उत्तराखण्ड (Uttarakhand)में ऋतु गीत गए जाने की परंपरा है, यह अब विलुप्त होती जा रही है. बसंत ऋतु में गाये जाने वाले ऋतु गीतों (Folk Songs) को ऋतुरैण (Riturain) कहा जाता है. इन गीतों को ख़ास तौर से चैत के महीने में गाये जाने के कारण चैती या चैतुवा भी कहा जाता है.
उत्तराखण्ड के पुराने ग्राम्य समाज में विभिन्न कामों के साथ-साथ गीत-संगीत भी एक जाति विशेष के हिस्से हुआ करता था. यह जाति मुख्यतः विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियाँ करके ही अन्न-धन के रूप में अपना हिस्सा लिया करती थी. इन्हें गन्धर्व, औजी, बाजगी, मिरासी आदि नामों से जाना जाता था. यह लोग विभिन्न पर्व त्यौहारों के मौकों पर गाँव-घरों में जाकर लोकगीत सुनाया करते थे और उसके बदले अनाज, मिठाई, वस्त्र, गुड़ और पैसा इकट्ठा किया करते थे. शेष जातियां भी इन्हें इनका हिस्सा सहर्ष दे दिया करती थीं. बदलते समय में यह जातियां अपने पुश्तैनी पेशे के इस स्वरूप को त्याग चुकी हैं.
बसंत ऋतु व चैत्र मास में इनके द्वारा गए जाने वाले गीतों को रितुरें कहा जाता था. इन गीतों में भाई-बहन के आपसी प्रेम, विवाहित कन्याओं के मायके की यादें व भाई-बहन के मिलन के किस्से गाये जाते थे.
कुमाऊँ मंडल में गाये जाने वाले एक सर्वाधिक प्रचलित ऋतुरैण में गोरिधना नाम की विवाहिता की कथा गयी जाती थी. गोरिधना नाम की इस कन्या को एक शर्त का पालन करते हुए कोश्यां के कालिय नाग के साथ ब्याह दिया गया था. चैत के महीने में उसका भाई उसे भिटौली देने के लिए जाता है. अपनी बहन के गाँव पहुँचने पर उसकी मुलाकात अपनी बहन की ननद भागा से होती है. भागा भाई को बहन के पास ले जाती है. इत्तेफाक से कालिय इस समय घर पर नहीं होता. दोनों भाई-बहन लम्बे समय बाद एक-दूसरे से मिलते हैं. भाई को बहन की कुशल-क्षेम मिलती है और बहन को मायके का हाल. दोनों एक-दूसरे के भावों में डूब जाते हैं.
मुलाकात में वक़्त के बटने का दोनों को ही पता नहीं चलता. भाई बहन से एक भावुक मुलाकात के बाद घर की ओर लौटने के लिए तैयार हो जाता है. घर लौटने की जल्दबाजी में वह बहन के पैर छूना भूल जाता है. यह देखकर ननद भागा को उन पर शक हो जाता है. भागा सोचती है कि शायद यह धना का भाई न होकर उसके मायके के गाँव का प्रेमी है, इसीलिए इसने धना के पाँव नहीं छुए.
कालीय नाग के घर आने पर भागा पूरी घटना अपने भाई को बताकर अपना शक जाहिर कर देती है. नाग धना के भाई का पीछा शुरू कर देता है. वह रस्ते में भाई को घेरने में कामयाब हो जाता है. यहाँ पर दोनों के बीच भीषण लड़ाई हो जाती है और इसमें दोनों मारे जाते हैं.
कहते हैं कि भाई-बहन के प्रेम की इस करुण गाथा को लोकगायक इस तरह भावविभोर होकर सुनाया करते थे कि बहन-बेटियों की आंखें नम हो जाया करती थीं.
अब ऋतुरैण गाने की यह परंपरा लुप्त हो चुकी है. गन्धर्वों, मिरासियों के वंशजों ने इस पेशे को पूरी तरह त्याग दिया है. अब इस पेशे में न वो मान-सम्मान ही रहा था न ही इससे गुजर-बसर हो पाती थी.
हाल ही में लोक गायिका कबूतरी देवी के निधन के बाद ऋतुरैण गाने वाली पीढ़ी के आखिरी स्तम्भ का भी अवसान हो गया. कबूतरी देवी के पास ऋतुरैण परंपरा के कई लम्बे और दुर्लभ गीत थे जो उनके साथ ही विलुप्त हो गए. इनके संरक्षण का कोई प्रयास कभी नहीं हुआ.
– काफल ट्री डेस्क
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