गायत्री आर्य

एक स्त्री की भारतीय गणतंत्र से खुली शिकायत

भारत को गणतंत्र बने सात दशक से ज्यादा हो गए. पर स्त्री का जो दिमाग रचनात्मकता में लगकर देश को और आगे पहुंचा सकता था वह सिर्फ खुद को बचाने की जुगत में खर्च हो जा रहा है. (Gayatree Arya Republic Day)

73वें गणतंत्र दिवस के जश्न का माहौल चारों तरफ है. स्कूल के बच्चों के नृत्य, झांकियां, एनसीसी के कैडेटों और सेना के जवानों की परेड…यहां तक कि अत्याधुनिक शस्त्र भी साज-सज्जा में मशगूल दिखते हैं. भारतीय संविधान का बनना और लागू होना भारत के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है.

73 साल का वक्त किसी व्यक्ति, समाज, देश और सभ्यता के जीवन में लंबा व महत्वपूर्ण समय होता है. संविधान लागू होने की खुशी के जश्न पर साल दर साल करोड़ों रुपया खर्च करना चाहिए या नहीं, यह सवाल बहुत सारे दिलों में है. लेकिन उससे भी अहम सवाल यह है कि हमारा संविधान पूरी तरह से लागू कब होगा.

इस देश की स्त्रियां, बच्चे, दलित और आदिवासी आज भी संविधान के पूरी तरह से लागू होने के इंतजार में हैं. इन तमाम वंचित वर्गों के लिए संविधान जैसी कोई चीज है ही नहीं. मैं इस देश की आधी आबादी (जिसे आधी भी रहने नहीं दिया जा रहा) के नजरिये से गणतंत्र को देखने की कोशिश कर रही हूं. गणतंत्र की वर्षगांठ के उत्सव भरे माहौल में मैं, हम स्त्रियों की स्थिति और उपस्थिति को खोजने की कोशिश कर रही हूं तो त्रिलोचन की पंक्तियां जहन में आ रही हैं

‘नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें!’

लेकिन इस विशाल गणतंत्र की चमक में हम स्त्रियों की आभा को किसने और कितना स्वीकार किया है? आज भी जिन परिवारों में स्त्रियां सिर्फ घर का काम संभालती हैं उन घरों के बच्चे पारिवारिक परिचय के वक्त यही कहते हैं ‘पापा फलां-फलां हैं और मां कुछ नहीं करती!’ यदि ‘कुछ नहीं करती?‘ सवाल सामने से आए तो तभी एक खिसियायी सी हंसी के साथ जवाब आता है ‘मतलब घर का काम करती हैं‘ अन्यथा जवाब पर्याप्त है ही!

उम्र के अंतिम पड़ाव में मेरी मां बिना किसी अफसोस के मानती हैं कि उन्होंने जिंदगी भर सिवाय रोटियां थापने के और कुछ नहीं किया. बावजूद इसके कि एक पति सिर्फ उनके कारण अपनी प्रोफेसरी बिना किसी बाधा के निभाते रहे. बावजूद इसके कि उनकी सब कुछ सहने की प्रवृत्ति, सेवा, स्नेह और अथक परिश्रम के बगैर उनके तीन में से दो बच्चे बहुत ऊंचे पदों पर नहीं पहुंच पाते; वे अपने जीवन की उपलब्धि शून्य मानती हैं.

आखिर यह जवान होता गणतंत्र उन असंख्य महिलाओं को यह भरोसा क्यों नहीं दिला पाया कि इस सबसे बड़े लोकतंत्र के स्थायित्व की नींव में उनकी ही सहनशक्ति है? कि दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए उनका यह अदृश्य श्रम और बाकी भी न जाने क्या-क्या बराबर का जिम्मेदार है. इस विशाल गणतंत्र में घरेलू कामकाजी महिलाओं का एक विशाल तबका कहां अपनी आभा ढूंढ पाता है भला?

लेकिन सवाल यह है कि क्यों नहीं?

झुग्गी-झोंपड़ियों या मैली बस्तियों में पापड़ से लेकर खिलौने, छोटे-मोटे पुर्जे, कालीन, कांच के सामान और बीड़ी-माचिस बनाने वाली करोड़ों औरतों के लिए संविधान और गणतंत्र दूसरे ग्रह के शब्द हैं. 24 में से 10-12 घंटे आंखफोडू काम करके भी हर महीने सिर्फ हजार-दो हजार कमाने वाली औरतें नहीं जानतीं कि बराबर काम के लिए बराबर मजदूरी जैसा भी कोई कानून है. वे नहीं जानती कि 6,7,8 प्रतिशत की विकास दर का क्या मतलब है और अर्थव्यवस्था की इस वृद्धि दर का उनके काम से भी कोई संबंध है या नहीं. वे नहीं जानतीं कि हर रोज होने वाले अरबों-खरबों रुपयों के व्यापार की रीढ़ वे ही हैं. इस देश की समृद्धि, लोकतंत्र के स्थायित्व और गणतंत्र के विकास में उनकी भूमिका को, उन महिलाओं को कभी नहीं बताया गया. क्यों? इसलिए कि वे कहीं लिंगभेद और गैरबराबरी पर सवाल न उठा दें! अपने बराबरी के हक के लिए हड़ताल न कर दें!

कुल खेतिहर काम का लगभग 45.57 फीसदी अपने कंधों पर ढोने वाली इस देश की करोड़ों किसानिनों के घरों में आज भी न तो भरपेट खाना है, न ही बेटी के दहेज के पैसे और न ही चेहरे पर पूरे देश का पेट भरने का फख्र! हर साल डॉक्टर बनकर निकलने वाले लगभग पांच लाख और इंजीनियर बनने वाले लगभग आठ लाख युवाओं के चेहरों पर जो अभिमान और फख्र होता है उसका सौंवा हिस्सा भी इन मजदूरिनों, किसानिनों और गृहणियों के चेहरों पर नहीं होता. क्यों? बावजूद इसके कि इनमें से ज्यादातर युवा अपने देश की बजाय पराए मुल्क की तरक्की में काम आते हैं और ये सारी औरतें इस मुल्क की रोटी-रोजी और तरक्की में दिन-रात खपती हैं.

निःसंदेह बहुत सी वजहें हैं जिनके चलते स्त्रियों को भी गणतंत्र दिवस के समारोह में दिल से शामिल होना चाहिए. मसलन लड़कियों को पढ़ने और बढ़ने के जितने मौके आज मिले हैं उतने पहले नहीं थे. 50 के दशक में जहां महिलाओं की साक्षरता दर 8.86 प्रतिशत तक सिमटी हुई थी, आज उसका ग्राफ 52.67 प्रतिशत तक पहुंच गया है. व्यक्तिगत आजादी का स्वाद जिन महिलाओं ने आज चखा है वे पहले इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी. हर तरह के शोषण से निपटने के लिए तमाम तरह के सख्त और नरम कानून हमारे हक में बने हैं. संपत्ति में बराबरी का हक, दहेज विरोधी कानून, घरेलू हिंसा निरोधक कानून, बाल विवाह पर रोक, सती प्रथा की समाप्ति, लगभग हर क्षेत्र में रोजगार का हक, बराबर काम के लिए बराबर वेतन और तमाम धार्मिक फतवों के बावजूद कुछ भी कहने, लिखने, घूमने-फिरने, कहीं भी आने-जाने, कुछ भी पहनने की आजादी जैसा बहुत कुछ हुआ है हमारे लिए.

आज लगभग हर वर्ग की औरतें नौकरी करने और कमाने लगी हैं. उनकी कमाई पर उनका कितना हक है, यह अलग बहस का मुद्दा है. लेकिन मोटामोटी अपने पैसे पर हक न होने के बावजूद भी घर से निकलने और तरह-तरह के काम करने से जो आत्मविश्वास उन्हें मिला है वह किसी भी बाप, भाई, या पति की बपौती नहीं है. पितृसत्ता या कोई भी सत्ता औरतों/लड़कियों से उनके हुनर और मेहनत से कमाया हौसला नहीं छीन सकती. कभी भी नहीं!

लेकिन इतने सारे सोने के सिक्के जैसे कानून हाथ में होने के बावजूद भी हम जीवन के बहुत से क्षेत्रों में खुद को अभी भी बहुत कंगाल पाती हैं. हमारे गणतंत्र ने न सिर्फ लिंग, भाषा, मजहब, जाति और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव बरता है, बल्कि स्त्री-स्त्री के बीच भी भेद किया है. मोबाइल पर बात करती, लाखों का सालाना पैकेज पाती, महंगी गाड़ियों में महंगे लिबासों में आती-जाती, कॉलेज में मनचाही डिग्री लेती, मनचाहा जीवनसाथी और जीवन चुनती लड़कियों का प्रतिशत निःसंदेह काफी बढ़ा है. हमारे चारों तरफ ऐसी लड़कियों की रौनक है जो पीरियड्स और प्रेगनेंसी के मुश्किल दिनों में भी पैड व अन्य चिकित्सीय सुविधाओं के चलते साल के 365 दिन देश-दुनिया नापती फिर रही हैं.

लेकिन हममें से कितने जानते हैं कि गणतंत्र के केंद्र दिल्ली से जरा सा बाहर बढ़ते ही लड़कियों की एक दूसरी ही दुनिया है. जिनके पास पीरियड़स में बरतने के लिए सिर्फ एक-दो कपड़े हैं जिन्हें वे तब तक बरतती हैं जब तक कि या तो वे धुल-धुलकर फट नहीं जाते या फिर कोई दूसरा उन्हें उठा नहीं लेता. जिनके पास सेनिट्री नैपकिन पहुंचना तो दूर, जिनके स्कूल में लड़कियों के लिए टॉयलेट तक नहीं है. पूरे दिन स्कूल में पेशाब रोकने से हुई बीमारियों के लिए क्या यह गणतंत्र खुद को जिम्मेदार समझता है? दोषी तो दूर की बात है.

बाल-विवाह पर रोक के तमाम ‘कड़े‘ कानून बने हैं बावजूद अक्षय तृतीया पर लाखों बाल-विवाह हर साल होते हैं. इसके चलते बचपन में ही मां बनने की अकल्पनीय पीड़ा झेलने वाली बच्चियों के लिए क्या इस समाज और देश में से कोई खुद को दोषी ठहाराता है?

और बच्चियां…जो इस गणतंत्र की आर्थिक रीढ़ को मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाती आई हैं, निभाती जा रही हैं; उनके योगदान को खुलकर स्वीकार करने की हमारी औकात नहीं है. विदेशी पर्यटन को बढ़ाने हेतु निहायत जरूरी, मुफ्त व सस्ती सेक्स सेवाओं के लिए इस मुल्क की 14 साल से छोटी लगभग 20-25 प्रतिशत बच्चियां हलाल होती हैं! उनकी गिनती….? खेतों में किसानिनों द्वारा किए जाने वाले 45.57 प्रतिशत काम का लगभग 20 फीसदी 14 साल से कम उम्र की बच्चियां ही करती हैं.

कालीन, फुटबाल, माचिस, बीड़ी, अगरबत्ती, जरी, चूडि़यां, आभूषण बनाने वाले कारखानों में काम करने वाली बच्चियों की गिनती इस गणतंत्र में कहां है? जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह बाल श्रम में भी बालकों की अपेक्षा बच्चियों ने काम का ज्यादा बोझ उठाया हुआ है. पुरुषों द्वारा किए गए श्रम का 24.74 प्रतिशत हिस्सा जहां बालकों के कंधे ढोते हैं, वहीं बच्चियों ने 46.83 प्रतिशत काम को अपने कच्चे (लेकिन समय से पहले पक गए) कंधों पर उठाया हुआ है. लेकिन जिस देश में करोड़ों मांओं के दृश्य और अदृश्य श्रम की गिनती नहीं, वहां इन छोटी बच्चियों के काम की गिनती भला कैसे होगी?

संयुक्त परिवार में जैसे-जैसे बुजुर्ग की उम्र बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे परिवार और समाज में उनका सम्मान और रुतबा बढ़ता जाता है. तमाम बैर, क्लेश, फूट के बावजूद भारत एक अनोखा संयुक्त परिवार है, जैसा कोई दूसरा दुनिया में नहीं है. लेकिन आश्चर्य कि उस परिवार को चलाने वाला 73 साल का बुजुर्ग हमारा संविधान, समय के साथ उतना सम्मान नहीं पा सका है जितने का वह हकदार था. संविधान में दर्ज कानूनों की हेकड़ी से कोई नहीं डरता. देश का लगभग हर आदमी संविधान और उसकी सभी धाराओं का वैसे ही मखौल उड़ाता है, जैसे सवर्ण तबका दलितों का, संपन्न वर्ग गरीबों का और पुरुषसत्ता स्त्रियों का!!

इसे भी पढ़ें : ‘भगवान की मर्जी’ के नाम पर अविवाहिता के गर्भ को क्यों नहीं स्वीकारा जाता

इतने सालों बाद भी जंगल में रहने के बावजूद जंगल और वहां की जमीन आदिवासियों की नहीं हुई, वैसे ही स्त्रियां भी अपने घरों में अपनी जमीन पर बहुत से अधिकारों और सम्मान से अभी भी वंचित हैं. सबसे ताकतवर भारतीय महिलाओं, सबसे अमीर महिलाओं, सबसे ऊंचे ओहदों पर पहुंचने वाली महिलाओं पर लगभग हर रोज किसी न किसी अखबार/पत्रिका में आंकडे छपते हैं. इसकी मैं आलोचना नहीं कर रही. लेकिन सबसे कम मजदूरी और सबसे ज्यादा उपेक्षा के बावजूद सबसे ज्यादा श्रम करने वाले, सबसे बड़े स्त्री वर्ग के लिए कभी कहीं खबर नहीं आती, कोई सर्वे नहीं होता. क्यों? क्यों उन्हें कभी भी इन दशकों में यह अहसास नहीं दिलाया गया कि इस देश के आर्थिक ढांचे की रीढ़ वे ही हैं?

असल में हमारा गणतंत्र हम स्त्रियों/लड़कियों/बच्चियों के लिए एक पेचीदा सी स्थिति बनाए हुए है. एक तरफ हमारे हक में ढेर सारे कानूनों का अंबार लगाया गया है. पढ़ने और नौकरी के बहुत सारे विकल्प हमारे सामने खुले हैं. स्त्रियों और लड़कियों के हित में ढेर सारी लाभकारी योजनाएं बन रही हैं. अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की थोड़ी-थोड़ी आजादी हमें मिलने लगी है. लेकिन दूसरी तरफ हमारे व्यक्तित्व के लिए ढेर सारी नकारात्मक चीजों को खतरनाक तरीके से प्रोत्साहन नहीं तो सहयोग तो दिया ही जा रहा है.

भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, जबरन वैश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी, छेड़खानी, यौन शोषण का तेजी से बढ़ता ग्राफ हमारा जीना नरक बना रहा है. कौन कब, कहां और कैसे हमें अपना निवाला बना लेगा हम लड़कियां/औरतें इसी डर में जीते हुए बढ़ रही हैं. हमारी दिमागी ताकत का बड़ा हिस्सा इस ‘बचने‘ की जुगत सोचते जाने में ही खर्च हो जाता है. जो दिमाग हम तकनीक, विज्ञान और रचनात्मकता में लगा कर इस देश को और आगे पहुंचा सकते थे वे दिमाग सिर्फ ‘शिकार होने से बचने‘ में ही खर्च हो जाता है. यह इस देश और गणतंत्र की बहुत बड़ी ‘क्षति‘ है जिसकी पूर्ति संभव नहीं. भविष्य में इस ‘क्षति‘ से खुद को बचाना और स्त्रियों को उनकी अस्मिता और वजूद का अहसास दिलाना इस गणतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है.

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

5 days ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

6 days ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

6 days ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago

विसर्जन : रजनीश की कविता

देह तोड़ी है एक रिश्ते ने…   आख़िरी बूँद पानी का भी न दे पाया. आख़िरी…

2 weeks ago