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उत्तराखंड के वैवाहिक रीति-रिवाज में विशेष महत्व है समधी-समधिन का

कुमाऊं और गढ़वाल में बहुत सी ऐसी परम्परा और रीतियां हैं जो अब हमें केवल किताबों में देखने को मिलती है. बदलते परिवेश के साथ गढ़वाल और कुमाऊं में होने वाले परम्परागत विवाह में बहुत सी परम्परायें ऐसी हैं जो अब लगभग नाममात्र की रह गयी है. इन्हीं परम्पराओं में एक है समधी-समधिन बनाने की परम्परा.

कुमाऊं में विवाह के दौरान वर और वधु दोनों पक्षों के द्वारा समधी और समधिन बनाये जाने का रिवाज है. गणेश पूजा के बाद सुआल पथाई का रिवाज कुमाऊनी विवाह परम्परा का एक विशिष्ट रिवाज है इसी के बाद समधी और समधिन बनाये जाते हैं.

फोटो: राजेन्द्र सिंह बिष्ट

समधी और समधिन परिवार की पांच विवाहित सुहागन महिलाओं द्वारा बनाये जाते हैं. इसके लिये पहले गेहूं और चावल का आटा या केवल गेहूं के आटे को घी में भुना जाता है. आटा भूनने के बाद उसे गुड़ के पानी में गूथा जाता है.

आटा गूथने के दौरान इसमें भूने हुये तिल मिलाये जाते हैं. इसमें समधी और समधिन के दो अलग-अलग आकार बनाये जाते हैं. समधी का अर्थ है वर या वधु के पिता और समधिन का अर्थ है वर या वधु की माता. तिल मिलाते समय यह ध्यान रखा जाता है कि समधी वाली आकृति में ज्यादा तिल मिला हो जबकि समधिन वाली में कम तिल.

इसके बाद दोनों आकृतियों को पीले कपड़े में बांधा जाता है. समधी की रुई से मूछें बनाई जाती है कई लोग उसके मुंह में बीड़ी या सिगरेट भी लगाते हैं. समधिन की आकृति को रंगीली पहनाई जाती है उसका श्रृंगार किया जाता है. इसके बाद इन दोनों को एक ही टोकरे में रख दिया जाता है.

यह आकृतियां सुआल के साथ विवाह के दौरान वर पक्ष वधु को और वधु पक्ष वर को देता है. पहले दोनों पक्ष सुआल आदि को अपने-अपने नाते-रिश्तेदारों के साथ बांटकर खाते थे अब इन्हें आस-पास के जानवरों को खिला दिया जाता है.

-काफल ट्री डेस्क

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Girish Lohani

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  • ये असल में नज़र बट्टू होते हैं, जिन्हें मज़ाक में समधी समधन कहते हैं। इन्हें शादी के सामान मेंं सबसे ऊपर रखा जाता है जिससे सामान को नजर न लगे।

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