समाज

उत्तराखण्ड का गौरव हैं जाने-माने बुद्धिजीवी पद्मश्री प्रो. देवी दत्त शर्मा

23 अक्‍टूबर 1924 को जन्‍मे, स्‍कूली शिक्षा के बाद आगरा विश्‍वविद्यालय एवं काशी विश्‍वविद्यालय, बनारस से उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त कर पंजाब विश्‍वविद्यालय (चण्‍डीगढ़) में संस्‍कृत विभागाध्‍यक्ष के तौर पर कार्यरत प्रो. डी.डी. शर्मा जो मूलत: तत्‍कालीन उ.प्र. (अब उत्‍तराखण्‍ड) के नैनीताल जिले के जंगलियागॉंव में पले-बढ़े थे, से सम्‍पर्क का सौभाग्‍य मुझे लगभग 40 वर्ष पूर्व मिला. दरअसल मैं स्‍वयं रोजगार के सिलसिले में किसी तरह चण्‍डीगढ़ पहुँच गया था. तब मैंने हिन्‍दी तथा अंग्रेजी आशुलिपि एवं टंकण ज्ञान में प्रवीणता हांसिल कर ली थी जिसका प्रमाण रोजगार कार्यालय, चण्‍डीगढ़ में हिन्‍दी टंकण गति में कीर्तिमान स्‍थापित करके दिया था. इस तथ्‍य के मददेनजर रोजगार कार्यालय द्वारा लिपिक-कम-आशुलिपिक पद के लिए अन्‍य उम्‍मीदवारों के साथ मेरा नाम भी साक्षात्‍कार के लिए अग्रसारित किया गया था.
(Prof. Devi Dutt Sharma)

मूलत: पहाड़ी, वह भी एक ही जिले का होने के कारण मेरे एक अन्‍य मित्र के माध्‍यम से कुछ ही दिन पूर्व प्रो. शर्मा के संपर्क में आने का अवसर मिला था. संयोग ऐसा कि प्रो. शर्मा के विभाग में ही उक्‍त आशुलिपिक की नियुक्ति की जानी थी और प्रो. साहब एक प्रवीण व्‍यक्ति जो न केवल हिन्‍दी टंकण बल्कि संस्‍कृत भाषा में भी कार्य करने में सक्षम हो, की तलाश में थे. अपने इस मंतव्‍य का जिक्र डॉ. साहब ने हमसे नहीं किया, लेकिन परीक्षा की दृष्टि से, मदद के नाम पर मुझसे अपना विवरण पत्र टाइप करवाया और इनाम स्‍वरूप मुझे सलाह दी गई कि एक साक्षात्‍कार उनके विभाग में संभावित है यदि मैं इच्‍छुक होऊं तो प्रयास कर सकता हूँ.

कुछ ही दिन बाद साक्षात्‍कार संपन्‍न हो गया. साक्षात्‍कार दो शिक्षाविद एक स्‍वयं डॉ. स्‍वयं और दूसरे रजिस्‍ट्रार के मनोनीत सदस्‍य द्वारा लिया गया. अब परिणाम की प्रतीक्षा की जा रही थी जो लगातार बढ़ती ही जा रही थी. जब विवरण पत्र टाइप कर रहा था तो डॉ. साहब के बारे में काफी जानकारी बिना किसी विशेष प्रयास के मुझे मिल चुकी थी. जहॉं तक मुझे याद है दो विषयों में डॉ. साहब पीएचडी किए हुए थे, साथ ही डी0 लिट्. इटैलियन, जर्मन, फ्रैंच, स्‍पेनिश, हिन्‍दी, अंग्रेजी, पंजाबी, डोगरी इत्‍यादि भाषाओं में विद्वता के अतिरिक्‍त डॉ. साहब को हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्‍पीति जैसे दुर्गम इलाकों में जाकर कई प्रकार की बोली एवं लिपियों की भी खोज के लिए उन्‍हें 90 के दशक में ‘जवाहरलाल नेहरू फैलोशिप’ से नवाजा गया था.
(Prof. Devi Dutt Sharma)

अपने जीवनकाल में लगभग ढाई दर्जन पुस्‍तकें लिखने के साथ ही 200 शोधपत्र शिक्षा जगत को समर्पित करने के अलावा 2009 में उत्‍तराखण्‍ड का सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक इतिहास भी उन्‍होंने समाज को दिया. शिक्षा जगत में उनके योगदान के लिए उन्‍हें 2001 में राष्‍ट्रपति द्वारा सम्‍मान पत्र दिया गया. गढ़वाल विश्‍वविद्यालय द्वारा आजीवन उपलब्धि सम्‍मान से सम्‍मानित किया गया. वर्ष 2011 में भारत सरकार की ओर से गणतंत्र दिवस के अवसर पर सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान  ‘पदमश्री’ सम्‍मान से विभूषित किया गया. इसके अतिरिक्‍त कई मानद उपाधियां उन्‍हें प्रदान की गई थी. इन सबके अलावा और भी कई उपलब्धियां उन्‍होंने हांसिल की थी, जो लम्‍बे अंतराल के कारण मैं अपने संस्‍मरणों में संजो रखने में मैं विफल रहा हूँ.

बेशक वे प्रोफेसर थे किंतु लोग उन्‍हें डॉ. साहब करके ही पुकारते थे, इसलिए मैं भी उनके लिए डॉ0 साहब शब्‍द का ही इस्‍तेमाल कर रहा हूँ. डॉ. साहब की शैक्षणिक पृष्‍ठभूमि के बारे में जान लेने के बाद अब मेरी रूचि उनके स्‍वभाव व आदतों के बारे में जानने की थी. इसके पीछे मेरी मंशा थी कि किसी तरह उनसे दोबारा मुलाकात हो और साक्षात्‍कार संबंधी जानकारी हांसिल हो सके. इसके लिए उस मित्र से सहायता का फैसला किया जो उनका रिश्‍तेदार था एवं जिसने मुझे पिछली बार उनसे मिलवाया था. मित्र के अनुसार डॉ. साहब तीन बेटियों एवं दो बेटों के पिता थे, बड़ी बेटी दीपशिखा शर्मा नजीबाबाद रेडियो स्‍टेशन में उद़घोषिका थी, दूसरी बेटी शिमला विश्‍वविद्यालय में एवं बड़ा बेटा डीएवी कालेज, नंगल (पंजाब) में प्राध्‍यापक के तौर पर कार्यरत थे.

महत्‍वपूर्ण बात यह थी कि डॉ. साहब के सभी बच्‍चे अपनी शैक्षिक योग्‍यता एवं प्रयासों से उक्‍त पद प्राप्‍त कर पाए थे. इसके पीछे भी कारण बताया गया कि डॉ. साहब न तो किसी की सिफारिश करते थे और न ही किसी की स्‍वीकार करते थे, यहॉं तक कि अपने बच्‍चों के मामले में भी नहीं. यह भी ज्ञात हुआ कि किसी प्रकार की पैरवी, सिफारिश एवं चाटुकारिता से वे सख्‍त नफरत करते थे. छोटे दो बच्‍चे तब उनके अध्‍ययनरत थे. अद्यतन जानकारी के अनुसार उनका छोटा बेटा भारतीय सेना में कर्नल के पद पर कार्यरत है. अब तक प्राप्‍त जानकारी से एक बात तो स्‍पष्‍ट हो गई थी कि अपने चयन को लेकर मैं उनसे किसी प्रकार की मदद की अपेक्षा न करूँ.
(Prof. Devi Dutt Sharma)

एक बात और डॉ. साहब के बारे में पता चली कि वे अनुशासन एवं समय के बहुत पाबन्‍द हैं और उनके सारे काम समय-सारिणी के अनुसार संपन्‍न होते हैं. अवकाश या अवकाश के समय का कोई सवाल ही नहीं उठता है, उनके जीवन का 80% समय अध्‍ययन या अध्‍यापन को समर्पित है. जानकारी मात्र को छोड़कर राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं. यहॉं तक कि कई विश्‍वविद्यालयों की वाइस चांसलरी को उन्‍होंने ठुकरा दिया था क्‍योंकि उनका मानना था कि वाइस चांसलर का पद राजनीति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता.

डॉ. साहब के बारे में अक्‍सर मुझे कुछ न कुछ जानने को मिलता रहता था, किंतु मेरी जरूरत मुझे विवश करती रही कि किसी भी तरह डॉ. साहब से मिलने का मौका मिले ताकि अपने मामले का पता लगाया जा सके. उनकी पत्‍नी, बच्‍चे एवं मेरे मित्र की ओर से कुछ ऐसी परिस्थितियां बनाई गई कि मेरी डॉ. साहब से मुलाकात हो जाए और वह भी स्‍वाभाविक लगे अन्‍यथा सभी को उनका कोपभाजन बनने की पूरी संभावना थी. मुलाकात हुई, मेरे बिना कुछ पूछे ही डॉ. साहब ने स्‍वयं ही बता दिया कि कुछ प्रशासनिक कारणों से स्थिति स्‍पष्‍ट नहीं हो सकी है, शायद उन्‍होंने मेरे चेहरे को पढ़ लिया था. इसके उपरान्‍त मैंने उस नौकरी के प्रति आशा संजोये रखने की बजाए विकल्‍प तलाशना बेहतर समझा.
(Prof. Devi Dutt Sharma)

आशा के विपरीत तीन दिन बाद ही मुझे नियुक्ति पत्र मिल गया और बिना समय गंवाए मैंने कार्यभार ग्रहण कर लिया. नए सहयोगियों की ओर से शुभकामनाओं के अलावा मुझे बताया गया कि रजिस्‍ट्रार उस पद पर किसी अन्‍य उम्‍मीदवार की नियुक्ति चाहते थे, जो संस्‍कृत तो छोड़ो, हिन्‍दी का भी पर्याप्‍त ज्ञान न होने के कारण साक्षात्‍कार में असफल रहा था. डॉ. साहब ने मैरिट को तवज्‍जो दी, तो ही मुझे अवसर मिल सका था. आश्‍चर्य की बात यह थी कि डॉ. साहब ने कभी इस बात का अहसास मुझे नहीं कराया.

संयोग से इसके बाद दूसरी, तीसरी नौकरी मिलने का सिलसिला चालू हो गया जिसके चलते मुझे चण्‍डीगढ़ छोड़कर दिल्‍ली आना पड़ा और डॉ. साहब से मेरा संपर्क टूट गया लेकिन उस मित्र ने मुझे बताया कि जिस गांव से निकलकर दशकों तक डॉ. साहब शिक्षा जगत के क्षितिज पर छाए रहे, सेवानिवृत्ति के बाद वापस उसी गॉंव में बसना चाहते थे. कहने को वे जंगलियागांव में रहते थे लेकिन जंगल के बीच ऐसी जगह उनका घर है जहॉं पर आज भी केवल पैदल चलकर वहॉं पहुँचा जा सकता है. शायद यही कारण्‍ रहा होगा कि अपने पैतृक गॉंव के सबसे नजदीकी शहर हल्‍द्वानी को उन्‍होंने अपने शेष जीवन के लिए चुना.

मुझे यह भी जानकारी मिली कि डॉ. साहब पठन-पाठन अब भी उसी तल्‍लीनता से करते रहते हैं, जैसा मैंने लगभग 40 वर्ष पहले उन्‍हें पाया था. ऑंखिरकार एक दिन यह जानकारी भी मिली कि अध्‍ययन एवं अध्‍यापन के क्षेत्र में दशकों तक कीर्तिमान स्‍थापित करने वाला नक्षत्र हमेशा के लिए अनंत में समा गया है. डॉ. साहब आज नहीं हैं, मुझे पूर्ण विश्‍वास है कि उनके अनेकों शिष्‍य मौजूद होंगे जिनके पास मुझसे बेहतर संस्‍मरण जीवंत हों.
(Prof. Devi Dutt Sharma)

प्रो. डी.डी. शर्मा को याद करते हुये यह लेख हमें काफल ट्री की ईमेल आईडी पर गिरीश चन्‍द्र बृजवासी ने भेजा है.

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