समाज

राजी जनजाति : परम्पराएँ व रहन-सहन

वनरौत को ले कर वैसे तो कई कहानियां हैं लेकिन पूर्वजों द्वारा सुनाए गए किस्सों व किमखोला के राजी समुदाय से हुई बातचीत के अनुसार —वर्षों पहले अस्कोट के राजा के दो बेटे थे, एक बार जब दोनों भाई जंगल में शिकार करने गए तो बड़े भाई द्वारा अनजाने में एक गाय की हत्या हो गयी.इस के बाद उसे बहुत आत्मग्लानि हुई और उसने यह निश्चय किया कि वह पश्चाताप करने के लिए अपना शेष जीवन जंगल में ही यापन करेगा. अस्इकोट के राजा के इसी बेटे के वंशज वनरौत या वनरावत कहलाये. (Raji Tribe Traditions and Living)

सत्यता चाहे जो भी रही हो लेकिन राजी जनजाति में स्वाभिमान, राजसी आन, जंगलों के प्रति लगाव और वनों को कायम रखने का जज़्बा आज भी दिखाई पड़ता है.

संस्कृति

जंगलों से जुड़ाव के कारण ये प्रकृति प्रेमी हैं और देवताओं के रूप में प्रकृति को ही पूजते हैं. वृक्ष पूजा और भूमि पूजा इनके वहाँ अत्यधिक प्रचलित है. विगत कुछ वर्षों से यह लोग हिन्दू रीति-रिवाज़ के अनुसार भी त्योहार मनाने लगे हैं. काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

रहन सहन

पूर्व में वनरौत गुफाओं में रहते और मालू पत्तों के बने वस्त्र पहनते थे. आधुनिक समय में वहाँ की महिलाएं धोती या साड़ी और पुरुष पजामा या पेंट पहनने लगे हैं. अगर इनके परिवार में किसी की मृत्यु हो जाती तो वह उस स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान पर चले जाया करते थे. इनके कुछ परिवार आज भी साधारण ढंग की झोपड़ी या मिट्टी पत्थर के घर बनाकर रहते हैं. इनके अधिकतर परिवार इस समय इंद्रा आवास योजना के तहत बने घरों में रह रहे हैं.

खान पान

वनरौत का प्रिय भोजन मछली हुआ करता था और आज भी है. इसके अलावा जंगली जानवरों का शिकार व कन्द-मूल, फल भी इनका मुख्य आहार हुआ करते हैं परंतु बदलते समय के साथ ये लोग भी अब सब्जियां, फल, अनाज खाने और उगाने लगे हैं.

भाषा-बोली

राजी समुदाय की बोली पहाड़ी और हिंदी से भिन्न है, बोली के कुछ शब्द भोटिया बोली से मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं. इस बोली का अस्तित्व पर लुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है. नयी पीढ़ी अब आम बोलचाल में हिंदी का प्रयोग अधिक करने लगी है.

प्राचीन समय में वनरौत काष्ठ कला में पारंगत थे और लकड़ी के बर्तन बनाया करते थे. अन्य गांव के लोगों से उन बर्तनों के बदले अनाज प्राप्त कर लेते थे. पर वन नीति, कानून के तहत कड़े नियम लागू होने लगे तो इसका प्रभाव सीधे वनरौतों की जीवन चर्या पर होने लगा. लकड़ी की जगह स्टील, प्लास्टिक ,कांच के बर्तनों ने ले ली है. उपयोगिता में कमी के कारण अब इन लोगों ने भी इस काम को लगभग समाप्त ही कर दिया है.

पूर्व में वनरौत पशुपालन नहीं किया करते थे, परन्तु जब से सरकार द्वारा इन्हें एक स्थान में स्थायी तौर पर बसाया गया तो ये खेती के साथ पशुपालन, जैसे गाय, बैल, बकरी, मुर्गी करने लगे.

विवाह संस्कार

वनरौतों बताते हैं कि पुराने समय में यदि लड़का और लड़की एक दूसरे को पसंद करते थे तो अपने माता-पिता के पास तरुण का फल खोद कर ले जाने का रिवाज़ था. वे इसे पकाकर साथ में खाते और माता-पिता से आशीर्वाद ले कर जीवन व्यतीत करते थे, वर्तमान में समुदाय अपनी इस परंपरागत विवाह की प्रथा को छोड़ चुका है. कुछ परिवार तो आज के समाज से इतने प्रभावित हैं कि वे सामान्य प्रचलित हिन्दू रीति-रिवाज़ के अनुसार विवाह करने लगे हैं.

अंतिम संस्कार

परिवार में किसी की मृत्यु होती थी तो ये लोग उस स्थान की छत तोड़कर अन्य स्थान पर चले जाते थे. उनके मन में डर की भावना रहती थी और साथ ही वे यह भी मानते थे कि मृत्यु वाला घर अशुद्ध हो जाता है. आधुनिक समय में विवाहित मृतक को जलाया और अविवाहित को दफन करने की परम्परा है.

आधुनिक समय में वनरौतों की जीवनशैली में बदलाव और सुधार

आधुनिक समय में वनरौत लकड़ी बेचकर गाय ,बकरी ,बैल, मुर्गी पालकर व कृषि करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं और वहाँ की महिलाएं भी अत्यधिक कर्मठ और जुझारू होती है. दूरस्थ वन क्षेत्रों में रहने के कारण राजी समुदाय का शैक्षिक स्तर आज भी बहुत कम है. लेकिन राजी समुदाय में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपनी लगन और मेहनत से शिक्षा हासिल की है. ग्राम किमखोला निवासी जयसिंह प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने बलबूते उच्च शिक्षा हासिल की व वर्तमान में शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं.

पिथौरागढ़ में रहने वाली भूमिका पाण्डेय समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की छात्रा हैं. लेखन में गहरी दिलचस्पी रखने वाली भूमिका पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज की उपाध्यक्ष भी रह चुकी हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: बदलते ज़माने में पहाड़ की महिलाओं के हालात कितने बदले

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

3 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

5 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

5 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago