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कुछ यों होती थी हमारे बचपन की रामलीला

वो भी क्या दिन थे? कोई 12-13 बरस की उमर रही होगी. रामलीला हमारे गांव से 5 मील दूर भवाली में हुआ करती. भवाली की रामलीला की क्षेत्र में अपनी अलग पहचान थी. रोज- रोज तो नहीं पूरी रामलीला के दरम्यान एक या दो रात की रामलीला देखने का हमें मौका मिलता. पंचमी की रामलीला में शूर्पनखा प्रसंग के अलावा अष्टमी अथवा नवमी की रामलीला देखने का ही सौभाग्य हमें मिलता. छुटपन में रामलीला के प्रसंगों से उतना वास्ता नहीं था, जितना रात में पैदल जाना और लौटना, बिजली की रोशनी में नहाये हुए इस छोटे से कस्बे को देखना तथा पौराणिक कथानक को समझने की ज्यादा समझ नहीं थी, रामलीला के विभिन्न कलाकारों के वस्त्र विन्यास, राम-रावण युद्ध के दृश्य ही हमें ज्यादा लुभाते. स्टेज पर क्या प्रसंग चल रहा है, इससे हमारा कोई लेना देना नहीं.
(Ramlila Memoir of Childhood)

जिस दिन रामली़ला देखने का कार्यक्रम बनता, उस दिन सुबह से ही उत्सुकता रहती, कब शाम ढले और हम रामलीला देखने के लिए घर से निकलें. शाम का खाना 4 बजे से ही बनने लगता और हम बच्चों को कहा जाता कि जंगल गये गाय-बच्छियों को समय से घर को हांक लायें. ताकि समय पर गायें दुहकर निकल सकें. आनन-फानन में हम दूर जंगलों से गायों को खदेड़ कर ले आते. संध्या काल के तुरन्त बाद भोजन कर जाने की तैयारी करने लगते. सालभर से इस दिन के लिए संभाले नये-नये कपड़े पहनते. तब नये कपड़ों की मांड़ की खुशबू भी हमें इत्र का सा अहसास कराती और लोगों को यह जताने के लिए भी काफी होती कि कपड़े अभी धुले भी नहीं एकदम नये हैं. बच्चे अमीर बाप के हों अथवा गरीब बाप के उस दौर में ़कपड़ो के मामले में कोई ज्यादा अन्तर नहीं होता.

हमारा घर गांव से एकदम अलग थलग था. इसलिए रात में घर छोड़कर निकलने से पहले मुख्य दरवाजा अन्दर से चिटकनी लगाकर बन्द कर दिया जाता और फिर बड़े ददा पिछवाड़े के छज्जे से कूदकर आते और मुख्य दरवाजे पर बाहर से शंगल चढ़ा देते. हमारा घर मेन हाईवे के पास था, तो भी रात के वक्त घर में ताला लगाने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई. तब हाईवे पर भी रात के वक्त इक्का -दुक्का ही ट्रक चला करते. जब इस रूट पर कोई ट्रक लौटने की बात परिचित ड्राईवर से दिन में कर ली होती तो उसी की प्रतीक्षां रहती अन्यथा पूरा परिवार पैदल ही निकल पड़ता. रास्ते में गांव के लोग मिल जायें ये अलग बात थी. पैदल निकलने पर हमारे पहुंचने तक रामलीला शुरू हो गयी होती थी, जब कि वाहन मिलने पर हम पहले ही पहुंच जाते और परिचित के घर पर प्रतीक्षा करने के बाद रामलीला देखने पहुंच जाते. बजरिये तो दिन से ही दरी-बोरे बिछाकर आगे की सीट घेर लेते, ग्रामीणों के हिस्से पीछे बची जगह ही रहती.

कस्बे में पहुंचते ही रोशनी से नहाता शहर ऐसा लगता मानो हम किसी दूसरी दुनियां में प्रवेश कर गये हों. हमें रामलीला देखने के साथ मॅूगफलियां थमा दी जाती. मॅूगफली ठॅूगते हुए रामलीला का आनन्द लेना बड़ा शुकून देता. हालांकि रामलीला में कौन सा प्रसंग चल रहा और क्या पौराणिक कथानक का बखान हो रहा, हमारा ध्यान इस पर न होकर पात्रों की साजसज्जा, स्टेज पर लटकते पर्दों के चित्र तथा उनके वस्त्राभूषणों पर रहता. हां! बीच बीच में जोकर की घुसपैठ जरूर अपनी ओर आकर्षित करती.
(Ramlila Memoir of Childhood)

रात के करीब साढ़े बारह अथवा एक बजे तक रामलीला समाप्त होती. फिर रात में ही घर वापसी होती. जंगल के बीच से गुजरते रास्ते में हमें जंगली जानवरों का कतई भय नहीं रहता. भय रहता उन कल्पित भूतों का, जिनके बारे में घर के बड़े लोगों से यदा कदा किस्से सुने थे. वे सारे किस्से सजीव हो जाते और बच्चे घर के सयाने लोगों के बीच होकर चलते. रास्ते में एक श्मशान घाट भी पड़ता, लेकिन हमें यहां से गुजरते डर नहीं लगता. डर लगता तो गोरा कब्र के पास से गुजरने में. लोग बताते कि कभी गोरों की सेना ट्रक इस चट्टान से दुर्घटनाग्रस्त हुआ था और उन गोरों को वहीं कब्र बनाकर दफन कर दिया गया था. इसलिए नाम गोरा कग्र पड़ा. लोग बताते कि यहां से गुजरते वक्त एक गोरा बूटों की आवाज के साथ पास से गुजरता है और हर आने-जाने वाले से सिगरेट मांगता है. खैर! हमारे साथ तो ऐसी घटना कभी नहीं घटी, लेकिन भय मन में बैठ चुका था, उससे उबरना आसान न था.

कुछ लड़के तख्तों की मदद से बॉल बियरिंग के पहिये लगाकर तिपहियां गाड़ी साथ लाते, जिसे आते समय तो कन्धे पर लादकर अथवा रस्सी से घसीटकर लाया जाता लेकिन लौटते समय ढलान होने के कारण चार-पांच लोग बैठकर इसमें सरपट भाग जाते. हमें उनके भाग्य पर ईष्र्या होती.

खैर! चांदनी की रोशनी में हम पैदल ही सफर तय कर रात के 3-4 बजे घर पहुंचते. उन दिनों दशहरे की लम्बी छुट्टियां स्कूलों में हुआ करती. इसलिए सुबह स्कूल जाने का कोई टेंशन नहीं रहता और सुबह 10-11 बजे से पहले नहीं उठ पाते.

आज के बच्चों के पास सारी सुविधाऐं उपलब्ध होने के बावजूद न उनमें रामलीला देखने का शौक रहा और न वैसा माहौल. काश! वे दिन पुनः लौट आते.
(Ramlila Memoir of Childhood)

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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