सफ़ाई और स्वास्थ संबंधी कुछ जागरूकतायें अपने परिया के अन्दर बचपन से ही कूट-कूट कर भरी पड़ी हैं. उनमें से एक है; पेशाब को कभी रोक कर नहीं रखना चाहिए. जब उसे ‘कछेरी’ में आई, तो उसने सी.जे.एम. कोर्ट की दीवार की आड़ में निपटा दी. चलती बस में ‘आने’ पर उसने बस रुकवाई और ‘कल्वट’ की पिछाड़ी बैठ गया. नैनीताल की ठंडी सड़क पर वह ताल की ओर पीठ करके फ़ारिग हो लिया. उसे बताया गया था कि सही वक़्त पर पेशाब करना और थूकना बहुत ज़रूरी है. इन क्रियाओं को अपनी इच्छा और ज़रूरत के हिसाब से जितनी बार चाहो किया जा सकता है. सावधानी सिर्फ इतनी कि आपको कोई देखता ना हो. धरती माता की सोखन शक्ति पर परिया को इतना भरोसा था जितना सोनिया को मनमोहन पर भी नहीं रहा होगा. परिया समझता है कि वो ‘बहुत कुछ’ करता है पर गंदगी नहीं. आज तक उसे गंदगी करते किसी ने देखा भी नहीं, देखा होता तो बताता.
परिया ने सीखा था कि जलती बीड़ी को जंगल में फेंकने से आग का खतरा रहता है. उसने आज तक, जंगल तो क्या डामर की रोड पर भी जलती ठुड्डी नहीं फेंकी. दीवारों पर, मेज-कुर्सी की तलहटियों से लेकर सीमेंट के फर्शों पर उसने ठुड्डियों को हमेशा मसल-कुचल कर बुझाया है. उक्त सभी स्थलों या गुलामी की प्रतीक विरासतों पर बीड़ी बुझाने से बनते निशानों के प्रति परिया उतना ही लापरवाह रहा है, जितनी भाजपा सरकार संसद में नेता प्रतिपक्ष के मुद्दे पर. उसका मन जानता है कि बीड़ी से उसके अपने ‘कल्जे’ के अलावा आज तक कहीं भी आग नहीं लगी.
थूकने से पहले परिया अपनी एक हथेली को जैहिन्द की मुद्रा में होंठों के कोने पर लगा लेता है. दायीं ओर थूकने के लिए जैहिन्द मुद्रा होंठों के बायें कोने और बायीं ओर थूकने के लिए दायीं ओर बना लेता है. थूक नज़दीक न गिरे इसलिए वो ज़ोर की आवाज़ के साथ इस क्रिया को करता है, जैसे कोई ट्रैक्टर खरखराकर थोड़ा चालू हो और फिर बंद हो जाये.
परिया के इसी जीवन में एक दिन अचानक रेल का टॉयलेट भी आया था. अब तक की भोगी उमर में उसके द्वारा लूटी गयी ये सर्वाधिक टिप-टॉप सुविधा थी. चारों तरफ से बंद, चिटकनी लगा दरवाज़ा, पानी का नल और जाने क्या देखने को लगा एक शीशा भी. छेद से पटरियों के बीच पड़े पत्थर दिखने से परिया को भरोसा बना रहा कि वो धरती पर ही ‘बैठा’ हुआ है. रेल में हुआ तो क्या? पर फिर भी उसे ‘सज’ जैसी नहीं आई. इस क्रिया के आरंभिक मिनट में भूमि पर धारा के वेग से उत्पन्न बुलबुले देखने और मिट्टी के गुर्राने का स्वर सुनने का मज़ा ही कुछ और है.
आज परिया वही तथाकथित गंदगी करने जा ही रहा था कि उसके कान में आवाज़ पड़ी, “न करूँगा, न करने दूंगा”. ये आवाज़ उसी रेडियो से आ रही थी जो बरसों से उसे ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया’ सुनाता रहा है. उसे यक़ीन नहीं हुआ कि फरमाइशी प्रोग्राम सुनाने वाले रेडियो का इस्तेमाल उस पर नज़र रखने के लिए भी किया जा सकता है. प्रधानमंत्री की आवाज़ इतनी रौबीली थी कि उसके हाथ जहाँ थे, वहीं जाम हो गए. पाँव जैसे धरती में गड़ गए.
आवाज़ अब भी आ रही थी, “मैं महीने में दो-तीन बार मन की बात करूँगा”. परिया का भी मन हुआ कि डायरेक्ट पूछ ले, “किसके मन की बात करोगे? हर महीने में क्यों करोगे?” लेकिन ये कैसे संभव था, परिया का न तो रेडियो पर कंट्रोल था और न ही आवाज़ रूपी प्रधानमंत्री पर. वह समझ नहीं पा रहा था कि करे तो क्या? इसी उधेड़बुन में उसने बीड़ी जला ली. जोर का सुट्टा मारा तो खांसी आ गई. थूकने को हुआ, तो लगा रेडियो घूर रहा है. अब परिया का सर चकरा रहा था. वो खुद से आज़ादी के मायने पूछ रहा था. इतनी दूर तक चल कर आने के बाद भी उसे थूकने लायक जगह नहीं दिखी या हर जगह इसी लायक थी. रेडियो की आवाज़ लगातार उसके कानों में पड़ रही थी, “आप खुद सफाई रखें और इतना ही नहीं, दूसरों से भी सफाई रखने का आग्रह करें…” परिया पर इस वाक्य का जादुई असर हुआ. उसकी चाल में अचानक दृढ़ता की झलक दिखाई पड़ी, मानो भाजपा बिना शिवसेना से गठबंधन के महाराष्ट्र का चुनाव लड़ने जा रही हो. आगे बढ़कर परिया ने पच्च से रोड पर थूका और दो कदम बाद बीड़ी की ठुड्डी को ज़मीन पर पटक कर इतनी जोर से रगड़ा कि चप्पल का फीता निकल आया. टूटी चप्पल को हाथ में उठा कर दौड़ते हुए उसने जयकारा सा लगाया, “न करूँगा न करने दूंगा”.
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास’ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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