भारत की आज़ादी के बाद की शुरुआती दो पीढ़ियों के लिए इब्ने सफ़ी एक नाम से कहीं बढ़ कर हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में जासूसी उपन्यास लिखने के मामले में वे सबसे अव्वल हैं. उन्हें भारत और सरहद पार पाकिस्तान में वही शोहरत हासिल हुई जो यूरोप में अगाथा क्रिस्टी और अर्ल स्टेनली गार्डनर के हिस्से आई. इब्ने सफ़ी का असली नाम था असरार अहमद. उन्होंने ‘जासूसी दुनिया’ और ‘इमरान सीरीज’ में तकरीबन 250 जासूसी उपन्यास लिखे. उनकी ख्याति उपमहाद्वीप के बाहर भी ऐसी फैली कि खुद अगाथा क्रिस्टी ने एक बार कहा –“ मैं उर्दू नहीं जानती लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के जासूसी उपन्यासों की मुझे जानकारी है. वहां सिर्फ़ एक ही ओरिजिनल लेखक है – इब्ने सफ़ी.” (Remembering Detective Novelist Ibne Safi)
वर्तमान उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के नारा गांव में आज ही के दिन यानी 26 जुलाई 1928 को इब्ने सफ़ी ने जन्म लिया. माँ-बाप का नाम था नुज़ैरा बीबी और सफ़ीउल्लाह. इलाहाबाद से स्कूली पढ़ाई के बाद उन्होंने आगरे से बीए किया और बाद में इस डिग्री को अपने नाम के आगे स्थाई रूप से चिपका लिया – इब्ने सफ़ी, बीए. अपने साहित्यिक लेखन की शुरुआत उन्होंने कहानियां लिखने से की. वे सातवीं में पढ़ते थे जब उनकी पहली कहानी ‘नाकाम आरज़ू’ विख्यात उर्दू पत्रिका ‘शाहिद’ में छप गयी. (Remembering Detective Novelist Ibne Safi) इस घटना को अपने शब्दों में उन्होंने इस तरह बयान किया है:
‘‘फिर एक दिन मैने भी एक कहानी लिख डाली. ये उस वक़्त की बात है जब मैं सातवीं जमात में था. ये अफ़साना मैने हफ़्ता रोज़ा‘शाहिद’ बम्बई में छपने के लिए भेज दिया. जनाब आदिल रशीद इस जरीदे के एडीटर थे. उन्होने मुझे कोई मुअमर (बड़ा) आदमी समझकर कुछ इस तरह मेरा नाम कहानी के साथ शाया किया था – ‘नतीजा-ए-फिक्र, मुसव्विर-ए-जज़्बात हज़रत असरार नारवी.’
कहानी छपते ही मेरी शामत आ गई. घर के बड़ों ने कुछ इस अंदाज़ में मुख़ातिब करना शुरू कर दिया – ‘अबे ओ मुसव्विर-ए-जज़्बात ! ज़रा एक गिलास पानी लाना.’
वक़्ता-फ़-वक़्ता ‘शाहिद’ वीकली में मेरी कहानियां छपती रहीं. ज़्यादातर रूमानी कहानियां होतीं. मेट्रिक तक पहुंचते-पहुंचते शायरी का चस्का लग गया. ’’
शायरी के चस्के के हवाले से यहाँ-वहां उनकी कुछ रचनाएँ असरार अहमद नारवी के नाम से छापी गईं. जब 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हुई तो अपने दुःख को अभिव्यक्ति देते हुए उन्होंने लिखा:
लौ-एं उदास, चराग़ों पे सोग़ तारी है
आज की रात इंसानियत पे भारी है
सन 1948 में उन्होंने मित्रों की सलाह पर हास्य व्यंग्य लिखना शुरू किया. अपने साथियों शकील जमाली और अब्बास हुसैनी के साथ उसी साल उन्होंने ‘निकहत’ नाम से एक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद से ही शुरू किया. इस रिसाले के लिए उन्होंने तमाम कहानियां, किस्से और पैरोडियाँ लिखे.
उनके सम्पादन में ‘निकहत’ निकल ही रही थी जब 1952 में उन्होंने एकदम नई विधा यानी जासूसी उपन्यास लिखने में हाथ आजमाया और उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ उन्हीं की पत्रिका में शाया हुआ. उन दिनों वे इलाहाबाद के डीएवी स्कूल में अध्यापक हुआ करते थे. यह उपन्यास चल निकला और इब्ने सफ़ी, बीए हमारे उपमहाद्वीप में एक बेहद जाना-पहचाना नाम बन गया.
इब्ने सफ़ी नाम के पीछे कहानी यह है कि इब्न का मायना उर्दू में हुआ बेटा. इस में अपने पिता सफ़ीउल्लाह का नाम जोड़कर उन्होंने अपने लिए नया नाम रचा – इब्ने सफ़ी. पूरा नाम इब्ने सफ़ी, बीए.
सफ़ी ने अपने उपन्यासों में जासूसी उपन्यासों के सभी स्थापित यूरोपीय मानदंडों को शानदार तरीके से साधा और वे पाठकों के दिलों पर राज करने लगे. उनकी किताबें जब भी बाजार में आतीं उन्हें तरीके से गायब कर दिया जाता और ब्लैक में बेचा जाता. हिन्दी, बांग्ला और उर्दू के अलावा ये किताबें तमाम भाषाओं में अनूदित होकर छपा करती थीं.
इब्ने सफ़ी के इन जासूसी उपन्यासों के पात्र अमरीका, फ़्रांस, इटली, अफ्रीका और न जाने कितने-कितने मुल्कों में दुनिया भर में घूमते थे अलबत्ता खुद वे कभी भी भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर नहीं गए. जब उनसे पूछा जाता था कि क्या उन्होंने वे सारे देश देख रखे हैं तो उनका मुख़्तसर सा जवाब आता – ‘‘मेरी चारपाई मुझे सब जहानों की सैर करा देती है.’’ हैरानी की बात है कि उन्होंने इन तमाम देशों के तमाम शहरों की एकदम हूबहू डीतेलिंग पेश की है जैसे वे वाकई में हैं या थे.
उनके उपन्यासों में इस कदर सटीक तफसीलें हुआ करती थीं कि पाकिस्तानी खु़फ़िया एजेन्सी आई एस आई ने अपने जासूसों को उनके पास ट्रेनिंग लेने भेजा.
उनकी लिखने की रफ्तार अकल्पनीय थी – शुरू में उन्होंने हर महीने दो दो नावेल लिखे और उसके बाद अपने अंतिम अट्ठाईस सालों में हर महीने एक.
इब्ने सफ़ी 1952 तक इलाहाबाद में रहे लेकिन फिर कुछ ऐसे हालात पैदा हुए कि उन्हें हिंदुस्तान छोड़ पाकिस्तान जाना पड़ा. वहां वे पहले कुछ बरस लालूखेत में रहे और उसके बाद कराची. कराची में भी उन्होंने ‘जासूसी दुनिया’ के सिलसिले को टूटने नहीं दिया और अपना एक प्रकाशन – असरार पब्लिकेशंस – शुरू कर दिया.
1960 में इब्ने सफ़ी स्कित्जोफ़्रेनिया के शिकार हुए और अगले तीन साल तक उन्हें अपना इलाज कराना पड़ा. 1963 में वे पूरी तरह ठीक हो कर घर वापस आये तो ‘जासूसी दुनिया’ ने इस खबर को यूँ छापा:
‘‘जासूसी दुनिया के लाखों क़ारईन (पाठकों) के लिए – अज़ीम मुसनिफ़ मुहतरम इब्ने सफ़ी ख़ुदा के फ़ज़लो-करम से अब बिल्कुल सेहतमंद हैं और मुआलजा (डाक्टरों) की हिदायत के मुताबिक़ सिर्फ चंद दिनो के लिए मुकमिल आराम फ़रमा रहे हैं. इसके बाद वह बहुत जल्द अपना नया शाहकार ‘डेढ़ मतवाले’ पेश करेंगे. मुहतरम इब्ने सफ़ी के इस नए, लाफ़ानी और तहलकाख़ेज़ शाहकार के लिए तैयार रहिए.’’
जब ‘डेढ़ मतवाले’ प्रकाशित हुआ तो इलाहाबाद में एक बहुत बड़े समारोह में इसका विमोचन तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने किया. अगले सोलह बरस तक वे लगातार लिखते रहे लेकिन सितम्बर 1979 को पता चला उन्हें पैनक्रियाटिक कैंसर हो गया है.
ठीक अपने 52वें जन्मदिन यानी 26 जुलाई 1980 के दिन इब्ने सफ़ी ने अपनी आख़िरी साँसें लीं.
अपने आख़िरी वक़्त में भी वे अपने उपन्यास ‘आख़िरी आदमी’ पर काम कर रहे थे जो अधूरा ही रह गया.
इधर इब्ने सफ़ी को बहुत सालों बाद फिर से खोजे जाने की जरूरत महसूस हो रही है. उनके उपन्यासों को नए कलेवर में छापा जा रहा है, उनकी किताबें ऑनलाइन बिक रही हैं और उन पर जलसे करवाए जा रहे हैं. साल 2007 में भारतीय साहित्य अकादमी ने इब्ने सफ़ी के काम को सेलीब्रेट करते हुए एक बड़ा आयोजन किया था.
इब्ने सफ़ी ने अपने लेखन से लाखों-लाख लोगों को लम्बे समय तक गुदगुदाया है, रोमांचित किया है और एक मीठे नोस्टाल्जिया से तर किया है. उनकी किताबों को ढूंढ खोज कर पढ़ा जाना ही उनके लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगा.
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इस लेखक का तो नाम ही पहली बार सुन रहा हूं। नेट पर कुछ मिलता है तो देखता हूं।