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चप्पलों के अच्छे दिन

लंबे अरसे से वह बेरोज़गारों के पाँव तले घिसती हुई जिन्स की इमेज ढोती रही. उसका हमवार जूता, हर राह, हर मंज़िल पर अपनी चमक-धमक के लिए नामवर हुआ. मगर अब लगता है चप्पल के दिन फिर गए हैं. जूते के मुक़ाबिल, आज वह ज़्यादा लाइम-लाइट में है. ना जी ना, वह कैमरे और जूते के बीच भी न आई, ना जूते की शान में कोई गुस्ताख़ी हुई… वह तो कुछ ग़ैर मामूली लोगों की हरकतों के बाइस मशहूर हो गई.

एक वह जो ताक कर फेंकी गई और दूसरी यह, जो छांट कर गांठी गई… इन्हीं दो मासूम चप्पलों ने, आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास में साढ़े तीन हरफ़ भर जगह अपने नाम कर ली है.

इसी दौरान बड़ी पंचायत में ‘जूते पड़ने’ से लेकर ‘जूतम-पैजार’ के एपिसोड देखे गये. अगरचे मुहावरे तो मुहावरे हैं, जंग ज़ुबानी ही रही.  ख़ून में उबाल बहुतों के आया पर हाथ तश्मों तक किसीके न पहुंच सके. वर्ना तस्वीरें जूते की वायरल होतीं और मलाल चप्पलों के हिस्से आता. …तक़दीर का खेल देखिए कि चप्पल ही आख़िरकार, मुल्क की दोनों बड़ी सियासी पार्टियों के आकाओं के नाम से बाबस्ता हुई.

इसे जूते की बदक़िस्मती ही कहा जायेगा कि दोनों मौक़ों पर वह चप्पल की जगह हो सकता था, पर न हुआ. कोई कमी नहीं थी जूते के किरदार में, सिवाय जेंडर के. वह फेंकी गई वह फेंका जाता, चप्पल गांठी गई वह गांठा जाता, बस. बनारस में जूता भी, चप्पल जितना ही तबाह-कुन और सुल्तानपुर में उस जैसा ही ख़ुशनसीब साबित होता, अगर दिन पहले से होते.

जूते का भी ज़माना रहा. उस पर भी  मुहावरे गढ़े गए; दुनिया उसकी नोक पर होती, उसमें दाल बंटती या मारे सात जाते, गिना एक जाता. वह जापानी-चीनी, बूट-गमबूट, क्रेप सोल-लैदर सोल की वैरायटी में इतराता. तब चप्पल; सैंडल, हवाई, कोल्हापुरी, रबर और टायर सोल की शक्ल में सकुचाई सी पीछे-पीछे चलती … वक़्त-वक़्त की बात है.

एक चतुर टी वी एंकर चप्पल हाथ में लेकर मोची रामचैत का इंटरव्यू कर रहा है:

‘चाचा तुम नेताजी को कबसे जानते हो ?’

‘कौन नेताजी भैया ?’

‘वही जो तुम्हारी दुकान पर आये रहे..’

‘दुकान कहाँ, हमारा तो खोमचा है भैया’

‘अच्छा ये बताओ वोट किसको दोगे?’

‘ जिसको कहोगे भैया दै देंगे ! .. पानी पियोगे ?’

‘पानी छोड़ो, बताओ तुम्हारा इत्ता बढ़िया नाम किसने धरा ?’

‘जो आपको अच्छा लगा तो आप ही धर लो…’

जाने क्यों एंकर अचानक उदास हो गया है, एकालाप पर उतर आया है:

‘ये चप्पल जो आप देख रहे हैं, प्रतीक है भगवान राम की चरण पादुका का जिसको गद्दी पर धर कर भरत ने अजोध्या पर राज किया. आज अजोध्या में भब्य राम मंदिर बन चुका है, देश की एक सौ चवालीस करोड़ जनता गौरबान्वित है कि चप्पल की बजै से मो…’

उसका चैनल, विज्ञापन न लगा हो तो  एडिडास-रीबॉक के लोगो मास्क कर देता है, रामचैत की चप्पल पर लगे टांके ज़ूम इन करके दिखा रहा है.

सुल्तानपुर की चप्पल वायरल है, उसे ख़रीदने को बोली लग रही हैं. मंहगे जूते पहने  लोग, मुंह मांगी क़ीमत पर इसे हासिल कर लेना चाहते हैं. अब चप्पल का नंबर, रंग, सोल वग़ैरा माने नहीं रखते. वह पत्नी का फ़रमाइशी फ़ालूदा हो चुकी है, ‘कौन आपसे महात्मा गांधी की खड़ाऊं मांग ली हमने..!’ टशन की बात है. कोई उसे छू कर निहाल है तो कोई उसके साथ एक सेल्फ़ी चाहता है.

रामचैत इस आइटम के बिकाऊ न होने का ‘हाई मॉरल ग्राउंड’ ले चुका है, सो सियासी शख़्सियतें उसे एडमायर करने को मजबूर हैं. मसले पर पार्टी की सोच के नुक़्ता-ए-नज़र मीडिया उनकी बाइटें ले रहा है. कुछ लीडरान चप्पल के टांकाकार को अहमियत दे रहे हैं तो कुछ उसपर रामचैत के स्टैंड को. अच्छी बिक्री के बावजूद पड़ौस के हलवाई को अपना गुलाब जामुन हामिद के चिमटे से पिटा महसूस हो रहा है. अब तक रामचैत भी जान चुका है कि दरअस्ल चप्पल ही अव्वल है, बाक़ी सब धुप्पल  है.

गोया आप सोच रहे होंगे… बनारस वाली कहाँ गई? क्या हुआ उसका? …जनाब आपके इरादे तो नेक हैं? उसके साथ रील बनाएंगे का? ख़ैर, मुझे नहीं मालूम, वो कहाँ और किस हाल में है …मुझे पता है तो सिर्फ़ इतना कि ग़ायब होकर भी वह, है.

उमेश तिवारी ‘विश्वास

लेखक की यह कहानी भी पढ़ें: टीवी है ज़रूरी: उमेश तिवारी ‘विश्वास’ का व्यंग्य

हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.

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