उत्तराखंड राज्य की स्थापना एक पर्वतीय राज्य की संकल्पना के साथ हुई. इसके तराई भाबर के मैदानी इलाकों को पहाड़ों की आधार भूमि कहते हुये जोड़ा गया. उत्तराखंड राज्य बनने के समय भी पहाड़ के कई स्थानीय नेताओं ने इसका विरोध किया था.
राज्य बनने के बाद से ही मैदानी क्षेत्रों और पर्वतीय क्षेत्रों में विकास का अंतर साफ़ देखा जा सकता है. सबसे बड़ा उदाहरण तो 22 सालों में हमारी स्थायी राजधानी का न होना है. उत्तराखंड के नेता चुनावी भाषणों में तो पहाड़ की बात करते हैं लेकिन जब असल काम करने की बारी आती है तो उन्हें मैदान ही पसंद आता है.
हालिया मामला सैनिक स्कूल को लेकर है. देश भर में 100 सैनिक स्कूल खोले जाने का निर्णय लेते हुए जब केंद्र सरकार ने राज्यों से मानकों को पूरा करने वाले स्कूलों के प्रस्ताव मांगे गए तो उत्तराखंड सरकार ने राजीव गांधी नवोदय विद्यालय देहरादून और एएन झा इंटर कालेज रुद्रपुर के नाम दिये. क्या पहाड़ी राज्य की बातें क्या केवल चुनावी भाषण के लिये छोड़ दी गयी है क्योंकि जब भी बड़े स्कूल या बड़े अस्पताल की बात होती है तो राज्य सरकार को केवल मैदान नजर आता है.
कई सालों से रुद्रप्रयाग जिले में अब भी सैनिक स्कूल खोलने की कवायद चल रही है. इस स्कूल को मंजूरी भी मिल गई थी पर सैनिक कल्याण और शिक्षा विभाग के बीच तालमेल की कमी के चलते इस स्कूल के भवन निर्माण का मामला पिछले लम्बे समय से लटका हुआ है?
पहाड़ी जिलों में एक नहीं नहीं ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं. पिछली बार जब कुमाऊं में एम्स की मांग उठी तो हल्द्वानी का नाम सबसे आगे रखा गया. आज अब सैनिक स्कूल के लिये देहरादून और रुद्रपुर का नाम दिया जा रहा है. क्या यही पर्वतीय राज्य की अवधारणा है?
रोजगार के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य दो मुख्य मुद्दे हैं जो पहाड़ में पलायन को रोकने में सबसे कारगार साबित होते हैं. उत्तराखंड राज्य में रोजगार के नाम पर या तो नेताओं की चमचागिरी का काम मिल रहा है या फिर ठेकेदारी का. तीसरे किसी भी तरह के रोजगार के लिये राज्य में नोटों के बंडल मांगे जा रहे हैं. कम से कम एक महीने से तो ऐसा ही समझ आ रहा है.
–गिरीश लोहनी
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