ग्वालियर शहर की एक पुरानी सड़क, जिसका नाम नई सड़क था, के एक प्रसिद्ध चौराहे पर वो उसका इंतज़ार कर रहा था. इसे संयोग कहें या विडम्बना; उस चौराहे का नाम हनुमान चौराहा था. शायद ये कलयुग के घोर से घोरतम होने का ही संकेत होगा कि वेलेंटाइन डे पर एक आशिक़ को उसकी महबूबा ने मिलने के लिये हनुमान चौराहे पर बुलाया था.
वह अपनी मोटसाइकिल पर बैठा हुआ था, और वे समस्त कार्य कर रहा था जो भारत में मोटरसाइकिल पर बैठ किये जाते हैं. जिनमें प्रथम है अपनी फटफटी को ज़ोर-ज़ोर से दाएँ-बाएँ हिला कर उसमें ईंधन की मात्रा मापना. उपलब्ध ईंधन से तय की जा सकने वाली दूरी का अनुमान करना. हैंडिल से पहियों को ऊपर-नीचे दबा-दबा कर उनमें हवा की जाँच करना. हथेली से काँच साफ़ करना और जीन्स से हथेली साफ़ करना, फिर चाभी से कान साफ करना और कान से निकले अपशिष्ट को सफलतापूर्वक ठिकाने लगाना.
इस कहानी का हमारा नायक, वो आशिक़, इस देश के सभी बेरोज़गारों की तरह, हनुमान जी का पक्का भक्त था. जिस पुरुष की जेब में अठन्नी न हो, तन पर केवल लँगोट बचने की नौबत हो, सुख-दुख बाँटने को कोई सहेली न मिले, जिसकी सामाजिक उपादेयता केवल लोगों के काम आना हो – ऐसा पुरुष हनुमान जी की भक्ति में शांति प्राप्त करता है. यद्यपि भक्त वो हनुमान जी का था, पर कृपा उस पर कृष्ण जी की हुई.
उसे अपने सुख-दुःख का साथी मिल गया. जो इस कहानी की हमारी नायिका थी.
नायिका ने उसे हनुमान चौराहे से बाड़े जाने वाली सड़क पर मिलने को कहा था, परन्तु नायक ने हनुमान चौराहे से जिवाजीगंज जाने वाली सड़क पर खड़ा होना मुनासिब समझा, क्योंकि उधर हनुमान जी की पीठ थी. उस भक्त में ‘बाबा’ से नज़रें मिलाने का साहस नहीं था.
ये मंगलवार-शनिवार का संयम करने वाले लोग वही होते हैं जो एक समय में हनुमानजी के तगड़े भक्त रहे होते हैं.
समय बीत रहा था. उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. आज के दिन के लिये उसका समर्पण किसी निर्जला एकादशी करने वाले भक्त से कम नहीं था. फिर वह बाइक पर बैठे-बैठे ज़ोर-ज़ोर से पैर हिलाने लगा. उसके मन में तरह-तरह के ख़्याल आ रहे थे.
‘क्या आज का यह पवित्र दिन यूँ ही ज़ाया हो जायेगा? क्या सारे प्रयास व्यर्थ चले जायेंगे? क्या पूरी योजना पर पानी फिर जायेगा? किसी ने देख लिया तो? मुम्बई,दिल्ली इस मामले में ठीक हैं. वहाँ कोई किसी को नहीं जानता. साला ये शहर ही बेकार है!’
बुरे ख़्याल उसे घेरने लगे. इसी बीच किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा. उसने मुड़ कर देखा तो बुरी तरह घबरा गया.
फिर हाथ रखने वाले ने अपने चेहरे पर से, प्याज के छिलकों की तरह लिपटी, तीन-चार चुन्नियाँ उतारीं. जो चेहरा निकला,उसे देख कर वह फिर घबरा गया. पर ये घबराना पहले वाले घबराने जैसा नहीं था.
इस तरह की घबराहट उसे हर बार यह चेहरा देख कर होती थी. उसने राहत की साँस ली. नायिका आ गई थी.
‘माँ क्यों नई खड़ा हुआ तू? मन्दिर के सामने की बोली थी न? याँ खड़ा है पीछे!’ नायिका क्रोधित हुई.
नायक ने नायिका को देखा और विचार करने लगा,’मोटी नाक सुंदर क्यों नहीं हो सकती? बहुत से कबीलों में तो मोटी नाक ही सुंदर मानी जाती है. मैं तो मोटी नाक ही सुंदर मानूँगा. गोरा रंग क्यों? काला भी तो सुंदर है. कंटीली झाड़ियों जैसे बालों में क्या बुराई है? थुलथुलेपन में गुदगुदापन भी तो देखा जा सकता है.’
अनजाने में ही सही, नायक सौंदर्यशास्त्र के महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठा रहा था.
‘जो कवि-शायर लिख दे वही सही क्यों मानें हम? मेरी सुंदरता की परिभाषा मैं स्वयं तय करूँगा.’ फिर उसने धारा के प्रतिकूल चलने का निश्चय करते हुए मन ही मन संकल्प लिया ,’यही मेरी ‘गर्लफ़्रेंड’ है, यही!’
‘अब चलौगे नई क्या?’ नायिका फिर चीखी और अपना दायाँ पैर ‘फुटरेस्ट’ पर रख कर धम्म से पिछली सीट पर बैठ गई. मोटरसाइकिल उलार हो गई. पर नायक ने उसे सम्भाल लिया. दोनों ग्वालियर की सड़कों पर घूमने लगे.
नायक वाहन चलाते हुए चौकन्ना होकर चारों ओर देख रहा था और उपलब्ध सुरक्षित स्थानों के ‘परम्यूटेशन-कॉम्बिनेशन’ पर विचार करता जा रहा था.
‘सराफे में चलूँ क्या? पर वहाँ रतन की दुकान है. पूरे दिन वहीं बैठा रहता है साला. नम्बर एक का बीबीसी लंदन है. ऊँट पुल पर जाता हूँ! वहाँ एक-दो ठीक रेस्टॉरेन्ट हैं. पर किशन चाचा टैम्पो से वहीं उतरते हैं. देख लिया तो? ये ऊपर रीना चाची लटकी हैं, बालकनी से. कैलाश टाकीज वाली गली से आना ही नहीं चाहिये था. पूरे दिन छज्जे पर लटकी सबको घूरती रहती हैं. घूरने दो! सिटी सेंटर ही सही है. ‘देसी धमाका’ नया खुला है, वहीं ठीक है. केबिन भी बने हैं वहाँ.’
‘काँ चल्लये ओ?’ नायिका ने पूछा.
‘सिटी सेंटर.’
‘माँ काँ?’
‘देसी धमाका.’
‘आँ !…तुमाई बुद्दि खराबै? लक्कड़खाने वाले पप्पू बैया मइँ मनेजर ऐं.’
नायक ने फिर बाइक घुमा दी, शिवपुरी रोड की तरफ. नायक अब बेचैन होने लगा. एक बजे से अभिजित महूर्त था. पंडित जी ने कहा था कि जो करना है, एक से डेढ़ बजे के बीच कर लेना. नायक डोडा बर्फी भी साथ लाया था, जिसमें बंगाली बाबा कमाल पाशा की दी हुई कोई चीज़ मिली थी. नायक ये भी जानता था कि नायिका केवल भगत जी की भभूत के वशीभूत होकर आई है, जो उसने नायिका के घर की दिशा में फूँक मार कर उड़ाई थी.
‘लगता है सब बेकार चला जायेगा’, नायक का चिंतन जारी था, ‘ तो तुम भी तो पागल हुए जा रहे हो , चलो चेहरा तो ठीक है कि महत्वपूर्ण नहीं है ,पर उच्चारण? तो तुमको क्या विविध भारती करवानी है इस लड़की से? बड़े आये उच्चारण! अरे ‘श’ को ‘श’ बोलती है , और क्या चाहिये? इस ‘श’ पर ही तो फिदा हुए थे तुम. . ..भूल गये कितने प्यार से उसने कहा था ‘शुनिये’. और तुम उसके ‘शुनिये’ में खो गए थे. अरे उच्चारण छोड़ो, ज्ञान का क्या? ज्ञान? तो तुम्हें क्या प्रश्नोत्तर खेलना है उसके साथ? और कोई विकल्प भी तो नहीं है. विकल्प? तू स्त्री को ‘विकल्प’ बोल रहा है? और कितना स्त्रीविरोधी बनेगा तू? तू मिसॉजेनिस्ट होता जा रहा है. तुझे स्त्री की भावनाओं से कोई मतलब नहीं है रे इन्द्रीयलोलुप! बस माधुरी दीक्षित खोज रहा है तू!’ नायक ये सब सोच ही रहा था कि अचानक नायिका बोली-
‘मादूरी दीशित.’
‘क्या ये मेरे मन की बात सुन रही है?’ नायक बुरी तरह घबरा गया. मोटर साइकिल का हैंडल कांप गया. वहीं साइंस कॉलेज पर चार पुलिस वाले खड़े थे. उन्हें देख कर हैंडल के साथ नायक का दिल भी कांप गया. पुलिस सामने थी. अब दर्शन नहीं, बहाने सोचने का वक़्त था.
‘म..म… मैं कोई बच्चा हूँ क्या! ब..ब.. बालिग़ हैं हम!’
पुलिस को देख कर आदमी मन में भी हकलाने लगता है.
‘बोल दूँगा ब ..ब..बहन है मेरी. ट्यूशन पढ़ने जा रहे हैं. रवि बता रहा था गोआ में कुछ भी करो ,कोई कुछ नहीं पूछता. साला ये प्रदेश ही बेकार है.’
पुलिस के चक्रव्यूह से निकल कर वे शिवपुरी रोड पर आ गये. रोड पर एक जगह बोर्ड लगा था ‘खाओ तो माने रेस्टोरेंट’. नायक ने वहीं मोटरसाइकिल खड़ी कर दी.
‘झाँ ?’ नायिका बोली.
‘यहीं!’ नायक बोला.
अंदर पूरा रेस्टोरेंट खचाखच भरा था. बाहर, पीछे की तरफ भी लोग बैठे थे. एक गायक गिटार पर कुछ गा रहा था, जो सभी की समझ से बाहर था. पर गायक स्वयं अपने गायन से अभिभूत था. पाश्चात्य मदनोत्सव अपने पूर्ण शबाब पर था. टैडी बीयर, पुष्प, ग्रीटिंग कार्ड, इत्र, गाउन, जीन्स, स्कर्ट, फ्लोर लैंथ, नी लैंथ ,स्लीवलैस और प्रेम में रूठते, मनाते, तुतलाते लोग.
‘साले सभी महूर्त निकलवा कर आये हैं क्या?’ नायक ने भीड़ देख कर कहा.
रेस्टॉरेंट हूबहू रेलवे तृतीय श्रेणी प्रतीक्षालय जैसा लग रहा था. तभी एक टेबल खाली हुई. एक और युगल उसकी ओर लपकता उससे पहले ही नायिका वहाँ जाकर बैठ गई.
‘झाँ!’ नायिका ने इशारे से नायक को अपनी सीट पर बुला लिया. दोनों बैठ गए. वेटर ने लाकर मैन्यू कार्ड टेबल पर रख दिया. नायक ने चुपके से अपना पर्स निकाला और उसमें झाँका – सौ के तीन नोट और एक नोट पांच सौ का.
मेन्यू को देख कर नायक ने नायिका से पूछा ,’बियर पियोगी?’
कोई भी भारतीय मद्यप साथ बैठे व्यक्ति को मदिरा इसलिये नहीं पिलाना चाहता कि उसे भी शराबी बनाना है. वह केवल इसलिये पिलाना चाहता है कि स्वयं मदिरा पीने के अपराध बोध से मुक्त हो सके. एक घूँट, ज़रा सी, थोड़ी सी का मनुहार इसीलिये होता है. यह अपने अपराध में सहअभियुक्त बनाने का मामला है, जिससे कोई किसी के राज़ नहीं खोले.
‘सिंर्री औ? अम तौ नई पियेंगे. तुम पियौगे?’ नायिका ने कुछ क्रोधित होकर पूछा.
‘हाँ! क्यों नहीं!’ नायक ने आत्मविश्वास से कहा.
‘आज मंगलै !’
‘हुँ! ये सब मंगल-वंगल ज़्यादा नहीं मानता मैं. दुनिया चांद पर पहुँच रही है और हम इस दकियानूसी में पड़े रहें. वेटर!’ नायक ने बैरे को आवाज़ दी ,’एक बियर और… तुम क्या लोगी?’ उसने नायिका से पूछा.
‘मँचूरियन!’ नायिका ने कहा.
नायक ने घड़ी देखी. वह फिर बेचैन होकर पैर ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा. पण्डित जी के बताए अनुसार अभिजीत महूर्त में कुछ समय था. अभी राहू काल चालू था.
‘बीयर भी तो राहू ही है. राहू काल में पी सकते हैं.’ नायक ने स्वयं को आश्वस्त किया.
अभी नायक बीयर की बोतल को मुँह से लगाने ही वाला था कि उसकी आँखों के सामने वो दृश्य आ गया जिसकी उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी.
उसके सामने, कुछ दूरी पर, साक्षात राहुस्वरूप उसके पूज्य विधुर पिताजी खड़े थे. नायक की जान, उसकी हलक में अटकी बीयर में तैरने लगी.
पिताजी कुछ दूर एक सीट पर बैठ गए. नायक उनको अच्छे से देख पा रहा था. पर पिताजी ने उसे नहीं देख पाया. नायक अब बियर से भी अधिक ‘चिल्ड’ और मसाला पापड़ से भी अधिक लिजलिजा हो गया था. पिताजी ने भी एक बीयर मँगा ली, जो नायक के लिये बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन था.
‘काँ खो गए?’ नायिका ने पूछा.
‘कँई नई!’ नायक ने कहा. उसे अपने उच्चारण पर आश्चर्य हुआ.
बात चल ही रही थी कि फिर एक अजूबा हुआ. शायद आज का दिन ही नायक के लिये चमत्कारों भरा था. उसी रेस्टॉरेंट में अचानक नायिका की विधवा माँ प्रगट हो गईं.
‘ये हो क्या रहा है आज?’ नायक ने स्वयं से कहा.
नायिका की माँ ,उसी टेबल पर बैठ गईं जहाँ नायक के पिताजी बैठे थे. नायक बहुत देर तक अपने पिता और नायिका की माता के बीच के क्रियाकलाप देखता रहा. फिर धीरे से नायिका से बोला-
‘शन्नो ! मुझे लगता है हम दोनों भाई-बहन बनने वाले हैं.’
‘आँ? क्या कै रए?’
नम आँखों से नायक ने कहा,’कछु नई!’
कुछ देर बैठ कर वे अभिवावक वहाँ से चले गए. नायक ने घड़ी देखी. अभिजीत महूर्त आधा निकल चुका था.
‘पापा आधा महूर्त खा गए,’ नायक ने कहा. उसने फ़टाफ़ट अपने बैग में से छोटा सा टैडी बियर, एक ग्रीटिंग, लाल गुलाब और इत्र की शीशी निकाल कर नायिका को दी. फिर एक गहरी साँस ली और अपने चारों ओर देखा. सब प्रेमालाप में व्यस्त थे. गायक अभी भी अपने गायन पर मुग्ध था. उन्हें कोई नहीं देख रहा था.
मुख्य अनुष्ठान का समय आ गया था.
उसने अपनी कुर्सी,नायिका की कुर्सी के पास खिसका ली और अपना हाथ नायिका के हाथ के ऊपर रख दिया. नायिका ने नज़रे झुका लीं और अपने होंठ मिला लिये. नायक कोई शाबर मंत्र बुदबुदाता जा रहा था.
फिर वह अपना चेहरा नायिका के चेहरे के पास ले गया. पास. और पास. बहुत पास. अनुष्ठान पूर्ण होने वाला था. तभी उसके अंदर नायिका के कहे शब्द गूँजने लगे-
‘आज मंगलै! आज मंगलै! आज मंगलै!’
नायक के होंठ थरथराने लगे. गला सूखने लगा. हाथ की पकड़ ढीली पड़ने लगी. उसे नायिका के चेहरे पर, ठीक नाक के ऊपर, हनुमान जी दिखने लगे. वह भी हनुमान चौराहे वाले. वह घबरा कर पीछे हट गया.
‘चूँमौगे नई?’ नायिका सशंकित हो उठी. यही वह क्षण होता है जब स्त्री तत्काल सौतन की कल्पना कर लेती है.
नायक ने नायिका की आँखों मे देखा और बोला ,’आज मंगलै!’
दोनों वापस लौटने लगे. नायक बहुत खिन्न था-
‘ये अंग्रेज़ वैसे तो त्यौहार फ्राईडे-संडे के हिसाब से रखते हैं पर वेलेंटाइन डे तारीख़ के हिसाब से रख लिया,’नायक का चिंतन जारी था,’ अब, तब उन्हें क्या पता होगा कि इस दुनिया में भारत नामक देश भी है जहाँ सभी काम राहू काल, दिशा शूल, नक्षत्र, होरा, चौघड़िया से ही होते हैं. व्यक्ति की आधी ज़िंदगी इसी में निकल जाती है. साला ये देश ही बेकार है. मैं ये देश छोड़ दूँगा, नहीं तो इस देश को बदल कर रहूँगा… हाँ !हाँ! तुम तो बहुत बड़े नेताजी हो जो बदल दोगे! पच्चीस रुपये का पैट्रोल डलाने वाले शख़्स तू नेतागिरी करेगा?’
‘नेताजी की जय हो,’ नायिका बोली.
नायक फिर घबरा गया कि नायिका उसके मन की बात पक्का सुन रही है.
‘क… क… क्या बोला तुमने?’ नायक ने पूछा.
‘पोट्टर लगें है नेताजी के, पोट्टर! पूरा घोड़ा चौराआ पाट दिया,’ नायिका ने कहा.
नायक ने मोटर साइकिल बाड़े की ओर बढ़ा दी.
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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वाह. मजा आ गया. गजब का शाब्दिक जीवन प्रतिबिम्ब. खूब रचो प्यारे.