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नैनीताल के प्रताप भैय्या जिनकी जीवन शैली में झलकता था समाजवाद

एक दौर था नैनीताल में – काली अचकन और सफेद चूड़ीदार पजामे में एक आकर्षक व्यक्तित्व आपको शाम के वक्त मालरोड पर हाथ में एक हस्तलिखित पर्चा थमाकर  “कल गोष्ठी में जरूर आईयेगा’’ कहकर गुजर जाता. कुछ लोग इस पर्चे को यों ही अपनी जेब में डाल देते, कुछ पढ़ते और अनमने मन से ज्यादा तवज्जो नहीं देते, लेकिन चन्द ऐसे भी लोग होते जो या तो बोलने को मंच मिलने का अवसर नहीं गंवाना चाहते अथवा समाज व देश के प्रति अपने दायित्व समझकर गोष्ठी में प्रतिभाग करने पहुंच जाते. अब तो आप समझ ही गये होंगे, मैं किस व्यक्ति की बात कर रहा हॅू. जी हां, सही समझा आपने ऐसा अद्भुत व्यक्तित्व प्रताप भैय्या के अलावा और हो ही कौन सकता है ?

ये वही प्रताप भैय्या थे, जिन्होंने मात्र 25 साल की उम्र में अविभाजित उ.प्र. में खटीमा -जहांनाबाद की मुस्लिम बाहुल्य सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा में परचम लहराया और 1967 में संयुक्त विधायक दल की सरकार में सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री के रूप में मात्र 9 महीने के कार्यकाल में वे कीर्तिमान स्थापित किये, जिन्हें आज भी लोग याद करते हैं. एक प्रखर राजनेता के साथ एक समर्पित समाजसेवी तथा शिक्षा के क्षेत्र में ’उत्तराखण्ड के मालवीय’ के रूप में पहचान बनाने वाले प्रताप भैय्या कोई परिचय के मोहताज नहीं थे.

उस दौर में गोष्ठियों  का आयोजन होता था – युसुफ मेहर अली केन्द्र द्वारा, जो न्यू क्लब में हुआ करती थी. दरअसल प्रख्यात विचारक युसुफ मेहर अली, जो महाराष्ट्र प्रान्त के थे, उनके नाम से इस क्षेत्र में प्रताप भैय्या द्वारा संचालित यह इकलौती संस्था थी. प्रताप भैय्या अक्सर युसुफ मेहर अली के बारे में बताते कि वे देश के नेता थे कौम के नहीं, इसी लिए जब उनका जनाजा उठा तो उनकी बिरादरी के अधिकांश लोगों ने यह कहकर अपनी दुकानों के शटर गिरा दिये, क्योंकि वे उनकी कौम के नेता नहीं थे. खैर- युसुफ मेहर अली केन्द्र में तब महीने के प्रथम रविवार को तात्कालिक विषयों पर स्थानीय बुद्धिजीवी मिल बैठकर चर्चा करते, विषय स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय तक समायानुकूल होता. इनका प्रतिफल प्रत्यक्ष कुछ मिलता हो या न मिलता हो, लेकिन एक जागरूकता का वातावरण अवश्य बनता था. समय की पाबन्दी का यहां भी आलम ये था कि निर्धारित समय पर जो उपस्थित रहते उन्हीं में से किसी को अध्यक्ष और किसी को मुख्य अतिथि बना दिया जाता और मुख्य अतिथि के रूप में पूर्व से आमंत्रित अतिथि समय पर न पहुंचने पर बतौर एक प्रतिभागी होता.

जिस हस्तलिखित पर्चे का जिक्र ऊपर किया गया है, उसके पीछे भी उनकी एक गम्भीर सोच थी. यह नहीं था कि वे इस तरह की सूचनाऐं छपवाकर वितरित करने के पीछे मुद्रण के पैसे बचाने की नीयत रखते हों, बल्कि ये हस्तलिखित पर्चे उन्हें मुद्रित पर्चो से ज्यादा महंगे पड़ते थे. दरअसल कई बेरोजगार युवक रोजगार की तलाश में उनके पास आते. उन्हें या तो वे अपने किसी स्कूल में पद न होने पर भी जबरन समायोजित कर लेते. कभी-कभी तो उनकी अपने स्कूल के प्रधानाचार्य से ही इस बात पर विरोध भी झेलना पड़ता, जब संस्थाध्यक्ष पद न होने पर इन्हें वापस लौटा देते. तब वे समझा-बुझाकर प्रधानाचार्य को मना लेते कि आप इनको वेतन मत देना, लेकिन सीखने का मौका तो दे दीजिए। आज ऐसे कई शिक्षक उनके विद्यालयों में स्थाई पदों पर सेवा कर रहे हैं जो इसी परेशानी से होकर गुजरे थे. जिनके लिए कहीं रोजगार दिलाने का मौका नहीं मिलता, उनको वे अपने कोर्ट कार्यालय में बुला लेते और ऐसी ही मीटिंग की पर्चिया लिखवाकर शाम को सौ-पचास रूपये उनकी जेब में डालकर और उनको रोजगार का अहसास कराकर और उनकी हताशा को दूरकर खुद आत्म संतोष का अनुभव करते. बेरोजगारों और वंचित वर्ग के प्रति उनकी दरियादिली केवल भाषणों या सहानुभूति के रूप में नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर थी. कोई भी फेरी वाला उनके कोर्ट कार्यालय से गुजरता तो वे उसे अपने पास बुलाकर उनसे चना, मूंगफली या जो भी उसके पास होता जरूर खरीदते, भले ही वे उसे किसी और को खिला दें. इस तरह फेरी वालों के साथ एक नियमित ग्राहक का सिलसिला शुरू हो जाता. उनके लिए खरीदे जाने वाले सामान की उपयोगिता से कहीं अधिक उस फेरी वाले के चेहरे की मुस्कान ही उनका सच्चा सौदा होता. खरीददारी के लिए भी वे ऐसी दुकानों को चुनते, जिनके वहां कोई ग्राहक नहीं जाता, यह उसे प्रोत्साहित करने की उनकी समाजवादी सोच का व्यावहारिक पहलू था.

बात जब लोकतंत्र और समाजवाद की आती है, तो हर राजनेता अपने को लोकतांत्रिक एवं समाजवादी विचारधारा का अनुगामी कहकर चुनावी वैतरणी  को पार करने की जुगत लगाता है. जब कि असल जिन्दगी में ये विचारधाराऐं अधिकांश राजनेताओं से कोसों दूर होती हैं. इसके उलट प्रताप भैय्या ने लोकतंत्र और समाजवाद को अपने पारिवारिक व सामाजिक जीवन में जीवन्त किया. लगभग 36 साल तक उनके सान्निध्य में रहने पर मेरे कई ऐसे अनुभव हैं, जो यह साबित करने के लिए काफी हैं कि उन्होंने लोकतंत्र और समाजवाद को पढ़ा नहीं बल्कि जिया. वे कई विद्यालयों के संस्थापक व प्रबन्धक रहे. एक पब्लिक मैन होने के नाते लोग उनके पास इन विद्यालयों में प्रवेश की सिफारिश अथवा अन्य कोई ऐसी समस्या लेकर आते जो प्रबंघक के अधिकार क्षेत्र से बाहर की होती तो वह “माई प्रिन्सिपल इज माइ प्राइम मिनिस्टर’’ कहकर अपनी असमर्थता व्यक्त कर देते और कभी भी प्रधानाचार्य के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं करते. उनकी यह लोकतांत्रिक सोच संस्थाओं के साथ ही स्वयं के परिवार पर भी लागू होती। पारिवारिक मामलों में वे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती बीना जी के अधिकार क्षेत्र में भी कभी दखल नहीं देते. परिवार पर अपने निर्णय थोपने के बजाय आम सहमति पर विश्वास करते थे.

“फटी धोती फटी कमीज को प्राथमिकता देने ’’ का उनका संकल्प कभी तथाकथित अग्रणी व ’एलीट’ समाज के लोगों के लिए असहजता की स्थिति पैदा कर देता. अति-विशिष्ट लोगों की सभा में भी कभी वे ग्रामीण क्षेत्र से आये किसी ऐसे व्यक्ति को मंच पर अपनी बात रखने को आमंत्रित कर देते जो शुद्ध हिन्दी में बोलने की सामथ्र्य भी न रखता हो. तथाकथित ’बुद्धिजीवी’ लोग एक दूसरे की निगाहों में निगाहें डालते लेकिन प्रताप भैय्या के चेहरे पर चमक लौट आती कि आज ’फटी घोती फटी कमीज’ वाले इन्सान को वरिष्ठ अधिकरियों के सम्मुख अपनी बात को रखने का मौका तो मिला. ऐसे ही एक नेपाली मूल के व्यक्ति मानसिंह हर मीटिंगों में पंगोट-बगड़ से नियमित रूप से आया करते थे. ऐसा ही एक वाकया था जब मान सिंह जी को एक मीटिंग में प्रखर समाजवादी नेता जाॅर्ज फर्नाडीज के सम्मुख अपनी बात रखने का मौका दिया गया.

एक कुशल  वक्ता के साथ ही राजनीति में उनकी बेवाकी कभी कभी दलीय सीमाओं को लांघ जाती. दरअसल सच्चाई और अन्तर्रात्मा की आवाज को वे दलीय अनुशासन से ज्यादा तरजीह देते। अपने सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन में केवल एक ही राजनैतिक दल  के प्रति प्रतिबद्धता आज की अवसरवादी राजनीति के लिए एक मिशाल है. एक विरोधी राजनैतिक दल के नेता होते हुए भी आपात्काल के दौरान उनके जेल न जाने पर लोगों की तरह-तरह की प्रतिक्रियायें आई, लेकिन सच्चाई इसके विपरीत थी. यह वही दौर था, जब उन्होंने 42 वें संविधान संशोधन पर अखिल भारतीय विधि विचार गोष्ठी का आयोजन किया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायमूत्र्ति (नाम स्मरण नही हो रहा) ने बेवाकी से अपनी बात रखी. यहीं नही आपात्काल के दौरान भूमिगत नेताओं की पनाहगाह के तौर पर बिहार की माननीय मंत्री श्रीमती कमला सिन्हा को उन्होंने पर्वतीय क्षेत्र के दौरे पर अपनी बेटी प्रो0 नीता के साथ भ्रमण करवाकर जनजागृति में भरपूर सहयोग दिया.

यहाॅ पर में एक और सच्चाई से पर्दा उठाना चाहॅूगा कि आपात्काल के दौरान तत्कालीन जिला प्रशासन पर प्रताप भैय्या की गिरफ्तारी कर जेल भेजने के तत्कालीन उ.प्र. के मुख्यमंत्री के भारी दबाव के बावजूद प्रशासन ने हाथ खड़े कर दिये थे. यह बात तब प्रकाश में आई जब तत्कालीन जिलाधिकारी श्री रवि मोहन सेठी ने सेवानिवृत्ति के उपरान्त अपनी ऑटो-बायोग्राफी  ‘एन अनसिविल सर्वेन्ट’ शीर्षक की पुस्तक में लिखी. अपनी तैनाती के विभिन्न जिलों की घटनाओं का जिक्र करते हुए नैनीताल के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है कि जब-जब मुख्यमंत्री इस क्षेत्र के दौरे पर आते मुझे प्रताप सिंह नाम के एक राजनेता को गिरफ्तार कर जेल भेजने को कहते. एक बार जब वे माननीय मुख्यमंत्री की अगवानी के लिए पन्तनगर एअरपोर्ट पर पहुंचे तो पुनः उन्होंने अपनी बात दोहरायी और कहा कि आपने अभी तक सौंपा गया काम नहीं किया, मुझे ऊपर से बार-बार दबाव पड़ रहा है. श्री सेठी आगे लिखते है कि उस बार मैंने साफ- साफ कह दिया कि उस व्यक्ति को किस अपराध में मैं गिरफ्तार करूॅ. सर ! आप मेरा ही यहाॅ से ट्रांसफर करवा दीजिए. लोकसेवक का भी उनके प्रति यह सम्मान का भाव उनकी स्वच्छ छवि की राजनीति को उजागर करता है।

शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान किसी से छिपा नहीं है. उन्होंने अपने विद्यालयों में जो अभिनव प्रयोग किये, सरकारें अब उस ओर सोच रही हैं. विद्यालयों में शिक्षक-अभिभावक संगठन की परिकल्पना जहाॅ तक मुझे स्मरण है, नब्बे के दशक में अस्तित्व में आयी, लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि प्रताप भैय्या ने संरक्षक परिषद् की शुरूआत् साठ के दशक में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल मे प्रारम्भ कर दी थी.  शिक्षकों की परिधान पर सरकारें आज सोच रहीं हैं, जब कि सैनिक विद्यालय में इसकी शुरूआत् दशकों पूर्व हो चुकी है। जो मुक्त विश्वविद्यालय हाल के वर्षों में अस्तित्व में आये, प्रताप भैय्या ने उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्र नाम से वर्ष 1975 में ही इस विचार को मूत्र्त रूप देकर खटीमा, ओखलकाण्डा, स्याल्दे, काण्डा और मानिला जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में इन केन्द्रों के माध्यम से उच्च शिक्षा का प्रसार प्रारम्भ कर दिया था. अपने विद्यालयों में प्रधान लिपिक के पद को उन्होंने बहुत पहले ही प्रशासनिक अधिकारी का नाम दिया था, शासन स्तर पर कई वर्षों बाद इस ओर सोचा गया. कुल मिलाकर उनकी दूरदृष्टि का लाभ यदि समाज समझ पाता, तो शायद हम कुछ कदम और आगे होते.  यह इस क्षेत्र के लोगों का दुर्भाग्य है कि उनके व्यक्तित्व से न तो हम प्रेरणा ले सके और न उनको वह सम्मान दे पाये, जिसके वे वास्तविक हकदार थे. सचमुच प्रताप भैय्या जैसे व्यक्तित्व युगों बाद इस धरा पर अवतरित होते हैं.

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रकाशित हो चुकी हैं.

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Girish Lohani

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