उत्तराखण्ड राज्य को अस्तित्व में आए 19 साल हो गए हैं. उत्तर प्रदेश से अलग होकर नए राज्य की परिकल्पना इतनी आसान नहीं थी. कई राज्य आंदोलनकारियों ने अपनी जान गंवाई तो न जाने कितनों को पुलिस और प्रशासन की प्रताड़ना झेलनी पड़ी. तब जाकर वर्ष 2000 में भारत के मानचित्र में 27वें राज्य के रूप में उत्तराखण्ड शामिल हुआ. नए राज्य के पीछे पर्वतीय क्षेत्र के चहुंमुखी विकासए अपनी संस्कृति और धरोहरों को सहेजने की सोच थी. आम धारणा थी कि मैदानी क्षेत्र के नेताओं को पहाड़ की भौगोलिक और सामाजिक समस्याओं की समझ नहीं है. पर्वतीय इलाके विकास से अछूते हैं. यहां की सूरत स्थानीय लोग ही बदल सकते हैं इसलिए अलग राज्य बनाया जाए. Problems in Uttarakhand
अब सवाल उठता है कि क्या वाकई उत्तराखण्ड में गुणात्मक विकास हो पाया? जिन जनाकांक्षाओं का जिम्मा स्थानीय नेताओं के कंधों पर थाए वे पूरी हुईं या आज भी राज्य विकास की बाट जोह रहा है राज्य सरकार की मानें तो प्रदेश प्रगति के पथ पर अग्रसर है.
2019 में राज्य स्थापना सप्ताह के उद्घाटन कार्यक्रम में सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने दावा किया था कि साल 2000 के मुकाबले प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 25 हजार से बढ़कर डेढ़ लाख रुपये से ज्यादा हो गई है. इन्वेस्टर्स समिट के जरिए राज्य में 18 हजार करोड़ रुपये का निवेश आया. 2019 में विधानसभा में पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, 2018-19 में राज्य की विकास दर 7.03% रहने का अनुमान जताया गया.
इन आंकड़ों के जरिए सरकार प्रदेश के आर्थिक विकास का दावा कर रही है. कुछ ऐसे ही दावे पुरानी सरकारें भी करती आई हैं, लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू की ओर कोई नहीं झांकना चाहता है. सचाई यह है कि जिस राज्य की तकरीबन 70% आबादी गांवों में रहती है और इसका 80% हिस्सा पहाड़ी जिलों में बसता है, वहां आज भी रोजगार पहाड़ नहीं चढ़ पा रहे हैं. इन पहाड़ी इलाकों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था है, जिसमें आय का महत्वपूर्ण स्रोत कृषि है, जो मौसम और जंगली जानवरों की मेहरबानी पर निर्भर है.
राज्य गठन के बाद से पहाड़ और मैदान के बीच विकास की खाई लगातार चौड़ी हो रही है. पहाड़ी जिलों का सकल घरेलू उत्पाद देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर जैसे मैदानी जिलों से 40% कम है. इसी तरह मैदानी जिले हरिद्वार की प्रति व्यक्ति आय 2.54 लाख रुपये हैए जबकि रुद्रप्रयाग की महज 83 हजार 521 रुपये. अधिकतर उद्योग-धंधे भी देहरादून, हरिद्वार, काशीपुर, सितारगंज और रुद्रपुर में हैं. यही वजह है कि रोजगार की तलाश में लोग मैदानी जिलों की ओर पलायन कर रहे हैं. वहींए जिन नेताओं पर पहाड़ को सुविधा संपन्न बनाने की जिम्मेदारी है, वे दिखाने के लिए तो पहाड़ की राजनीति करते हैं लेकिन उन्होंने अपने आवास मैदानी जिलों में बना लिए हैं.
यह विडंबना ही है कि उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान ‘पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो’ कहने वाले नेता हकीकत में गैरसैंण को भुला चुके हैं. सरकारें बदल गई लेकिन आज तक अस्थायी राजधानी देहरादून से गैरसैंण नहीं स्थानांतरित हो पाई है.
राज्य में पलायन सबसे बड़ा मुद्दा है जिसकी मुख्य वजह बेरोजगारी है. ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार राज्य की 6,338 ग्राम पंचायतों से करीब 3.83 लाख लोग अर्ध स्थायी रूप से और 3,946 ग्राम पंचायतों से लगभग 1.19 लाख लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं. इनमें से 50.16% लोगों ने रोजगार की तलाश में पलायन कियाए जबकि बाकी लोगों ने अच्छी चिकित्साए शिक्षा और इन्फ्रास्ट्रक्चर इत्यादि के लिए.
रिपोर्ट के मुताबिक गढ़वाल मंडल में सबसे ज्यादा पलायन पौड़ी गढ़वाल जिले में हुआ है. यहां 186 गांव आबादी विहीन हैं. वहीं कुमाऊं मंडल में सबसे प्रभावित जिला बागेश्वर है जहां 77 गांव में एक भी बाशिंदा नहीं है. इन्हें घोस्ट विलेज यानी भुतहा गांव भी कहा जाता है. बीते साल भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के अध्ययन में सामने आया कि पौड़ी गढ़वाल के वीरान गांवों में जंगली जानवरों की आबादी बढ़ रही है और खाली मकानों में तेंदुए बसने लगे हैं. यहां उनके छिपने के लिए मुफीद जंगली घास उग आई है और उसे हटाने के लिए कोई नहीं है.
आज इन गांवों की सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने के लिए कोई नहीं बचा है. वहीं कई गांवों में इतने कम लोग हैं कि वहां नेपाली आकर खेती कर रहे हैं. उनकी बदौलत वो गांव आबाद हैं. पिथौरागढ़ जिले में चीन सीमा से लगे गांव खाली होना भी चिंताजनक है. आज पहाड़ का पानी और जवानी दोनों ही उसके काम नहीं आ रही है.
उत्तराखण्ड अनइंप्लायमेंट फोरम में 9 लाख रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं जबकि गैरपंजीकृतों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है. पहाड़ के अधिकतर युवा सुबह 4 बजे दौड़ लगाते दिख जाते हैं क्योंकि वे आज भी रोजगार के लिए सेना की भर्ती पर निर्भर हैं. पहाड़ की जवानी को पलायन से रोकना है तो सरकार को पर्वतीय इलाकों में भी रोजगार पैदा करने होंगे. इसके लिए सरकार पहाड़ की कुदरती खूबसूरती की मदद ले सकती है. यहां के ऊंचे पर्वत, कल-कल करती नदियां और हरे-भरे बुग्याल पर्यटन और एडवेंचर का जरिया बन सकते हैं. कुछ खाली हो चुके घरों को खरीदकर उन्हें होम स्टे में तब्दील किया जा सकता है, जहां पर्यटकों को रहने में पहाड़ी जीवन-शैली का अनुभव हो. यहां के फल-फूल और औषधियों को भी बढ़ावा देकर जॉब पैदा की जा सकती है. हालांकि मौजूदा बीजेपी सरकार ने रिवर्स पलायन को लेकर पलायन आयोग का गठन किया था.
सरकार आवा आपणु घौर ( अपने घर आओ ) की अपील भी कर रही है. बशर्ते सरकार पर्वतीय इलाकों में रोजगार पैदा करने और मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने को लेकर जमीन पर भी काम करे क्योंकि कई लोग अपने घर लौटना चाहते हैं. रोजगार पैदा करके ही मैदानी और पहाड़ी जिलों के बीच की आर्थिक असमानता को कम किया जा सकता है. ऐसा होने पर सही मायनों में समूचे प्रदेश का विकास होगा और शहीद हुए राज्य आंदोलनकारियों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
पेशे से पत्रकार ललित मोहन बेलवाल वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं. ललित नवभारत टाइम्स में काम करते हैं.
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सरकार की नीतियों पर बिल्कुल सही कटाक्ष ?
ALL POLITICIAN HAS BUILT THEIR HOMES AT PLAINS LIKE DEHRADUN, HARIDWAR, KOTDWAR. ETC. SO, IF POLITICIAN HAS LEFT THEIR PATERNAL VILLAGES OBVIOUSLY PEOPLE WILL DO SAME BECAUSE POLITICIAN HAS SET EXAMPLES ALREADY.