पुलिस को खबर मिलती है कि एक जली हुई सिर कटी लाश मिली है. पुलिस तफ्तीश करती है और कई तरह की पूछताछों, शिनाख्तों और अनुसन्धानों के बाद अपराधी का पता लगा लेती है. (Gahan Hai Yah Andhkara Review)
अमित श्रीवास्तव के सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘गहन है यह अन्धकारा‘ का कथानक इतना ही है. सिर्फ कथानक की बात करेंगे तो यह किसी क़त्ल की अखबारी रिपोर्ट या हद से हद मनोहर कहानियां टाइप की एक लघुकथा के बराबर कच्चा माल है. (Gahan Hai Yah Andhkara Review)
लेकिन अमित के पास चेतन-अवचेतन को झकझोर देने वाली स्मृतियों का स्पृहणीय भण्डार भी है. उनके पास एक बाघ की पैनी निगाह है जो एक ही झलक में समूचे एन्वायरन्मेंट की हर जरूरी चीज को दर्ज कर लेती है.
देखी-अदेखी ताकतों के दबाव में सतत बदलने को विवश बना दी गयी दुनिया के इस तरह जबरिया बदले जाने की प्रक्रिया मार्मिक, जटिल और ट्रेजी-कॉमिक होती है. हजार स्तरों पर चलने वाली इस प्रक्रिया के हजार झोल होते हैं.
फिर इस परिवर्तन के नियंता और शिकार दिखाई देना शुरू होते हैं. अधिक ध्यान से देखना शुरू करते हैं तो उसके बाद आपको व्यवस्था और समाज की शाश्वत सड़ांध के भीतर आ रहे पातालगामी परिवर्तन भी नज़र आने लगते हैं. फिर अचानक आप क्षोभ में भरकर वीरेन डंगवाल के लफ्जों में चीखते हुए पूछना चाहते हैं – “किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है!”
बदलते हुए आदमी के रचे इस बदलते हुए निराशाभरे-बरबाद संसार को नजदीक से देखती पारखी निगाह आदमी को बदलता हुआ देखती जाती है और चुपचाप उसकी हर गुप्त हरकत को दर्ज करती जाती है.
अमित ने अपने इस पहले उपन्यास में कथानक-सरोकार-भाषा और अनुभव का तकरीबन परफेक्शन पर पहुंचता रसायन तैयार कर सकने में सफलता पाई है. समाज के हर वर्ग की कुंठाओं और सपनों को इसमें जगह मिली है. और सपनों-किस्सों-कहानियों की खुराक पर जीवित रहने वाले इन सारे वर्गों की हर जरूरी दास्तान को भी.
तो कहीं थाने के अहाते में बनी सुल्ताना डाकू की मजार का किस्सा है तो कहीं आरक्षण आन्दोलन के दौरान खुद को आग लगा लेने वाले राजीव गोस्वामी के जज्बे की दास्तान और चौरासी के दंगों की खौफनाक स्मृति. डब्बू-मुन्नू-बब्बू जैसे छोकरों की यादों से लेकर घिस चुके पुलिस के मुंशियों की यादों के असंख्य पिटारे हैं जिनमें हमारे देश की पिछले तीस सालों के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति का पूरा लेखाजोखा है.
अमित पुलिस में नौकरी करते हैं तो जाहिर है सबसे अधिक पात्र उसी महकमे से आए हैं – कविहृदय कनिष्ठ अफसरों से लेकर घाघ दीवानजीओं तक; डंडायुग से अचानक साइबरयुग के संधि-काल के वर्षों में पुलिस की नौकरी में आये लौंडे इन्स्पेक्टर से लेकर हर कोण से घरेलू नजर आती महिला कांस्टेबल तक और अफसरी से आजिज आ चुके वरिष्ठ अफसरों से लेकर गरीबी से आजिज आ चुके ठुल्लों तक. समाज द्वारा हेय दृष्टि से देखे जाने को अभिशप्त इस वर्ग के मनोविज्ञान और सामाजिक विज्ञान को लेकर ऐसा महाकाव्य हिन्दी में पहली बार बुना गया है. एक जगह लिखा है –
कोई भी व्यक्ति पुलिस को तब तक प्यार नहीं करेगा, जब तकि उस से कोई अपराध न हो जाए. अपराध होते ही वह पुलिस से नफ़रत करने लगेगा. कोई भी व्यक्ति पुलिस को तब तक प्यार नहीं करेगा, जब तक उसके साथ कोई अपराध न हो जाए, उसके साथ अपराध होते ही वह पुलिस से नफ़रत करने लगेगा.
कहानी में निचले तबके से ताल्लुक रखने वाले ढेर सारे गरीब पात्र हैं, चालाक प्रॉपर्टी डीलर हैं, शराबी हैं, बीवियों को पीटने वाले पति और परदे की आड़ से सुबकती बच्चों की निगाहें हैं और इस सब के ऊपर मनुष्य और उसकी मनुष्यता के लगातार ढहते और नीचे गिरते जाने का दुखी कर देने वाला आख्यान है.
एक विधा के तौर पर उपन्यास अपने मूल स्वभाव में विस्तार माँगता है. अच्छा उपन्यास इस विस्तार में क्रूरता की सीमा तक संयम माँगता है. यह आसान नहीं होता. अमित ऐसा कर सके हैं!
अमित का भाषा सौष्ठव सर्वश्रेष्ठ के दर्जे का है. इसे पाने के लिए बहुत लम्बे समय तक बहुत सारी मेहनत की गयी है. किताब में कम से कम सौ ऐसे वाक्य हैं जिन्हें आगे जाकर अमित के ‘कोटेबल कोट्स’ में जगह मिलने वाली है.
एक दुर्दांत ट्रेजेडी को लिखते समय भाषा के साथ कैसे खिलंदड़ी की जाती है, कैसे अनेक सतहों-परतों वाला ह्यूमर रचा जाता है और किस तरह एक नफीस और झीना नैरेटिव गढ़ा जाता है – सीखना चाहें तो हिन्दी में लिख रहे नौजवान लेखक ‘गहन है यह अन्धकारा’ से खूब सारे सबक सीख सकते हैं.
अमित ने इस किताब में हिन्दी उपन्यास के मानक-स्थापित शिल्प के साथ गुंडागर्दी की हद तक तोड़फोड़ की है. इस तोड़फोड़ की बहुत जरूरत थी.
बहुत दिनों बाद अपनी भाषा की किसी किताब ने इतना उद्वेलित किया है. जियो अमित, मेरे प्यारे!
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किताब रोचक लग रही है। इसे पढ़ी जाने वाली किताबों की सूची में जोड़ दिया है।
शुक्रिया...