कॉलम

साझा कलम : 12 सुनील कुमार

[एक ज़रूरी पहल के तौर पर हम अपने पाठकों से काफल ट्री के लिए उनका गद्य लेखन भी आमंत्रित कर रहे हैं. अपने गाँव, शहर, कस्बे या परिवार की किसी अन्तरंग और आवश्यक स्मृति को विषय बना कर आप चार सौ से आठ सौ शब्दों का गद्य लिख कर हमें kafaltree2018@gmail.com पर भेज सकते हैं. ज़रूरी नहीं कि लेख की विषयवस्तु उत्तराखण्ड पर ही केन्द्रित हो. साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं एक फोटो अवश्य अटैच करें. हमारा सम्पादक मंडल आपके शब्दों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होगा. चुनिंदा प्रकाशित रचनाकारों को नवम्बर माह में सम्मानित किये जाने की भी हमारी योजना है. रचनाएं भेजने की अंतिम तिथि फिलहाल 30 अक्टूबर 2018 है. इस क्रम में पढ़िए सुनील कुमार लेख रात का चौकीदार – सम्पादक.]

रात का चौकीदार

सुनील कुमार

ऐसे ही गुजर गई थी एक शाम तीन साल पहले. छोटे कस्बों की शामें कैसे चुपचाप गुजर जाती हैं. इन्हें किसी के आने का इंतजार नही होता. इन्हें किसी के चले जाने पर शिकायत नही होती. ये किसी डॉयनमिक शहर की शाम की तरह अपने ढलने में कोई चार्म नही रखतीं.

यहाँ की शामों के गुजरने का एक पैटर्न होता है. रोज एक से लोग एक सी बातें होती हैं. एक चाय की गुमटी के छज्जे से नीचे गिरता हुआ सूरज ढलती हुई शाम लेकर आता है. पडे पडे रहकर चरमराई हुई कुर्सियों पर लोग ताउम्रों के लिए बैठ जाते हैं. जैसे एक मुद्दत यहाँ से अब इन्हें उठना ही ना हो. इनके बैठने में इतना स्थायित्व होता है कि जैसे कोई कब्जा कर रहा हो.

चाय की हसीन पेशकश होती है, हाथ बढ़ते हैं, कारवाँ बनता है. लोग अनविलिंगली भी साथ देते हैं चाय पर और शुरू होती हैं ‘गैरजरूरी बातें’. बहुत औसत बातें होती हैं इतनी औसत कि उनके सुने जाने या ना सुने जाने से जिंदगियों में कोई फ़र्क भी ना पड़ता हो. बैकग्राउंड में लगातार एक स्टोव के जलने की आवाज़ इस शाम को बाँधे रखती है. जैसे इस आवाज़ की फ्रिक्वेंसी पर ही ये कस्बा चलता हो, शामें आराम से गुजर पाती हों. जैसे शाम के दिल बहलते हों कोई करार आता हो इसी आवाज़ से. जैसे कायनात चल रही हो सिर्फ़ इसी फ्रिक्वेंसी पर.

शोर के नाम पर बस यही एक आवाज़ जिन्दा है यहाँ. गुमटी में एक सोलर से चलने वाली ऐमरजेंसी लाइट है जिसके प्रकाश में लोगों के चेहरे किसी ब्लैक आर्ट की तरह दिखते हैं. कहीं से साफ कहीं से धुँधले. इसी प्रकाश का सहारा लेकर अँधेरे में भी डॉयल्यूशन की प्रक्रिया कुछ लोग सफलता पूर्वक कर जाते हैं. इसी बीच दो तीन लोग खाली सड़क पर एैसे झूमते हुए गुजरते हैं जैसे हवा के तेज़ झौंकों ने इन्हें कोई न्यू नॉर्मल दिया हो चलते हुए बहक कर चलने का. वापस किस्सागोई शुरू होती है.

हाँ में हाँ मिलती हैं. ना से ना टकराती हैं. पैरलली ढलती हुई शाम रात में घुस चुकी होती है. एक आदमी है जिसकी नजर सिर्फ़ गहराती हुई सर्दी की रात पर है. वो है बगल के सरकारी दफ्तर में ‘ रात का चौकीदार ‘.

देहरादून के रहने वाले सुनील कुमार सिविल इंजीनियर हैं. वर्तमान में उत्तराखंड सरकार में पीडब्लूडी विभाग में असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर कार्य कर रहे हैं.

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Girish Lohani

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