किसी भी शहर के सांस्कृतिक चरित्र की पहचान इस बात से होती है कि उसमें सलीके की किताबों की कितनी दुकानें हैं. बावजूद इसके कि नैनीताल में ऐसी तीन ठीकठाक दुकानें हैं जिन्हें मैं अपने बचपन से देखता आया हूँ, मालरोड पर स्थित आर. नारायण एंड को. की बात अलग है. इस ठिकाने को तकते हुए स्कूल के दिनों से ही मन में उत्साहभरी हुड़क उठती रही है. जेब में थोड़े बहुत पैसे आते ही यहाँ का चक्कर लगाना लाजिमी होता था. आज भी नैनीताल की तकरीबन हर यात्रा यहाँ जाए बगैर पूरी नहीं होती. नई से नई और पुरानी से पुरानी किताब की बाबत यहाँ तब भी पूछ्ताछ की जा सकती थी अब भी की जा सकती है. यहाँ आपको आपकी अभिरुचि के अनुसार यह सलाह भी मिल सकती है कि आपने किन किताबों को पढ़ना चाहिए. मुझे याद है विक्रम सेठ की सबसे बढ़िया किताब ‘फ्रॉम हैवन लेक’, जिसका मुझे अनुवाद करना था, जब मुझे दिल्ली के बड़े बुकस्टोर्स में नहीं मिली थी, उसे यहाँ उपलब्ध करवाया गया. अमेज़न से किताबें मंगाने वाली आज की पीढ़ी की समझ में हालांकि यह बात नहीं आएगी लेकिन ऐसी किताबों की लिस्ट छोटी नहीं है जिन्हें विशेषतः मेरे लिए मंगाया गया. मेरी अपनी छोटी-मोटी लाइब्रेरी का एक बड़ा हिस्सा आर. नारायण एंड को. की देन है. किताबों की जो भी थोड़ी बहुत समझ पैदा हो सकी है, उसके बड़े हिस्से में भी इसी आस्ताने का हाथ है.
एक समय नैनीताल की बौद्धिक गतिविधियों का मुख्यालय रहे इस अजीज अड्डे के बारे में विस्तार से जानने की नीयत से मैंने आर. नारायण एंड को. के वर्तमान स्वामी श्री प्रदीप तिवारी से बातचीत की. उसके महत्वपूर्ण हिस्से पेश हैं:
1920 के दशक के ब्रिटिश नैनीताल में माल रोड पर मरे एंड कम्पनी का एक जनरल स्टोर हुआ करता था. मरे एंड कम्पनी एक बड़ा प्रतिष्ठान थी उत्तर भारत में कालाढूँगी और लखनऊ समेत अनेक जगहों पर जिसकी कई शाखाएं थीं. जानकार लोगों को पता है कि एक जमाने में नैनीताल का ग्रांड होटल मरे होटल के नाम से ही जाना जाता था. इस जनरल स्टोर में हैम, बेकन और सारडीन्स जैसे उत्पाद मिला करते थे. इसी पुरानी कम्पनी की लखनऊ वाली ब्रांच में 1892 में रामनारायण तिवारी ने नौकरी शुरू की. रामनारायण तिवारी के पुरखे लखनऊ के ही आसपास के रहने वाले थे. बाद में जब नैनीताल में इस कम्पनी की शाखा खुली तो मरे एंड कम्पनी ने उन्हें नैनीताल भेज दिया.
समय का कुछ ऐसा चक्र चला कि मरे एंड कम्पनी को बड़ा घाटा हुआ और उसे अपना कारोबार समेटने पर विवश होना पड़ा. यह 1929 की बात है. रामनारायण तिवारी ने मरे एंड कम्पनी से अनुरोध किया कि आजीविका चलाने के लिए उन्हें उस संपत्ति में से छोटा सा हिस्सा दिया जाय जिसमें कम्पनी का स्टोर चला करता था. उनकी बात मान ली गयी और आर. नारायण एंड को. अस्तित्व में आई.
रामनारायण तिवारी जी की यह दुकान चल निकली. आर. नारायण एंड को. तब भी एक जनरल स्टोर ही था. रामनारायण जी के दो बेटे हुए – महेश दत्त तिवारी और विशम्भर नाथ तिवारी. इन दोनों ने नैनीताल के हम्फ्री हाईस्कूल (अब सीआरएसटी कॉलेज) से पढ़ाई की.
इनमें से छोटे वाले बहुत ही प्रतिभावान थे और अपनी किशोरावस्था से ही स्टेट्समैन अखबार के लिए बतौर स्टिंगर काम करने लगे थे. उनके बारे में बाद में बात करेंगे.
फिलहाल पढ़ाई करने के बाद महेश दत्त तिवारी कानपुर चले गए जहां उन्होंने हवाई जहाज उड़ाना सीखा. इसी क्षेत्र में कुछ काम करते रहने के बाद दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर वे वापस नैनीताल आ गए और पिताजी के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगे.
जैसा ऊपर बताया गया रामनारायण तिवारी के दूसरे बेटे यानी विशम्भर नाथ बहुत छोटी आयु में पत्रकार बन गए थे. वे जीवन भर पत्रकार ही बने रहे. इन दो प्रतिभावान भाइयों ने पिता के व्यवसाय को नए आयाम देना शुरू किया. दुकान के एक हिस्से में जनरल स्टोर चलते रहने दिया गया जबकि दूसरे में एचएमवी रेकॉर्ड्स की एजेंसी खोली गयी और स्टेट्समैन, टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे अखबार बिक्री के लिए रखे जाने लगे. बाद में अखबारों के साथ-साथ किताबें भी रखी जाने लगीं.
किताबें और विदेशी पत्रिकाएँ मंगाने के लिए बाकायदा इम्पोर्ट लाइसेंस लिया गया और इंग्लैण्ड की गॉर्डन गॉच एंड कम्पनी से चीजें मंगाना शुरू किया गया. तो उस ज़माने में नैनीताल में लाइफ, वीमेंस वीकली, डैन्डी कॉमिक्स, वीमेन एंड होम और परेड जैसी पत्रिकाएँ आर. नारायण एंड को. में मिलने लगीं.
1960 के दशक में जब रुपये का अवमूल्यन हुआ तो आयात करने के काम में घाटा आना शुरू हुआ. परिणामतः आर. नारायण एंड को. ने अपना इम्पोर्ट लाइसेंस सरेंडर कर दिया. इधर यह प्रतिष्ठान अब पूरी तरह से किताबों का स्टोर बन चुका था.
फिलहाल आप यहाँ जाएं तो आपकी मुलाक़ात प्रदीप तिवारी से होती है जो महेश दत्त तिवारी जी के बड़े बेटे हैं. उनकी कथा भी बेहद दिलचस्प है. उन्होंजे 1973 में नैनीताल के डिग्री कॉलेज से आर्गेनिक केमिस्ट्री में एम. एस. सी. किया और उसके बाद वे बंबई में एग्रोकैमिकल क्षेत्र में काम करने वाली एक प्रतिष्ठित कंपनी टाटा फाइजन इंडस्ट्रीज में चले गए. प्रदीप ने यहाँ 11 सालों तक रिसर्च साइंटिस्ट के रूप में कार्य किया. उधर नैनीताल में उनके पिताजी वृद्ध हो चले थे सो उनकी सहायता करने को बंबई की नौकरी छोड़ प्रदीप तिवारी 1984 में नैनीताल आ गए. 1989 में उनके पिताजी का देहांत हो गया. करीब बीस साल पहले उनके अनुज आलोक भी पैतृक व्यवसाय से जुड़ गए. फिलहाल आर. नारायण एंड को. के दो हिस्से हैं – एक हिस्से में किताबें हैं तो दूसरे में गिफ्ट-मोमबत्तियां इत्यादि.
प्रदीप और आलोक के चाचा यानी श्री विशम्भर नाथ तिवारी के बारे में कुछ बातें जानना जरूरी है. वे सही मायनों में इंटेलेक्चुअल थे. जब वे कुल 14-15 साल के थे, उन्होंने स्टेट्समैन अखबार के लिए स्टिंगर का काम शुरू कर दिया था. कभी कभार जब इस अखबार के दफ्तर में काम करने वाला कोई अंग्रेज नैनीताल आकर विशम्भर नाथ तिवारी से मिलने आता था तो उसे एक बच्चे से मिलकर हैरत होती थी और वह पूछा करता – “बरखुरदार यह सब लिखवाते किस से हो?” किशोर विशम्भर अपने पिता के सम्मुख रोते हुए पूछा करते – “इन्हें मेरी बात का यकीन क्यों नहीं आ रहा?” बाद के वर्षों में वे एएनआई, पीटीआई और ऑल इंडिया रेडियो के लिए पत्रकारिता करते रहे.
प्रदीप 1970 के दशक का एक किस्सा याद करते हैं. उस समय नैनीताल में वेंकटरमण नाम के एक सज्जन जिलाधिकारी बन कर नैनीताल आये थे. वे बार-बार आर. नारायण एंड को. में आकर इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया के एक पिछले अंक की मांग करते थे. एक दिन विशम्भर नाथ तिवारी ने उनसे पूछ ही लिया – “आपको वही अंक क्यों चाहिए?”
जिलाधिकारी महोदय ने कहा कि उस अंक में भारतीय अर्थव्यवस्था पर तीनेक पन्नों का एक लेख छपा है और वे उसी की तलाश में हैं. विशम्भर नाथ तिवारी ने एक पल को सोचा और कहा – “मेरे पीछे पीछे आइये.”
जिलाधिकारी महोदय को दुकान के उस हिस्से में ले जाया गया जहां रेडियो और ग्रामोफोन्स और रेकॉर्ड्स राज्खे रहते थे. उन्होंने आँखें मूंदीं और पूरा का पूरा आर्टिकल अपनी याददाश्त से सुना दिया.
हैरत में पड़ गए वेंकटरमण ने उनके बारे में थोड़ी बहुत मालूमात हासिल कीं और उन्हें प्रस्ताव दिया कि वे चाहें तो उन्हें दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो में एक बड़े पद पर तैनात कर दिया जाएगा. नैनीताल से असीम प्रेम करने वाले विशम्भर नाथ तिवारी ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया. सच तो यह है कि अपनी 84 वर्ष की जिन्दगी में वे नैनीताल से बाहर गए ही नहीं – सिवा एक बार दिल्ली और दो बार लखनऊ जाने के. वर्ष 2000 में उनकी मृत्यु हुई.
प्रदीप तिवारी किताबों से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं. 1970 के दशक में नैनीताल में अंगरेजी में एमे करने एक नेपाली लड़का आया. उसका नाम उन्हें अब याद नहीं है. उसके कुछ स्वतंत्र राजनैतिक विचार थे और वह कुमाऊँ को नेपाल का हिस्सा मानता था. उसे किताबें पढ़ने का शौक था लेकिन उन्हें खरीदने को उसके पास पैसे नहीं होते थे.
प्रदीप तिवारी के श्वसुर यानी डॉ. बी. पी. मिश्र नैनीताल डिग्री कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के पहले हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट रहे थे. पुराने खलीफाओं में शुमार किये जाने वाले डॉ. मिश्र ने डब्लिन यूनिवर्सिटी से जेम्स जॉयस पर पीएचडी की थी और उनके ज्ञान का सभी लोग लोहा मानते थे. उनकी बहुत कम आयु में मृत्यु हो गयी थी. घर पर उनकी ढेरों किताबें रखी हुई थीं.
जब इस प्रतिभावान नेपाली लड़के की समस्या के बारे में आर. नारायण एंड को. पता चला तो डॉ. बी. पी. मिश्र के संग्रह में से उसकी जरूरत भर की तमाम किताबें उसे दे दी गईं जिन्हें वह अपनी पीठ पर लादकर ले गया.
प्रदीप कहते हैं कि किताबों का बाजार लगातार लगातार कम होता गया है. लोग पढ़ते ही नहीं. वे कहते हैं कि उन्हें काफी पहले यह बात मालूम पड़ गयी थी कि किताबें पढने वाले लोगों की संख्या कुछ ही प्रतिशत होती है लेकिन यह प्रतिशत समय के साथ साथ बहुत कम हो गया है. पुराने समय के टीनएजर्स बहुत पढ़ा करते थे. अब उन्हें मोबाइल फोन्स से फुर्सत नहीं है.
यह विडम्बना है कि आज जो भी आदमी किताबों के बारे में पूछने आता है उसे बकौल प्रदीप तिवारी “थोड़ा सा सटका हुआ” होना चाहिए. ऐसे लोगों की एक पूरी पीढ़ी थी जो किताबों को सूंघने आया करते थे. एक बात और भी है. आर. नारायण एंड को. में आपको किताबों का अच्छा सेलेक्शन देखने को मिल जाएगा लेकिन प्रदीप अफ़सोस के साथ कहते हैं कि लम्बे समय से ऐसे लेखक आना बंद हो गए हैं जिन्हें वाकई में बेस्टसेलर कहा जा सके या जिनकी किताबें लेने को लोगों में होड़ मच जाया करे.
“किताबों को लेकर अब न वह उत्साह रहा न पैशन” – वे कहते हैं.
–अशोक पाण्डे
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अपना नैनीताल और समय याद आ गया । लाइब्रेरी जाना ,जहाँ बच्चों के लिए खुले में पेड़ों के चारों ओर पुस्तकें फैला दी जाती थीं। लकड़ी की रंग बिरंगी फोल्डिंग कुर्सियां होती थीं। बड़े लोग जब भीतर वाचनालय में पढ़ते थे तो बच्चे बाहर की लाइब्रेरी में किताबें पढ़ अथवा पलट रहे होते। पढ़ने के संस्कार ये बड़े हमें ऐसे ही दे ग ए। नारायण एंड को के साथ ही मार्डन बुक डिपो से भी किताबें और पत्रिकाएं खरीदकर पढ़ना भी सिखाया गया। कंसल में तब शायद केवल स्टेशनरी मिला करती थी शायद । बहुत सारी यादें हैं । जिनमें किशोरावस्था में लाइब्रेरी से पुस्तकें लेते समय तत्कालीन लाइब्रेरियन का एक डायलोग भी याद आ गया । तब रानू,गुलशन नंदा,दत्ता,इब्ने शफीवगैरह को इशयू कराने जाओ तो वे पूछते थे ---"बाबू कब आ रहे हैं ?बहुत दिनों से नहीं आए ।"सुनाते हुए किताबें मेज के सामने के हिस्से में डाल दी जातीं। वहाँ से कोई अच्छी साहित्यिक पुस्तक पकड़ा दी जाती।
हमारा नैनीताल भी इतना बदल.गया क्या कि लोग किताबें नहीं पलटते?वैसे क्या वह बच्चा लाइब्रेरी फिर से शुरु नहीं की जा सकती?
Do write something about Himanshu Joshi ji and his epic novel Tumhare liye.
मैंने कई बार यहां से किताबें खरीदी हैं,विभिन्न प्रकार की किताबों का अच्छा कलेक्शन यहां रहता है,पर धीरे धीरे पढ़ने की आदत खत्म होती जा रही है,युवाओं को किताबें ज्यादा नहीं लुभा पा रहीं आज कल।
नारायण एण्ड को. तो मेरी सबसे पसंदीदा किताबों की दुकान रही है । पिछले पचास वर्षों से मैं पुस्तकें ख़रीदने वहाँ जाती रही हूँ । शिवानी जी के लगभग सभी प्रमुख उपन्यास ख़रीदने में प्रदीप जी ने मेरी मदद की है । मुझे क्या नया पढ़ना चाहिए, इसके लिए भी उन्होंने मुझे सुझाव दिए हैं । किन्तु जब मैं पिछली बार उनसे मिली तो वे बहुत मायूस लग रहे थे कि अब न तो बहुत अच्छा लेखन हो रहा है और न पढ़ने के शौक़ीन लोग । फिर भी जिन्हें रात को पढ़े बिना नींद नहीं आती, ऐसे लोग उनकी दुकान के चक्कर लगा ही लेते हैं, जैसे कि मैं । मुझे बिना पढ़े रात में नींद नहीं आती , यदि रात में नींद खुल गई,तो कोई न कोई किताब के कुछ पन्ने मुझे सुला देते हैं ।
नारायण एण्ड को. तो मेरी सबसे पसंदीदा किताबों की दुकान रही है । पिछले पचास वर्षों से मैं पुस्तकें ख़रीदने वहाँ जाती रही हूँ । शिवानी जी के लगभग सभी प्रमुख उपन्यास ख़रीदने में प्रदीप जी ने मेरी मदद की है । मुझे क्या नया पढ़ना चाहिए, इसके लिए भी उन्होंने मुझे सुझाव दिए हैं । किन्तु जब मैं पिछली बार उनसे मिली तो वे बहुत मायूस लग रहे थे कि अब न तो बहुत अच्छा लेखन हो रहा है और न पढ़ने के शौक़ीन लोग । फिर भी जिन्हें रात को पढ़े बिना नींद नहीं आती, ऐसे लोग उनकी दुकान के चक्कर लगा ही लेते हैं, जैसे कि मैं । मुझे बिना पढ़े रात में नींद नहीं आती , यदि रात में नींद खुल गई,तो कोई न कोई किताब के कुछ पन्ने मुझे सुला देते हैं ।
बहुत सारी यादें जुड़ी हैं आर नारायण के प्रतिष्ठान से
पहली बार महेश दा ऑब्जरवेटरी वाले मुझे ले गये थे उनके साथ अतुलदा, सनवाल साब, डॉ पुनेठा जैसे खगाड़ किताबी कीड़े होते.1974 तक जाना अनवरत होता रहा फिर नौकरी लगी तो बस छुट्टियों में थोड़े दिनों के लिए आना होता. मुझे बगल में मर्फी रेडियो वाले तिवारी चचा से बड़ा स्नेह मिलता वहाँ देर तक उनकी तकनीकी खुचुर बुचुर देखता. चंद्रेश शास्त्री ने वहाँ मेरे विषय की नई किताबें की खोजबीन में नज़रिया दिया.