30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में जन्मे थे गीतकार शंकर शैलेन्द्र. उनका मूल गांव धुसपुर बिहार के आरा जिले में पड़ता है. उनके पिता केसरीलाल राव रावलपिन्डी के ब्रिटिश मिलिट्री हस्पताल में ठेकेदारी का काम किया करते थे. शैलेन्द्र का वास्तविक नाम शंकरदास केसरीलाल था. पिता के साथ रहने के कारण उन्हें अपने पैतृक गांव से अधिक जुड़ाव नहीं हो सका और उन्का शुरुआती जीवन रावलपिन्डी और मथुरा में बीता.
परिवार को मथुरा इसलिए आना पड़ा कि उनके पिता का कारोबार रावलपिन्डी में ठंडा पड़ गया था और मथुरा में शैलेन्द्र के ताऊ यानी केसरीलाल राव के बड़े भाई रहा करते थे. आर्थिक तंगी का दौर था जो मथुरा आकर और गहराया. उसके बावजूद शंकर शैलेन्द्र किसी तरह वहां से इंटर तक की पढ़ाई करने में कामयाब रहे. गरीबी का यह आलम था कि उनकी बहन बिना इलाज के चल बसी थी.
जस-तस पढ़ाई का सिलसिला पूरा हुस तो वे बंबई की राह लगे. वहां माटुंगा में रेलवे में उन्हें अप्रेंटिसशिप करने का मौका मिला. रेलवे की वर्कशॉप में खाली समय में वे कविता लिखा करते थे. वहां का काम निबटता तो वे सीधा प्रगतिशील लेखक संघ के दफ्तर में वक्त बिताने पहुंचा करते. यह दफ्तर पृथ्वीराज कपूर के ओपेरा हॉउस के ऐन सामने था और एक दिन इत्तफाक से उनकी मुलाक़ात राज कपूर से हो गई.
राज कपूर ने एक बार उनसे गीत लिखवाये तो फिर वे राजकपूर की मशहूर चौकड़ी का अभिन्न हिस्सा बन गए. इस टीम में इन दोनों के अलावा हसरत जयपुरी और शंकर-जयकिशन हुआ करते थे.
शैलेन्द्र के गीतों की संख्या करीब 800 है और उनमें से अधिकतर आज हिन्दी फिल्म संगीत की धरोहर माने जाते हैं. उनके गीत एक नौजवान देश के सपनों की आवाज़ थे.
शैलेन्द्र द्वारा लिखे गीतों में गहरा जीवन-दर्शन समाहित रहता है. उनके लिखे कुछ यादगार गीत ये रहे, जिनके लिए उन्हें बरसों-बरस याद जाता रहेगा – सजन रे झूठ मत बोलो, मेरा जूता है जापानी, किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, आवारा हूं, सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी और दोस्त दोस्त न रहा.
यह शंकर शैलेन्द्र ही थे जिन्होंने यह गीत भी लिखा था :
तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत पर यकींन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
अमर शहीद भगतसिंह को संबोधित उनके एक अत्यंत लोकप्रिय गीत की शुरुआत इस तरह होती है –
भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की!
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर उन्होंने ‘तीसरी कसम’ फिल्म बनाई जो बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप हुई जिसने उन्हें अन्दर तक तोड़ दिया. क़र्ज़ के बोझ से उपजी कुंठा और इसके कारण पड़ी शराब की लत के कारण कुल 46 साल की आयु में 14 दिसंबर 1967 को उनकी मृत्यु हो गई.
गुलज़ार ने शंकर शैलेन्द्र को याद करते हुए कहा था – “बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है. उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे.”
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