सबकुछ सायास है वैधानिक गल्प में. उसके इस तरह से होने पर बहस होनी चाहिए क्योंकि जान बूझकर किसी घटना, व्यक्ति या विचारधारा को उजागर करने के उद्देश्य के लिए बुनी गयी चीज़ में वो मात्रा सबसे निर्णायक होती है जो उस घटना, व्यक्ति या विचारधारा को खोलने के लिए गढ़ी गयी व्याख्या में `सच’ की होती है. लेखक की वैचारिकी स्पष्ट है, उसकी प्रतिबद्धतता साफ़ दिखती है. उसकी लिखाई में कहीं कोई पर्दा नहीं है. न तो इस उपन्यास में न ही इसके इतर उसके रचनाकर्म में. इस लिहाज़ से उसके लिए कसौटी कड़ी होनी चाहिए. इसे इस लिहाज से पढ़ा जाना चाहिए कि वैचारिकी के निबाह में कहीं वास्तविकता से समझौता तो नहीं हो गया है? इसे उस मात्रा को जानने के लिए पढ़ा जाना चाहिए कि इसमें विधि कितनी है और गल्प कितनी? (Book Review of Vaidhanik Galp)
उपन्यास का रचनाकाल क्या है? ये प्रश्न इसलिए महत्व का है क्योंकि उपन्यास पूरी ताकत के साथ विधा के प्रचलित प्रतिमानों से जूझता दिखता है जिसमें मानव जीवन के शाश्वत, दीर्घ और सार्वकालिक प्रश्नों की उपस्थिति भी एक स्थापित प्रतिमान है. उपन्यास इसी काल का है, वर्तमान का, आज का, बिलकुल अभी-अभी का. लेकिन इसमें आज के ‘आज’ के साथ कल के ‘आज’ का भी होना ही इसकी ताकत है. जिस तरह से आज के ‘आज’ में देश, काल और परिस्थितियों का दखिन मुखी हो जाना एक सच है हज़ार ‘लेकिनों’ के बावजूद, उसी तरह से दक्षिणपन्थ का हर देश, काल और परिस्थिति में उपस्थित रहना भी एक सच है उन्ही सब लेकिनों के बरक्स.
कहानी छोटी सी है लेकिन उसका अर्थ-विस्तार बड़ा है. एक छोटे से शहर से कुछ ऐसे लोग एक-एक करके गायब होने लगते हैं जो अपने सांस्कृतिक-साहित्यिक कार्यों से व्यवस्था की मुखालिफत करते रहे हैं. अपने इसी पूर्व वाक्य में उसका कारण भी छुपा हुआ है, बताने की ज़रुरत नहीं है. लेखक ने उसे विस्तार दिया भी नहीं है. वो `कारणों’ के उन अँधेरे ब्योरों में न जाकर परिस्थितियों के अँधेरे में ज़्यादा भटकते दिखते हैं. ये सही भी है. कारण सभी को पता हैं और स्थिति की भयावहता इतनी ज्यादा है कि उसे विस्तार देने का कोई औचित्य भी उन्हीं `लेकिनों’ की शक्ल में आता है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है.
कथासूत्र पकड़ने में आपको दिक्कत नहीं होगी अगर आप अख़बारी ख़बरों के पार देख सकने में सक्षम हैं, या कम-अज-कम देखने की इच्छा रखते हैं. कथासूत्र पकड़ने के बाद एक समूचे व्यक्ति के गायब हो जाने को एक साधारण गुमशुदगी समझने वाला आपका गढ़ा-गढ़ाया संस्कार दरकने लगता है. आप कथा वाचक के साथ उस छोटे से शहर में परेशान घुसते हैं और व्यवस्था के सबसे प्रदर्श अंग `पुलिस’ की कार्य शैली से अचकचाने लगते हैं.
हालांकि थाने के पुलिसवाले आपके गढ़े हुए संस्कारों में कोई विचलन नहीं करते तथापि आप एक बारगी कहानी का समयकाल दुबारा चेक करते हैं. अभी-अभी की कोई घटना, आज-आज की पुलिस. कहानी में चंदन पांडे की उपस्थिति वस्तुतः पार्टी प्रकरण से होती है, उपन्यास की भाषा के सम्बंध में एक विशेष बात भी यहीं उपस्थित होती है. भाषा वक्र होने लगती है और कहानी का दबाव बढ़ जाता है, क्योंकि अब लगने लगता है कि आप एक सच हो चुकी घटना के बारे में गल्प में हैं.
उपन्यास का दूसरा खूबसूरत और कहन के हिसाब से निर्णायक मोड़ आता है जब अर्जुन रफ़ीक़ की डायरी, स्क्रिप्ट और अन्य दीगर कागजात, पन्ने-पन्ने पूरे कमरे में फैलाता है. ऐसा लगता है कि जैसे चिंदी-चिंदी, रपट-रपट वर्तमान, सूखने के लिए डाल रखा हो. मेरे लिए वो सबसे सख़्त और सर्द वक्फा है पूरी किताब का. हालांकि मेरी बहुत कम पढ़त में और हल्की यादाश्त में कुछ कहीं इसी तरह का पढ़ा याद आता है, पर कहाँ, ये नहीं याद आता. दरअसल पूरी कहानी कहीं पढ़ी याद आती है. इस कथा का गल्प होना सुकूनदायक होता अगर अपने आस-पास इसके घटित होने के प्रमाण अनुपस्थित होते. किसी रपट में, किसी ख़बर में, किसी सूचना में, कहीं न कहीं इससे रोज़ सामना हो रहा है. मैं किसी एक घटना की ओर इशारा नहीं करूंगा, और मेरा मानना है लेखक भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. उसकी नज़र में भी ये पूरा वर्तमान परिदृश्य है जिसमें एक जैसी शक्ल की घटनाएं जुड़ती जा रही हैं. (Book Review of Vaidhanik Galp)
उपन्यास का अंत उस सच को उधेड़ कर रख देता है जो वास्तव में कहानी में पाठक के लिए पहले ही खुला पड़ा था. एक तरह से ढीले पड़ गए उतरते हुए मुखौटे को नोच देने के जैसा. उपन्यास का अंत कहानी का अंत नहीं है. कहानी का अंत शायद हो भी नहीं सकता था. लेखक ने किया भी नहीं है. अगर आप वर्तमान की कुछ घटनाओं के सिरे पकड़ें तो कुछ इस तरह के अंत ही हासिल होते हैं.
शासन-पुलिस-प्रशासन, मीडिया और राजनीति के गठजोड़ का ठंडा और शातिर चेहरा उपस्थित है उपन्यास के पूरे वितान पर. इस मौजूं पर यह पहला उपन्यास नहीं है. इस गठजोड़ से सब वाकिफ़ हैं इसलिए ऐसा क्या नया है जो लेखक बताने आया है? कथ्य के हिसाब से इस किताब को एक कड़े टेस्ट से गुजरना होगा.
उपन्यास की भाषा के सम्बंध में मुझे दो बातें कहनी हैं. कहानी कहने वाला, अगर उसे नायक कह सकें तो, नायक एक लेखक है और किसी प्रकाशन संस्थान में नौकरी करता है. उसकी भाषा उतनी ही परिष्कृत है जितनी एक लेखक की हो सकती है. चौंकाने वाली बात लेकिन दूसरी है. रफ़ीक़ की भाषा और कथा वाचक की भाषा एक जैसी है.
दूसरी बात. भाषा, कहानी को उपन्यास बना सकने वाले उपादानों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है. यहाँ भाषा को इसी लिहाज़ से बरतने का प्रयास भी है क्योंकि अन्य उपादानों का इस्तेमाल बहुत नगण्य है. उपन्यास में एक निश्चित काल खण्ड को उभारने का प्रयास इतना ज्यादा और सायास है कि रचना तात्कालिकता का बोझ उठाए दिखती है. ऐसे में कहानी में रचा गया नाटक हो, कल-परसों-पिछले महीने की घटना हो या खुद रफ़ीक की डायरी, कुछ भी `था’ नहीं है, सिवाय लेखक और अनसूया के माज़ी के जोकि कार्य-कारण सम्बन्धो के एक ज़रूरी पुल के रूप में इस्तेमाल किया गया है. समीक्षा की पिटी-पिटाई बात दुहराऊं तो यही चंदन की सामर्थ्य भी है और सीमा भी. (Book Review of Vaidhanik Galp)
यहाँ भाषा के सम्बंध में एक और बात सूझती है. आप इसे तीसरी बात भी कह सकते हैं. (उपन्यास की भाषा में इसी तरह के विन्यास हैं, जैसे कि ये अभी कही गयी बात.) वो बात ये है कि वर्तमान और माज़ी का, कहानी और कहानी के अंदर चल रही स्क्रिप्ट का, सच और सच की परतों का गुम्फन इस तरह का हो जाता है कि वाचक रफ़ीक़ बन जाता है रफ़ीक़ नियाज़ और नियाज़ लेखक स्वयं. दरअसल ये किताब ये भी सुझाती है कि आने वाले समय में तकनीक और विज्ञान शायद वहाँ पहुंच जाए कि पाठक अचानक कथानक का हिस्सा बन जाए… उपस्थित हो जाए… बोलने लगे जाए! इस उपन्यास का कथ्य और शिल्प दोनों इस तरह का है कि आप किसी रपट की तरह पढ़ना शुरू करते हैं, किसी घटना की तफ़सील की तरह समझने लगते हैं और किसी नाटक के किरदार की तरह शामिल हो जाते हैं. इस गल्प का स्वागत किया जाना चाहिए.
उपन्यास: वैधानिक गल्प
लेखक: चंदन पांडेय
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन समूह
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…
सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…
राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…