अल्मोड़ा राजमार्ग पर इस मैक्सिकन फूल से कई मुलाक़ातें हुईं! (Prickly Pear Cactus Uttarakhand Himalayas)
उत्तराखंड: भवाली से गुज़रते हुए अल्मोड़ा की ज़ानिब तकरीबन मिडवे में यह दरख्तनुमा प्रिकली पियर नागफ़नी दिखाई दिया, जिसमें पुष्प तो नहीं थे पर अमूनन हमारे उत्तर भारत यह नागफ़नी नही दिखती उत्तर प्रदेश राजस्थान आदि के इलाकों में, तस्वीर तो ले ली ताकि सनद रहे, और मौके ओर काम आवै, जैसे अक्षांश और देशांतर, तारीख़, और भौगोलिक स्थित जो की कैमरे के सॉफ्टवेयर द्वारा तस्वीर में अंकित हो जाती है एक्जिफ़ डाटा के तौर पर! (Prickly Pear Cactus Uttarakhand Himalayas)
ख़ैर आगे बढ़े तो यह वनस्पति कई जगह दिखाई दी चूंकि शाम हो गई थी, अल्मोड़ा के आगे जागेश्वर की तरफ हम बढ़ रहे थे, प्रथम लक्ष्य महादेव के दर्शन था तो चीजे बहुत ग़ौरतलब नही रही फ़िलवक्त… लौटते वक्त यह कैक्टस पुष्पों समेत मिल गया जागेश्वर व अल्मोड़ा के मध्य, तस्वीरें निकाली और विचार किया कि इतने बड़े बड़े पेड़ जो रूपांतरण हैं तने का जिनमें कांटे भी चुभने वाले नही, बस इसके पेड़ व फल में कुछ कुछ रोयेंदार काटें मौजूद हैं.
दरअसल कैक्टस में जल संचयन व प्रकाश संश्लेषण का कार्य यह हरे पत्तीनुमा तने ही कर लेते हैं. इसके एक ही पौधे में सफेद पीले व लाल पुष्प मन को और आकर्षित कर गए, नतीज़तन संवेदना में इज़ाफ़ा हुआ, और इस काँटो वाली वनस्पति से राब्ता बढ़ता गया और आख़िर में मसला इंतखाब कुछ यूं हुआ कि यह ओपुण्टिया फाइकस इंडिका हैं. मूलतः यह अमरीकी महाद्वीप की नागफ़नी है जो कोलम्बस से पहले ही दुनिया के देशों में फैलने लगी थी आदमियों, बंदरों व चिड़ियों आदि के माध्यम से, लेकिन साहसी नाविक कोलम्बस महान ने इसे मेडिटेरियन इलाकों में भूमध्य सागर के जरिए अफ्रीका योरोप व एशिया के देशों तक पहुंचा दिया.
यहां दो बातें है जो शंका उतपन्न कर सकती हैं पहली वह की इस प्राजाति का नाम इण्डिका क्यों अगर यह अमरीका से आई? तो बता दूँ की यह इंडिका अमरीकन इण्डियन इलाकों के कारण इंडिका शब्द लगा, न कि भारतीय वाला इंडियन. दूसरा यह कि जब कोई प्रजाति प्राकृतिक रूप के बजाए इंसानों द्वारा कई जगह ले जाई जाए तो उसके पीछे नजरिया फ़ायदे का ही होगा.
आप सोच रहे होंगे कि यह कांटेदार नागफ़नी कोई क्यों हजारों मील ले जाएगा! तो यहां पर कारण सिर्फ इसके रंग बिरंगे पुष्प नही बल्क़ि इस पूरे पौधे के बहुत से फायदे हैं.
यह इंसानों से लेकर जानवरों तक के भोजन में शामिल होता है, इसकी पेड़ को सब्जी, सूप, अचार, के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, और इसके फल बहुत ही स्वादिष्ट, जायके में बिल्कुल तरबूज की तरह होते हैं. विटामिन सी की बहुलता भी बहुत अधिक होती है.
इसकी बहुत सी प्रजातियां दुनिया भर में मौजूद हैं और इसकी खेती करने वाले इसकी बिना काँटेदार प्रजाति भी विकसित कर चुके हैं. इनकी काँटेदार प्रजाति के हरे चप्पलनुमा पेड़ व अंडाकार फलों को घास आदि में रगड़ कर भोजन में प्रयुक्त किया जाता है.
इनकी मौजूदगी उस भूभाग में मृदा अपरदन को कम करती है और जल संचयन में भी यह नागफ़नी फायदेमंद हैं. साथ ही अपने फैलाव को बढ़ाने में अत्यधिक सक्षम होने के बावजूद भी यह अपने आस पास उगने वाली वनस्पतियों को नुकसान नही पहुंचाती, जैसे चीड़ व सागौन के वृक्ष करते हैं जिनके नीचे कोई और वनस्पति नही उग पाती. उनकी पत्तियों व स्पाइक के क्रमशः क्षारीय व अम्लीय होने के कारण साथ ही उनके पत्तों के जमीन पर गिरने से एक मजबूत परत भी बनती है जो अन्य वनस्पतियों के अंकुरण को प्रभावित करती है.
जर्मन नेचुरलिस्ट अलेक्जेंडर वॉन हैमबोल्ट ने इसके नेपल्स यानी चप्पलनुमा पेड़ में लगे अंडाकार (जिसे टूना कहते हैं) को विश्लेषित किया कि यह शब्द स्पेनिश भाषा से लिया गया. वॉन हैमबोल्ट ने प्रिकली पीयर नाम की इस नागफ़नी की विशेषताओं का भी ज़िक्र किया.
इसकी एक और खूबसूरत बात यह है कि जहां पानी कम है वहां ये उग आती हैं और वहां के वातावरण या जमीन में मौजूद जल को बॉयोमास में तब्दील कर देती हैं.
इस नागफ़नी के फूलों की ख़ूबसूरती के कारण व इसकी अन्य खासियतों के चलते यह कई मुल्कों में जलवा फ़रोश हुआ इसे नेशनल शील्ड ऑफ मैक्सिको और नेशनल शील्ड ऑफ माल्टा में भी स्थान मिला. मैक्सिको के सरकारी चिन्ह में प्रिकली पीयर नागफ़नी पर ईगल सांप को पकड़े हुए बैठा दिखाया गया है.
पर इस यात्रा के अपने इस इकोलॉजिकल अध्ययन में यह विचार आया है कि क्या इस वनस्पति का यहां की बायलोजिकल डाइवर्सिटी के तानेबाने के साथ कोई मेल मिलाप व विरोधाभासी लक्षणों का अध्ययन हुआ है?
वनस्पतियां ख़ुद में बहुत सी खूबियां रखती हैं और जहां उग आए वो धरती उनकी, वह अपनी जगह बना ही लेती हैं, उनके लिए वीजा पासपोर्ट या धरती पर मानव द्वारा खींची गई लकीरें मायने नही रखती हैं. यह पूरी धरती सभी जीवों की हैं, लेकिन मनुष्य द्वारा वनस्पतियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर स्थापित करना प्राकृतिक प्रक्रिया तो न हुई. वनस्पतियों के बीजों का स्वतः प्रकीर्णन व चिड़ियों आदि जीवों द्वारा स्थानीय प्रसार तो प्राकृतिक है, पर एक महाद्वीप से मनुष्य द्वारा जाने अनजाने में लाई गई वनस्पति क़भी लाभदायक तो कभी नुकसानदेह जैसे लैंटाना और पार्थेनियम जो भारत की पारिस्थतिकी तंत्र में रच बस गईं. मैंने उत्तराखण्ड में विदेशी प्रजाति के बहुत से पुष्प व फल वाले पेड़ पौधे देखे. इन प्रजातियों के यहां तक आने में टूरिज्म भी एक कारण हो सकता है पर एक वैज्ञानिक अध्ययन जरूरी है कि क्या यह प्रजाति या प्रजातियां यहां की वनस्पतियों के साथ सही से तालमेल बिठा पा रही हैं या हमारी इस स्थानीय इकोलॉजी में अंतर्विरोध जारी है.
विचार कीजिएगा.
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यह लेख कृष्ण कुमार मिश्र ने लिखा है. लखीमपुर खीरी के रहने वाले कृष्ण कुमार मिश्र दुधवालाइव अंतर्राष्ट्रीय जर्नल के संस्थापक हैं.
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काफी शोध परक लेख धन्यवाद. पिछला लेख हाइड्रेंजिया के बारे में पढ़कर भी काफी अच्छा लगा यूं ही आपका लिखना जारी रहे इन्हीं कामनाओं के साथ..