय के कुछ लोग हाथों में पोस्टर पकडे कुछ बुदबुदा रहे थे, संगीतमय अंदाज़ में. तालाब का किनारा, हाथों में गांधीजी की तस्वीर वाले पोस्टर थामे, अनुशासित तरीके से शांति का सन्देश पढ़ते युवा, वृद्ध और बच्चे. दृश्य वाकई मन को छू लेने वाला था. पर पुलिस क्यों? इस तरह के शांत, अनुशासित आयोजन में पुलिस की उपस्थिति कुछ अजीब सी लगी. खैर.  थोड़ी देर रुकने के बाद मैंने ड्राईवर से आगे बढ़ने के लिए कहा.

मेरा घर भीमताल बस स्टेशन से नौकुचियाताल की ओर जाने वाली सड़क पर है. पूरे रास्ते पर मित्र पुलिस के दसियों जवान तैनात थे, ‘मुस्तैदी’ से – हाथों में एक अदद बांस का डंडा, या फिर अपने पद के अनुरूप बगल में पिस्तौल लटकाए. उत्तराखंड की कथित मित्र पुलिस के हर नुमाइंदे के चेहरे पर एक तनाव था. हम खुटानी पार कर मल्लीताल से पहले आने वाले उस तिराहे पर पहुंचे जहाँ से भीमताल बाईपास रोड निकलती है. यह सड़क आणूं का मैदान कही जाने वाली बसासत का चक्कर काटते हुए हल्द्वानी रोड से जुडती है. यूं तो सीधे भीमताल जाने के लिए इस बाईपास को इस्तेमाल करने की कोई कानूनी या पुलिसिया बाध्यता नहीं है पर हल्द्वानी जाने वाले भारी वाहन प्रायः इसका इस्तेमाल करते हैं. इस बाईपास के मुहाने पर एक परेशान से दीखने वाले होमगार्ड ने, सुरती मलते हुआ मुझे रुकने का इशारा किया और गाड़ी बाईपास पर डालने के लिए कहा. मैंने उने बताया कि मुझे नौकुचिया रोड पर जाना है और बाईपास तो हल्द्वानी के लिए है. सुरती मलने वाले, बेचारगी से सराबोर होमगार्ड के साथ सफ़ेद कपड़ों में एक ट्रैफिक कांस्टेबल भी था. उसने मुझे समझाने वाले अंदाज़ में खुलासा करते हुए कहा, “सर गवर्नर साहब का दौरा है, आपको यहीं से जाना होगा, सीधी सड़क से गवर्नर साहब नौकुचिया जायेंगे.” मुझे कुढ़न सी हुई, पर पुलिस वाले की शक्ल में व्याप्त  बेचारगी का एहसास इतना मुखर था कि मैं चाहते हुए भी कुछ न कह सका. मैंने यह कह कर हँसते हुए उससे विदा ली, “ठीक है भाई, आप भी क्या कर सकते हो, ड्यूटी है आपकी.” बाईपास से होते हुए मैं थोड़ी देर में घर पहुँच गया.

फूलों के बल्ब्स को प्लांट करते हुए में सोच रहा था – एक अदद गवर्नर. किसी भी राज्य में सजावट के सामान के अलावा शायद कुछ भी नहीं. उपनिवेशक काल की एक सड़ी-गली, अनुपयोगी विरासत है ये शायद जिसे हम आज भी वेताल की तरह अपने कन्धों पर लादे हुए हैं. कथित रूप से राज्य के पहले नागरिक के नाम से बना एक खांचा भर ही तो है ये, जिसमे अक्सर जिन्दगी भर वफादार रहे, चाटुकार किस्म के लोगों को, जिनमें अपनी कान्शेंस (यदि इतने सालों के राजनैतिक जीवन के बाद कुछ बची हो तो) को दरकिनार कर केंद्रीय सत्ता के हुक्मबरदार बने रहने की काबिलियत हो – को फिट कर दिया जाता है. अब इस बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के युग में राज्यपाल का अलंकृत, सुविधाभोगी पद ऐसे ही व्यक्तिओं को बतौर इनाम बख्शा जाता है, उनकी वफादारी की एवज में. पहाड़ी राज्य से लेकर आँध्र प्रदेश तक कुछ नामी गिरामी राज्यपालों द्वारा मुगलिया सल्तनत के लाज़बाब दौर को ज़िंदा रखने की पुरजोर कोशिशों को सरकारी-दरबारी  इतिहास भले ही भुला दे पर जनमानस में ये आज भी दर्ज हैं.

एक दो घंटा घर पर रुकने के बाद में शाम तीन-साढ़े तीन के आसपास नैनीताल के लिए वापस निकल गया. कुछ पैसे विड्रा करने कि लिए गाडी ऐटीएम पर रोकी. क्यू में खड़े कुछ लोग आपस में बतिया रहे थे, “यार ये राज्यपाल के चक्कर में पूरा घंटा भर खड़ा करा दिया पुलिस वालों ने खुटानी पर. अभी जब उनकी गाड़ियाँ निकलीं तब जा के खुला ट्रैफिक.” में कुछ चौंका, इसका मतलब ये हुआ कि राज्यपाल के आने से दो तीन घंटे पहले ही सड़क साफ़ रखने की पुलिसिया क़वायद शुरू हो चुकी थी.

गज़ब का लोकतंत्र है हमारा. मध्ययुगीन सामंती संस्कृति को ढोना, और अपने पैसे से इसे पालना-पोसना नियति बन गयी है हमारी. शायद इसलिए क्योंकि हम एक मूल्यविहीन, स्वाभिमान से विरत समाज हैं. अपमान और साहिबी रुतबे को बगैर किसी प्रतिक्रया के बर्दाश्त करते चले जाना हमारे डीएनए का हिस्सा बन चुका है. एक ऐसी सड़ी-गली सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के अलमबरदार हैं हम जो गुंडे मवालियों को ‘माननीय’ का दर्ज़ा देती है. गलत-सही तरीके से कमाए गए पैसों और संपत्ति को सफलता और बड़प्पन का पैमाना  ठहराती है. जो स्याह-सफ़ेद कर अपनी सात पुश्तों के लिए पैसा कमाने वालों, जुगाड़ से पुरस्कार हथियाने वालों और सारे नियम कानूनों से खुद को ऊपर समझने वाले स्वयम्भूओ को वीऑयपी का दर्जा देती है; और जो प्रेक्टिकेलीटी की संज्ञा देती है किसी लिजलिजे, संवेदनहीन, धूर्त, भ्रष्ट और उदंड ‘माननीय’ या ‘साहब’ की चाटुकारिता कर सप्लाई, ठेके हासिल करने या फिर नियमों को धता बता कर अपना काम निकलवाने की मानसिकता को.

अरे ये क्या बकवास किये जा रहा हूँ मैं! ये भी भला कोई मुद्दा है लिखने और बात करने का. इतना कुछ इम्पोर्टेन्ट – राष्ट्रीय, संस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व के प्रश्नचिह्न बिखरे हैं चारों ओर. राफ़ेल, हिन्दू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, अकबर, राणाप्रताप, संस्कृतिक अस्मिता, आरक्षण, वोट, रमजान, गठबंधन, चोरी-चौकीदारी. मुद्दों का बसंत बिखरा पड़ा है चारों ओर – सोशल मीडिया में, टेलीविजन में, पत्र पत्रिकाओं में, घर की डाइनिंग टेबल से लेकर पप्पू की चाय की दूकान तक. और जलते जंगल के इस वसंत की अनदेखी कर रहा हूँ मैं .

गलती हो गयी भाई!

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कला-फिल्म-यात्रा-भोजन-बागवानी-साहित्य जैसे विविध विषयों पर विविध माध्यमों में काम करने वाले राजशेखर पन्त नैनीताल के बिड़ला विद्यामंदिर में अंग्रेजी पढ़ाते रहे. फिलहाल रिटायरमेंट के बाद भीमताल स्थित अपने पैतृक आवास में रह रहे हैं. पछले करीब चार दशकों में उनका काम देश-विदेश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं-अखबारों में छपता रहा है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

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