होशियारी की मिसाल होते हैं. इंग्लैण्ड-अमेरिका में. विश्वास न हो तो उनके साहित्यकोश की तलाशी ले लो. एज़ वाइज़ एज़ एन आउल, आपको जरूर मिल जाएगा. गांधीनुमा गोल चश्मे पहना शख़्स इन अंग्रेजों को आउलिश लगता है. बेवकूफ नहीं, पढ़ाकू और बुद्धिमान दिखने के कारण. (Satire by Devesh Joshi)
उल्लू के पट्ठे धनवान भी होते हैं तभी तो हमारी लक्ष्मीजी ने अपनी राइडिंग के लिए उन्हें चुना है. जिधर भी ले जाएंगे बस दिशा, धन की ही होगी. लक्ष्मीजी के वाहन नाइट-विज़न सिस्टम से लैश हैं. डे-ड्यूटी ऑफ़ होती है इनकी, क्योंकि कारोबार ही कुछ ऐसा कि नाइट में ही कम्फर्टेबल फील होता है. (Satire by Devesh Joshi)
फिर भी दुनिया के बड़े हिस्से में उन्हें दुर्भाग्य का प्रतीक भी माना जाता है और उनके बोलने को मृत्यु का सूचक भी. कहानी कुछ उलझी हुई सी लगती है कि अपने मुल्क में धन की देवी का वाहन और मृत्यु का सूचक एक ही जीव कैसे हो सकता है.
अब गहन व्याख्या तो पुराण-शास्त्रों के ज्ञाता ही कर पाएंगे पर जो मैं समझ पाया हूँ वो यह कि धनोपार्जन के लिए कुछ न कुछ मारना ही पड़ता है. ये अपना सुख-चैन भी हो सकता है, किसी का हक़ भी या फिर बचा-खुचा जमीर ही क्यों न हो.
पशु ही नहीं पक्षियों पर भी राजनीति होती है. उल्लू जैसा रात्रिदृष्टि संपन्न जीव भी संस्कृतियों की लड़ाई में किस तरह पिसता है, जरा देखिए. एक अफ्रीकन रेस्ट्रां में एक अमेरिकन और एक इंडियन खाना खा रहे थे. खाना सर्व करता हुआ वेटर लॉन में एक उल्लू को देखकर बोला ओ! व्हट एन आउल. अमेरिकन ने टिप में दो डालर दे दिए और इंडियन ने दो तमाचे.
उल्लुओं की श्रवण-शक्ति भी बड़ी तेज होती है पर ये चमगादड़ों की तरह तरंगों के परावर्तन पर निर्भर नहीं होती है. कह सकते हैं कि लक्ष्मीजी ने फूलप्रूफ सिस्टम से लैश वाहन चुना है अपने लिए. अब इससे बड़ा उल्लूपन और क्या होगा कि साल भर उल्लू के दर्शन को अशुभ मानने वाले भी दीपावली के दिन इनकी एक झलक के लिए हजारों खुशी-खुशी खर्च कर देते हैं.
कौन सा उत्तर भारतीय बाप होगा जिसने कम से कम एक बार अपने सगे बेटे को उल्लू के पट्ठे या खोते दा पुत्तर न बोला होगा. मुँहफट बच्चा तो हँसकर बोल भी देता है, किसे गाली दे रहे हो मुझे या खुद को.
अगर संयोग से किसी बच्चे को ऐसे दिव्य तातश्री मिल भी जाएं तो भी स्कूल में आकर तो उसके ज्ञानचक्षु खोल ही दिए जाते हैं कि पट्ठों का अर्थ क्या और उसके आगे उल्लू के लगाकर क्या. गालियों का विधान और भाषाशास्त्र के अध्येता भी इस बात की पुष्टि करेंगे कि उल्लू का पट्ठा एकमात्र ऐसी गाली है जिससे पुरुष प्रधान ग्रंथि की बू नहीं आती.
यह भी खयाल आता है कभी कि अगर देश अपना यही होता पर संस्कृति अमेरिका-यूरोप की होती तो निश्चित ही ज्ञानपीठ पुरस्कार का नाम उलूक शिरोमणि होता और साहित्य अकादमी का उलूक अकादमी से कुछ मिलता-जुलता.
क्रिकेट में लड़खड़ाती हुई पारी को संभालने वाले को नाइट वाचमैन की उपाधि से विभूषित करती हुई अखबारों की सुर्खिंयां तो आपने पढ़ी ही होंगी पर हिन्दी पखवाड़े के जोशीले सीजन में किसी भाषायी बल्लेबाज ने अगर उलूक-प्रहरी लिख दिया तो बल्ले से स्ट्रेट-ड्राइव लगने से कोई रोक भी नहीं सकता है.
अगर आप किसी से डरते भी हों और उसे गाली भी देना चाहते हों तो हिंग्लिश का सहारा लीजिए. हे! मैन व्हट अ उल्लू का पट्ठा यू आर. अब जैसे ही उसका हाथ आपके गिरेबान तक पहुँचे तो जोड़ दें, आइ मीन सन ऑफ़ वाइज़मैन. आई एम श्योर यू आर फेमिलिअर विद इंगलिश ईडियम्स. गिरेबान की तरफ जाता हुआ हाथ स्टाइल से हैण्डशेक की मुद्रा में आ जाएगा. व्हाइ नॅाट, व्हाइ नॅाट कहते हुए.
किसी चीनी से पूछा गया कि ये पश्चिमी गोरे लोग उल्लू को बुद्धिमान मानते हैं काले भारतीय बेवकूफ तो फिर तुम पीले चीनी क्या मानते हो. चीनी मुस्कुरा कर बोला – एक स्वादिष्ट डिश. मुझे पूरा यकीन है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री इसी गति और इसी दिशा में प्रगतिरत रही तो उल्लू के पट्ठे भी किसी गीत का लोकप्रिय बोल अवश्य बनेगा और फिर उलूककार माफ कीजिएगा लिरिककार को फिल्मफेयर अवार्ड भी अवश्य मिलेगा.
उल्लू अंटाकर्टिका को छोड़कर दुनिया के हर महाद्वीप में पाये जाते हैं. उल्लुओं में कोई भाषायी लिंगभेद नहीं होता न ही संस्कृत में न हिंदी में और न अंग्रेजी में. और अंत में उल्लुओं के समूह का नाम नहीं जानना चाहेंगे. विचित्र किंतु सत्य, ये है पार्लियामेंट.
धन्यवाद पढ़ने के लिए. दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं. हैप्पी दीवाली. सोचा लक्ष्मी महात्म्य से पहले थोड़ा उनके वाहन के महात्म्य का भी सुमिरन कर लिया जाए.
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). इस्कर अलावा उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197 और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.
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what an essay..., mind blowing I loved it!