1968-69 का अल्मोड़ा शहर और उसकी शांत मॉल रोड जिस पर बड़े डाकख़ाने के निकट स्थित था, अल्मोड़े का प्रमुख मनोरंजन केंद्र – रीगल सिनेमा. उस समय रेडियो पर प्रसारित गिने-चुने कार्यक्रमों और फ़िल्मी गीतों के अलावा मनोरंजन का कोई सार्वजनिक सुलभ साधन नहीं था. रेडियो भी लाइसेंस-शुदा होता था और आम आदमी की पहुँच से दूर था. ऐसे समय में इस ऐतिहासिक थिएटर का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि इसके द्वारपाल से लेकर मैनेजर और मालिक सभी का बड़ा रुतबा था फिर भी मनोरंजन कर निरीक्षक इन महत्वपूर्ण हस्तियों को डराए रखता था.
(Remembering Regal Cinema Almora Uttarakhand)
पटालों का फर्श, टिन की बाहरी छत, भीतर लकड़ी और चटाई की फॉल्स सीलिंग, लकड़ी से निर्मित ख़ूबसूरत बॉलकनी, पर्दानशीन लेडीज़ क्लास वाला यह ऐतिहासिक भवन 1905 में बनाया गया था. तब यहाँ थिएटर संबंधी गतिविधियों के कारण इसे नाम दिया गया था “लच्छी रमा थिएटर”. जिन महाशय के नाम पर या याद में ब्रिटिश काल में इसका नामकरण हुआ उनके विषय में मुझे जानकारी नहीं है. हाँ यह सुना जाता था कि कभी गोरे इसके भूतल का नृत्य-कक्ष के रूप में इस्तेमाल किया करते थे.
यह सिनेमा हॉल मूक फ़िल्मों के प्रदर्शन का भी साक्षी रहा है. मूक फ़िल्मों को समझाने के लिए एक आदमी हाथ में एक छड़ी लेकर पर्दे के एक तरफ़ खड़े रहकर कलाकारों के परस्पर संवादों को अपनी तेज़ आवाज़ में समझाता था. उस समय पर्दे पर केवल तस्वीर दिखाई देती थी और किसी प्रकार की कोई आवाज़ नहीं होती थी. जब बोलती फ़िल्मों की शुरुआत हुई तो कलाकार ख़ुद बोलने लगे और जो व्यक्ति उनके लिए बोलता था उसकी भूमिका समाप्त हो गई. बोलना शब्द से ही सिनेमा हॉल “टॉकीज़” कहे जाने लगे. यह दौर श्वेत-श्याम फ़िल्मों का था. “क़िस्सा हातिम ताई” जैसी लंबी और दिन-रात चलने वाली फ़िल्में भी इस हॉल में देखी गईं.
इस सिनेमा हॉल की विशिष्टता थी इसकी अद्भुत बनावट और साज-सज्जा. निचली मंज़िल में आगे के आधे भाग में था सेकंड क्लास जिसमें लकड़ी की बेंचें लगी थीं. इसके पीछे का भाग जो बॉलकनी के नीचे स्थित था फर्स्ट क्लास कहलाता था. मोटर रोड से लगी ऊपरी मंज़िल में पीछे की ओर सबसे महंगा क्लास था – बॉलकनी. इसी बॉलकनी से आगे दोनों ओर दीवारों से लगते हुए केवल एक सीट की चौड़ाई वाला क्लास होता था जिसके एक ओर दीवार और दूसरी ओर लकड़ी की ख़ूबसूरत रेलिंग और उसके ऊपर लगे परदे होते थे. यह था स्पेशल लेडीज़ क्लास और इसमें पर्देदारी का विशेष प्रबंध था. ज्यों ही फ़िल्म शुरु होती इस क्लास के रेलिंग की ओर लगे पर्दे स्वतः ही हट जाते और इंटरवल होने या किसी व्यवधान होने पर या फ़िल्म की समाप्ति पर ये पर्दे पुनः खिंच जाते. यह प्रबंध उस समय की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार था.
(Remembering Regal Cinema Almora Uttarakhand)
पहले तो महिलाओं के लिए फ़िल्म देखना ही प्रतिबंधित था बाद में महिलाओं की सुविधा और निजता को बनाए रखने के उद्देश्य से यह स्पेशल लेडीज़ क्लास बनाया गया था. इस क्लास की रेलिंग से नीचे की ओर झांक कर सेकंड और थर्ड क्लास के दर्शकों के उत्पात का आनंद लिया जा सकता था. इस क्लास में सीट ख़ाली रहने पर बच्चों को यहाँ बैठा दिया जाता था. पुराने समय में थर्ड क्लास का मतलब था फर्श में बिछाई गई दरी या चटाई पर बैठना जो बाद में सेकंड क्लास में ही शामिल हो गया. सामान्य लोगों के लिए सबसे सस्ता, सुविधाजनक और अधिक सीटों वाला सेकंड क्लास ही था. मेरे बचपन के समय में इसका टिकट मूल्य था 87 नए पैसे जिसमें 50 पैसे प्रवेश शुल्क और 37 पैसे मनोरंजन कर होता था. कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय हर शो की कमाई का लगभग आधा भाग सरकार को प्राप्त होता था. शराब का प्रचलन न के बराबर था और इस मद में बहुत कम राजस्व प्राप्ति होती थी.
साठ के दशक में रंगीन फ़िल्मों का दौर शुरू हो चुका था इससे फ़िल्मों के प्रति लोगों का आकर्षण और अधिक बढ़ गया था. रंगों के भी अलग-अलग नाम थे जैसे ईस्टमैन कलर, गेवा कलर, फ्यूज़ी कलर, टेक्नी कलर आदि लेकिन आम आदमी फ़िल्म को ब्लैक एंड व्हाइट और रंगीन के रूप में ही जानता था. फ़िल्म के प्रचार के लिए बाज़ार की दुकानों और कुछ ख़ास स्थानों पर पोस्टर लगाए जाते थे. कुली की पीठ पर फ़िल्म का एक लंबा पोस्टर जो आजकल के फ्लेक्सी जैसा होता था घुमाया जाता था. इसके आगे चलने वाले व्यक्ति के एक हाथ में घंटी और दूसरे हाथ में भोंपू होता था जिससे वह घोषणा करता चलता था – देखिए आज शाम रीगल सिनेमा में फ़िल्म “रातों का राजा” जिसमें कलाकार हैं… इसके अतिरिक्त हॉल के सड़क की ओर वाले बाहरी भाग में संबंधित फ़िल्म के फ़ोटो लगे होते थे. उस समय प्रचार का यह अद्भुत तरीक़ा था.
पुराने समय में केवल दो ही शो होते थे – ईवनिंग शो 6 से 9 और नाईट शो 9 से 12 लेकिन मेरे बचपन में (साठ के दशक में ) मेटिनी शो यानी दोपहर का सिनेमा शुरू हो चुका था जो डेढ़ या दो बजे से शुरु होता था. उस समय रीगल सिनेमा दोपहर एक बजे से रात एक बजे तक अल्मोड़े का एक मुख्य चहल-पहल और रौनक़ वाला स्थान हुआ करता था. जब यहाँ फ़िल्म “तलाश” प्रदर्शित की गई थी जो उस समय की ओ पी रल्हन निर्देशित सबसे महँगी रंगीन फ़िल्म थी (एक करोड़ की लागत से बनाई गई थी), तब इस सिनेमा हॉल और इसके सामने मॉल रोड को झंडियों और बिजली की रौशनी से दुल्हन की तरह सजाया गया था. उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि आदमी की ज़िन्दगी की तरह मनोरंजन का यह मुख्य केंद्र एक दिन अपनी मौत ख़ुद ही मर जाएगा.
(Remembering Regal Cinema Almora Uttarakhand)
इस सिनेमा हॉल का जोड़ीदार था मुरलीमनोहर सिनेमा जो इसकी सीध में इससे ऊपर पल्टन बाज़ार में स्थित था. ख़ज़ान चंद की सीढ़ी इन दोनों सिनेमा हॉल को एक दूसरे से जोड़ती थी. कभी-कभी तो दोनों हॉल में एक ही फ़िल्म प्रदर्शित हो जाती थी. पहली रील जो रीगल में चल चुकी होती उसे एक कर्मचारी अपने कंधे पर रखकर मुरलीमनोहर में पहुँचा देता, दूसरी रील पहुंचाते ही पहली रील वापस आ जाती इस प्रकार यह सिलसिला लगातार चलता रहता था. “ मेरा नाम जोकर” और “हाथी मेरे साथी” जैसी फ़िल्में दोनो हॉल में एक साथ दिखाई गई थीं.
1950 में हिंदी के प्रसिद्ध लेखक यशपाल जी अल्मोड़ा प्रवास पर थे और उन्होंने इस सिनेमा हॉल में न केवल फ़िल्म देखने का आनंद लिया बल्कि अपनी एक कहानी में भी इस सिनेमा हॉल से निकलने वाली भीड़ में से अपना एक पात्र चुना. नाईट शो के छूटने पर जो भीड़ निकलती थी उसकी सुविधा के लिए पान-सिगरेट-बीड़ी की दुकानें रात एक डेढ़ बजे तक खुली रहती थीं. लाला बाज़ार में बंसल गली तिराहे पर स्थित थी पान की दुकान – शिब्बन पान भंडार, जो रात में ढाई बजे तक खुली रहती थी. इस दुकान में लिखा रहता था “शिब्बन के बांग्ला पान-अल्मोड़े की शान” रीगल सिनेमा में ऐसा कोई नारा तो नहीं लिखा था लेकिन यह वास्तव में अल्मोड़े की शान था. पिथौरागढ़, बागेश्वर से भी तब लोग यहाँ फ़िल्म देखने आते थे.
नैनीताल की तरह यहाँ फ़िल्म रिलीज़ होते ही नहीं पहुँच पाती थी और दिसंबर-जनवरी में तो पुरानी फ़िल्में दिखाई जाती थीं. फ़िल्म का प्रिंट केएमओ की बस से रेलवे आउट एजेंसी (केएमओ स्टेशन के भूतल में स्थित थी) पहुँचता था जहाँ से कुली की पीठ पर सवार होकर, हॉल के पिछले भाग में बने ऑपरेटर के कक्ष तक पहुँचता था. आर्कलैम्प की रौशनी से फ़िल्म बड़े परदे पर प्रदर्शित होती थी जिसमें कार्बन जम जाने से रूकावट आ जाती थी फिर होहल्ला, गाली-गलौज और सीटीबाज़ी होती और फिर फ़िल्म चलने लगती. सेकंड क्लास में अलग-अलग सीट न होकर लकड़ी की एक बेंच में कई लोग बैठते थे. इस तरह जो जहाँ बैठ गया वही उसकी सीट हो जाती थी. सीट पर रुमाल रख कर उस पर अपना क़ब्ज़ा घोषित करने जैसी घटनाओं से कभी-कभी तू-तू, मैं-मैं हो जाती तो कभी मारपीट तक की नौबत आ जाती. मनोरंजन केवल फ़िल्म-प्रदर्शन से नहीं होता था बल्कि इससे जुड़ी सभी घटनाओं, क्रिया-प्रतिक्रिया, टिकट प्राप्ति का संघर्ष, ब्लैक में टिकट ख़रीदने-बेचने जैसी बातों से भी ख़ासा मनोरंजन हो जाता था.
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आज यह जीर्ण-शीर्ण भवन अपनी उपेक्षा और विनाश को देख अपने सुनहरे भूत की यादों में खो गया प्रतीत होता है मानो कह रहा हो –
लगता नहीं है दिल अब इस उजड़े दयार में
*आलम-ए-नापायेदार – क्षणभंगुर संसार
किसकी बनी है ज़फ़र इस आलम-ए-नापायेदार* में
पूर्व बैंक अधिकारी मोहम्मद नाज़िम अंसारी इतिहास की गहरी समझ रखते हैं. यह लेख उनकी फेसबुक वाल से साभार लिया गया है. पिथौरागढ़ के रहने वाले मोहम्मद नाज़िम अंसारी से उनकी ईमेल आईडी mnansari@ymail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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बहुत फिल्में देखी हैं यहाँ एक ज़माने में। मैं 1992 - 94 में राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज छात्रावास में रहता था। कॉलेज या हॉस्टल से भागकर रीगल या जागनाथ सिनेमा जाया जाता था। अक्सर डांट और मार भी खाई इस चक्कर में, लेकिन मूवी तै देखनी ही रहती थीं सो देखते थे। रीगल बिल्डिंग में तो एक रेस्तरां भी था जिसके मालिक के बेटे जग्गू भाई से ठीकठाक दोस्ती थी हम लोगों की।
दुखद है इस शानदार इमारत को इस खण्डहर रूप में देखना। जागनाथ भी सुनते हैं बन्द हो चुका है।
खैर परिवर्तन ही नियम है। एक दिन सब खत्म हो ही जाता है नये को जन्म देने के लिये।