राहुल सांकृत्यायन याद रखते हुए हम आपको उनकी लिखी कुछ चुनी हुई रचनाओं से परिचित करवाने जा रहे हैं. इस क्रम में आज पढ़िए राहुल सांकृत्यायन के हिमालय समाज, संस्कृति, इतिहास तथा पर्यावरण पर केन्द्रित लेखों में से नैनीताल पर लिखा एक लेख. यह लेख पहाड़ पत्रिका से साभार लिया गया है – संपादक
डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार से पहले ही पत्र-व्यवहार हो चुका था. वह भी हमारे आजकल आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, अर्थात् रामगढ़ के लिए हम निश्चिंत नहीं थे. नैनीताल का श्रृंगार वहां का ताल है, जो किसी पर्वतीय विलासपुरी में नहीं है. बस का अड्डा तल्ली (निचली) ताल में है. यहां भी बाजार है और बड़ा डाकखाना भी यहीं है. कुलियों पर सामान उठवाकर ताल को बाईं छोड़ते हम सड़क के आगे बढ़े. थोड़ी ही दूर आगे पहाड़ की ओर दुकानें और होटल शुरू हो गए. यहां सिनेमा भी है. ताल के परले छोर को मल्ली (उपरला) ताल कहते हैं. होटल में पहुंचने से पहले डॉक्टर साहब के जेष्ठ पुत्र श्री विश्वरंजन जी मिले. फिर डॉक्टर साहब भी आए. सामान गोदाम में और हम दोनों रहने के कमरे में चले गए. बंगला किराए पर लेना था. डॉक्टर साहब ने कहा, उसका मिलना मुश्किल नहीं होगा, देखकर ले लेंगे. हम वहां ठहर गए. पहली ही नजर देखने पर हमने लिख मारा – ‘निश्चय ही नैनीताल के सामने शिमला और दार्जिलिंग कुछ भी नहीं है.” साथ ही यह भी लिखा है- “कमी है, तो यही कि यह हिमालय के बाहरी क्षेत्र में है.” लेकिन, इससे भी बड़ी कमियां नैनीताल की मालूम हुई – यहां आदमी को मालूम होता है कि कुएं में है, जिसके किनारे पहाड़ की विशाल दीवार खड़ी हैं. दीवारों को ही देखा जा सकता है. हिमाच्छादित पर्वत- श्रेणियों को देखने के लिए सारी दीवार को फांदना पड़ेगा. वर्षा और पानी के कच्चे होने की भी शिकायत की जाती है, मैं उसको नहीं मानता.
शाम को टहलने तल्ली ताल तक गए. रास्ते में ही ताल से म्युनिसिपल लाइब्रेरी थी, जिसके पुस्तकाध्यक्ष हीरालाल जी चिर-परिचित की तरह मिले और नैनीताल के निवास में हर तरह से सहायता करने के लिए तैयार रहे.
11 मार्च को किराए का बंगला देखने गए. अंग्रेजों की जाने के बाद इन विलासपुरियों पर साढ़ेसाती सनीचर का कोप है. नैनीताल में अंग्रेज किराए के बंगलों में रहते थे, जिन्हें भारतीयों ने अंग्रेजों के आराम की दृष्टि से ही बनाया था. जिन बंगलों को किराए पर चढ़े वर्षों हो गए, वह जीर्ण, गंदे, पुराने या टूटे फर्नीचर वाले हों, तो क्या ताज्जुब? अल्मा कॉटेज और ग्लेनमोर दो बंगले कुछ अच्छी हालत में थे, लेकिन में आठ-आठ नौ-नौ कमरे थे, जिनकी सफाई के लिए एक अलग आदमी चाहिए. ग्लेनमोर बाजार से एक मील पर अवस्थित है. कमला पसंद आया. साढे छः हजार फुट की ऊंचाई पर ताल है, और यह उससे भी एक हजार फुट ऊपर है. किराया एक हजार वार्षिक के करीब था. कंसल बुक डिपो के स्वामी श्री बांकेलाल जी भी हमारी सहायता के लिए हर वक्त तैयार थे. उन्होंने श्री रामलाल शाह की कोठियां दिखाई.
पूर्वाहन में हमने उत्तर वाली कोठियों को देखा. शाम को 4:30 बजे दक्षिण वाली कोठियों की ओर चले. फर्न कॉटेज, हटन कॉटेज, डलहौजी कॉटेज और स्नाउडन कॉटेज आदि कितने ही बंगले देखे. स्नाउडन सबसे अधिक पसंद आया. मालूम हुआ, वह बिकने वाला भी है, लेकिन 20-22 हजार तक ही हो तब ही तो. किराया एक हजार तक पट जाने की उम्मीद थी. दक्षिणगिरि की कोठियां अपेक्षाकृत बेहतर अवस्था में थीं, इनके फर्नीचर भी बुरे नहीं थे. सीजन सिर पर था, इसलिए डाक्टर साहब अपने होटल को तैयार करने में बड़े व्यस्त थे. पर दिखाने के लिए आदमी दे दिया.
12 मार्च को उसके मालिक के साथ ग्लेनमोर बंगला देखने गए. अधिकांश बंगलों के मालिक कुमाऊंनी साह लोग हैं. यह व्यवसायी बहुत कुछ नीचे के अग्रवाल बनियों से हैं. ग्लेनमोर बहुत बड़ा बंगला था, इसमें छः बड़े-बड़े कमरे थे. फर्नीचर भी था. हमने उसके गुण देखे, उसी पर मुग्ध होकर कह दिया, दो कमरे कल तैयार कर दिये जाएं. किराया हजार ठीक हुआ, लेकिन शाहजी ने कहा, आदमी ज्यादा रहेंगे, तो किराया बढ़ा देंगे. बंगला कई साल से किराए पर नहीं चढ़ा था, इसलिए बहुत मरम्मत करनी थी. हमने कह दिया कि मरम्मत नहीं करेंगे, तो मरम्मत कराकर उसका पैसा इसी किराये में काट लेंगे. मालूम हुआ स्नाउडन दो साल पहले 11 सौ रुपये पर उठा था, अब वह आठ-नौ सौ में जरूर मिल जाता. आजकल किराया आमतौर से गिरा हुआ था, लेकिन मेरा उतावलापन कहिए. ग्लेनमोर से फिर थोड़ा और चढ़कर पर्वत-प्राकार के ऊपर पहुंचे, जहां से हिमालय श्रेणी दिखलाई देती थी. इधर से पांच मील पगडंडी से उतरकर भवली से रानीखेत जाने वाली सड़क मिल जाती है.
13 मार्च को फिर बंगलों की खोज में निकले. सबेरे स्नाउडन गए. स्नाउडन की दो-मंजिला इमारत और उसके अच्छे साफ-सुधरे कमरे हमें बहुत पसंद आए. चौकीदार को कह दिया कि मालिक से पूछो, यदि नौ सौ रुपया वार्षिक पर देना चाहें, तो ले लेंगे. उधर हीरालालजी शाह को ग्लेनमोर के स्वामी के पास उतने ही किराए पर देने के लिए टेलीफोन करने को कहा. दोपहर बाद चंद्रलाल शाह के बंगलों, डलहौसी विला, डलडौसी कॉटेज, हटन हाल और हटन कॉटेज देखने गए. हटन हाल बहुत बड़ा था, और हजार रुपये में मिलने पर भी हमारे काम का नहीं था. डलहौसी विला उतना ही बड़ा था, जितना ग्लेनमोर. हां, उससे कुछ अधिक साफ़ था. डलडौसी कॉटेज और हटन कॉटेज हमारे लायक थे. मेरा मन अधिकतर रहा था, समझता था यदि स्नाउडन का दाम माकूल हो, तो उसे ले लेंगे. डाक्टर साहब ने भी कहा, 20-25 हजार में वह जरूर मिल जायेगा.
14 मार्च को तीन बंगलों का ऑफर आया, लेकिन सबसे पहले ग्लेनमोर से. तेरह कुलियों के साथ हम 2 बजे ग्लेनमोर पहुंचे. 6 बड़े-बड़े कमरे जरूर थे, लेकिन शीशे सबके टूटे हुए थे, चिटकनियों और कांचों को खास तौर से तोड़ा गया था. शाम को जब सोने के लिए दरवाजा बंद करने लगे, तब मालूम हुआ कि यहां तो सभी चीजें खुली हुई हैं और भीतर घुसने की सारी बाधाएं दूर करके रखी गईं हैं. फिर बाजार से यह बहुत दूर करीब-करीब गिरि-प्राकार के सिरे पर टंगा हुआ है. यहां से उतरना चढ़ना आसान नहीं था और था बिलकुल अरक्षित स्थान में. यहां से हम खिसके ही नहीं कि आसानी से सारी चीजें उड़ाई जा सकती थीं. रात-भर इसी चिंता में अपनी जल्दबाजी पर अफसोस करते रहे.
रात को ही बंगले को छोड़ जाने का निश्चय कर लिया. अभी एक ही रात रहे थे, और बंगले के बारे में लिखा-पढ़ी नहीं हुई थी. तुरंत दूसरी जगह जाने का प्रबंध करना पड़ा. चाय पीकर एक चिठ्ठी श्री हीरालाल शाह को मकान के नापसंद होने के बारे में लिखी और स्वयं श्री बांकेलाल कंसल के पास पहुंचे. ओक लाज में पहुंचे. वह इस सारे बंगले के किरायेदार थे, नीचे उनका परिवार रहता था, ऊपर एक भाग में गुप्ताजी ओवरसियर थे, और दूसरे भाग में दो कमरे और बरांडा खाली था. रसोईखाने के लिए एक गुसलखाना काम दे सकता था. यद्यपि यहां स्थान की कमी थी, और फर्नीचर भी बहुत कम था, किन्तु पहले तो हमें ग्लेनमोर से पिंड छुड़ाने की जल्दी थी. दूसरे यह भी सोचा कि यहां कंसलजी का परिवार भी रहता है, जिससे कमला को अनुकूलता होगी. चढ़ाई भी यहां से आधी थी. कैसे भी गुजारा करना है, यही सोच रहे थे.
लौट कर सामान उठावाने के लिए आए, तो श्री हीरालाल जी ने कहा, आप मकान को किराए पर ले चुके हैं, इसलिए किराया देना अनिवार्य होगा. मैंने कहा : जब तक लिखा-पढ़ी नहीं हुई, तब तक कोई कानूनी बाध्यता नहीं. खैर, वहां से सामान उठवाकर ओक लाज में चले आए. किताबों को खोलें, तो रखे कहां, पहले यही समस्या आई. कमरों में कोई आलमारी नहीं थी. रात 11 बजे तक कमला मकान को सजाने में लगी रहीं. शिवलाल को हमने रसोइया रक्खा, जो खाना बनाना नहीं जानता था.
नए माकन में वैसे भी आदमी को कुछ अड़चनें मालूम होती हैं. इस मकान के गुण के लिए यही कह कहते हैं कि ग्लेनमोर से निकलने के बाद इसने शरण दी. अब पुस्तकें लिखने में लगना था और कमला को इस साल साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा अवश्य देनी थी. अगले दिन हमने छः बक्सों की पुस्तकें निकालकर जहां तहां रख दीं. अपने तो जैसे भी गुजारा करा सकते थे, लेकिन चिन्ता थी मेहमानों के आने पर क्या किया जायेगा. जो भी हो, अब नैनीताल में 16 जून तक के लिए हम ओक लाज के हो गए.
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Thanks. Looking for an essay by Rahul jee describing beauty of Kumaon mentioning Bagheshwar, kausani, Almora.
It was part of school curriculum.
I will be grateful if I can locate that essay.