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साझा कलम : 11 प्रीति सिंह परिहार

[एक ज़रूरी पहल के तौर पर हम अपने पाठकों से काफल ट्री के लिए उनका गद्य लेखन भी आमंत्रित कर रहे हैं. अपने गाँव, शहर, कस्बे या परिवार की किसी अन्तरंग और आवश्यक स्मृति को विषय बना कर आप चार सौ से आठ सौ शब्दों का गद्य लिख कर हमें kafaltree2018@gmail.com पर भेज सकते हैं. ज़रूरी नहीं कि लेख की विषयवस्तु उत्तराखण्ड पर ही केन्द्रित हो. साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं एक फोटो अवश्य अटैच करें. हमारा सम्पादक मंडल आपके शब्दों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होगा. चुनिंदा प्रकाशित रचनाकारों को नवम्बर माह में सम्मानित किये जाने की भी हमारी योजना है. रचनाएं भेजने की अंतिम तिथि फिलहाल 30 अक्टूबर 2018 है. इस क्रम में पढ़िए प्रीति सिंह परिहार लेख बचपन और गांव – सम्पादक.]

बचपन और गांव

-प्रीति सिंह परिहार

मुझे लगता है कि गांव हर किसी की जिंदगी में होना चाहिए. बचपन और गांव अगर मिल जाएं, तो जेहन में कुछ मुस्कुराते हुए चित्र दर्ज हो जाते हैं. कुछेक डराने वाले किस्से भी होते हैं, जो बाद में बहुत बचकाने लगते हैं और खुद पर हंसने की वजह बनते हैं. मैं इसे अपनी खुशकिस्मती मानती हूं कि मेरे बचपन के कुछ दिन गांव में बीते. गर्मी की छुट्टियों में हम जबलपुर से सतना के लिए पैसेंजर ट्रेन में पकड़ते. तब रिजर्वेशन का चलन नहीं था और पैसेंजर ट्रेनों में रुमाल और तौलिया रखकर लोग सीट रिजर्व कर लेते थे. बैठ जाने पर झगड़ते थे फिर थोड़ी देर में सब उसी जगह में अर्जेस्ट हो जाते और साथ में मूंगफली खाते. हम ट्रेन से उतरकर खजुराहो की ओर जानेवाली राज्य परिवहन की बस पकड़ते. खजुराहो से तकरीबन अस्सी किलोमीटर पहले ही एक चौराहे पर उतर कर करीब डेढ़ किलोमीटर पैदल या फिर उस ओर जा रहे किसी ट्रेक्टर में लिफ्ट लेकर गांव पहुंचते. ट्रेक्टर नहीं मिलता, तो उस तरफ जा रहे किसी साइकिल वाले के कैरियर में मां हमे बैठा देती और वह घर के दरवाजे पर हमें उतार कर आगे निकल जाता. कैसे भरोसे भरा समय था वो, अब सोच कर हैरत होती है.

मई-जून और लगभग अाधा जुलाई हम गांव में रहते. आम के बगीचों में रौनक के दिन होते ये. दोपहर में बहुत तपन होती थी, लू लगने के डर से घर से निकलने की मनाही होती. जैसे ही दोपहर के खाने के बाद सबकी आंख लगती, मैं धीरे से किवाड़ खोल घर से बाहर.  जून के महीने में गांव में अक्सर तेज गर्म हवाएं चलतीं. कभी-कभी ये हवाएं अंधड़ में तब्दील हो जातीं, तब गांव भर के बच्चे अपना झोला या टोकरी लेकर आम के बगीचों की ओर दौड़ जाते. सबमें होड़ रहती कि किसने कितने अधिक आम बीने हैं. एक बार सुबह चार बजे के आस-पास अंधड़ आया, अभी उजाला ठीक से नहीं हुआ था. मैं मां के मना करने के बाद भी झोला लेकर बगीचे की ओर दौड़ पड़ी. हवा की रफ्तार अभी कम नहीं हुई थी. पेड़ों से टकराकर सांय-सांय शोर के साथ वह चलती जा रही थी. बीतती हुई रात और आती हुई सुबह से मिलकर बने उजाले में मैं दौड़ रही थी. अचानक ऐसा लगा कि कोई मुझे जोर से आगे की ओर धकेल देता है. यह हवा थी, जो मुझे आगे की ओर ठेल रही थी. मेरा चालीस किलो के वजन वाला शरीर, हवा की रफ्तार को सह सकने के लिहाज से बहुत कमजाेर था. मैंने पहली बार जाना कि हवा आपको कहीं भी उड़ा कर ले जा सकती है. कहीं भी ले जा कर पटक सकती है. हवा जिस तरफ थी मैं भी उसी तरफ दौड़ रही थी, फिर भी मेरे कदम जमीन पर जम नहीं पाते थे और हवा मुझे आगे की ओर धकेल देती. मैंने जैसे, तैसे रास्ते में पड़ने वाले पंचायत भवन की दीवार से सटकर खुद काे बचाया और आंधी थमने का इंतजार किया. तेज हवा के बीच भी आम बटोर लेनेवाले पेशेवरों ने सारे आम लूट लिये थे, मैं अपने झोले में चार से पांच आम लिये हवा की ताकत के बारे में सोचते हुए घर लौट आयी. सब अपने काम में लगे थे, किसी को मेरे बीने हुए आम और हवा के साथ उड़कर आगे गिरने का अनुभव जानने मेें कोई रुचि नहीं थी. लेकिन, मैंने तेज हवा के बारे में सोचना जारी रखा.

ऐसी ही एक दोपहर मैंने हवा का दोबारा सामना किया. गांव में अकसर गर्मियों की दाेपहर में आनेवाले धूल भरे अंधड़ के बारे में यह अंधविश्वास चर्चा में था कि इस हवा में भूत होते हैं, जो इंसान को अपनी ओर खींचते हैं. परिवार में किसी घर में शादी थी. मां शादी के काम में हाथ बंटाने गयी हुई थी. पिता की चुनाव में ड्यूटी थी, इसलिए गांव नहीं आ सके थे. घर में दो बड़ी बहनें थीं, पर मुझे रोकने वाला कोई नहीं था. मैंने तय किया कि आज मुझे घर में नहीं नहाना है, खेत में लगे पंप में जाकर नहाना है. खेत, जहां पंप था, घर से कोई दो किलोमीटर की दूरी पर था. दोनों बहनों ने मुझे बहुत सी दलीलें देकर समझाने की कोशिश की कि तुम्हे लू लग सकती है, मां नाराज होगी, तुम्हे अकेले डर लग सकता है. मैंने उनकी बातों को अनसुना कर अपने कपड़े हाथ में लिए और चल पड़ी. धूप सच में बहुत तेज थी.

फसल कट चुकी थी. खेत खाली और सुनसान थे. गेहूं की फसल कटने के बाद के अधिकतर खेतों में खूंट चमक रही थी. फसल कटने के बाद गाय गोरुओं को खुला छोड़ दिया जाता. जिनके पास सिंचाई का पंप होता, वो पास के किसी खेत में बीच-बीच में पंप चला कर पानी भर देते थे, ताकि जानवर प्यासे न रहें. मैं ऐसे ही अपने एक खेत की ओर, जहां पंप था चिलचिलाती धूप में सुनसान को सुनते हुए चली जा रही थी. खेत पहुंच कर मैंने देखा कि पंप हाउस का दरवाजा खुला है. मुझे पता था कि हरी बटन दबाने पर पंप चल पड़ता था. पास ही खड़े बबूल के पेड़ के पास मैंने कपड़े रख दिये और पंप चलाने के लिए हरी बटन दबाने लगी. पंप नहीं चला, मैं अभी यह समझने के लिहाज से बहुत छोटी थी कि बिजली नहीं है या कोई तकनीकी खराबी है. बहुत देर तक बार बार बटन दबाने के बाद भी पंप नहीं चला, मैं पसीने से भीग चुकी थी. थककर मैंने सोचा कि खेत में भरे पानी में ही नहा लूं, लेकिन पानी और कीचड़ इस तरह मिल चुके थे कि आखिरकार मैंने बिना नहाये ही घर लौटने का फैसला किया.

धूप तेज थी और जल्दी पहुंचने की मंशा से मैंने घर की ओर दौड़ना शुरू कर दिया. हवा की रफ्तार तेज होने लगी और मेरी भी. मैं जैसे-जैसे तेज दौड़ती, हवा और तेज होती जाती और मुझे पीछे की ओर खींचती. मुझे अचानक याद आया कि यह दोपहर की हवा है, और इसमें जरूर कोई भूत है, जो मुझे पीछे की ओर पूरी ताकत से खींच रहा है. अभी आधा रास्ता बचा था, मेरी सांस फूलने लगी थी, मैं अपनी कांख में अपने कपड़े दबा कर अब और तेजी से दौड़ रही थी. हवा में छिपा भूत भी अब और तेजी से मुझे पीछे की ओर खींच रहा था. मैं जैसे-तैसे गिरते-पड़ते, हांफते हुए घर तक पहुंची और चुपचाप बाल्टी- लोटा लेकर नहान घर में घुस गयी. लगा बस जान बच गयी जैसे तैसे. इसके बाद मैंने आंधी में आम बीनने जाने और पंप में जाकर नहाने जैसे इरादे दोबारा नहीं पाले. लेकिन हवा का सामना करने का वो अनुभव कभी मेरे जेहन से नहीं निकला.  बाद की जिंदगी में मैंने पाया कि हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें भी हवा अपने इस रूप में मौजूद है. हवा की रफ्तार जिस ओर है, आप अगर उस ओर चलते हैं तो भी कभी भी कहीं भी गिर सकते हैं. वह आपको कहीं भी ले जाकर पटक सकती है. आप अगर हवा की  विपरीत दिशा में चलते हैं, तो आपको खड़े रहने, चलने, दौड़ने और अपनी मंजिल तक पहुंचने में बहुत ताकत लगानी पड़ती है. लेकिन अधिकतर आप सकुशल अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं.

 

प्रीति सिंह परिहार जबलपुर की रहने वाली हैं. प्रीति वर्तमान में एक अखबार में कॉपी राईटर हैं.

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Girish Lohani

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  • गांव में रहने वालों के लिए यह किस्सा अपनी आंखों के सामने से गुजरने जैसा है।

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