आज जब तकनीक तेजी से बदल रही है, सस्ती होकर सर्वसुलभ हो जनतांत्रिक हो रही है तब कैमरा आम लोगों के लिए भी मूल्यवान साबित हो रहा है. इस बात को अगस्त 2013 में ओड़िशा की नियमगिरि पहाड़ियों पर हो रही हलचल से जोड़ने पर एकदम साफ –साफ़ समझ में आएगा. पिछले 2 दशकों से हिन्दुस्तान के सबसे पुराने और समृद्ध जंगल नियमगिरि में उसके अन्दर छिपे खनिजों को हड़पने के लिए बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रीय कंपनियों ने लूट का अभियान चला रखा है. इस अभियान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया भी बड़ी पूंजी के साथ खड़ा है. भला हो छोटे कैमरों और बड़े संकल्पों का जिसकी वजह से डोंगरिया कोंध आदिवासियों की जरुरी लड़ाई की कहानियाँ हम तक पहुचने लगी और देश के दूसरे हिस्से में भी उनकी खबर ली जाने लगी. मशरूम की तरह उगे टी वी न्यूज़ चैनलों के बावजूद नियमगिरि के आदिवासी डोंगरिया लोगों के सुख –दुख छोटे कैमरों से ही सामने आये. इनके सार्वजनिक होने में यू ट्यूब जैसे मंचों ने भी अहम भूमिका निभाई. पिछले दशक में कई बार डोंगरिया लोग आर –पार की लड़ाई में लहुलुहान हुए. बड़े हुए जन दवाब के चलते भारत के उच्चतम न्यायालय ने 2013 के अगस्त महीने में नियमगिरि के 12 गावों में जनमत संग्रह करवाया. हर गावं में न्यायपालिका के जिम्मेदार व्यक्ति के समक्ष सभा हुई और उम्मीद के मुताबिक़ सभी 12 गावों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विकास के मॉडल को एक सिरे से अस्वीकार कर दिया. जनमत संग्रह की इन सभाओं में बड़ी हुई हिस्सेदारी और गजब का उत्साह था लेकिन जो चीज इन सभी सभाओं अनिवार्य रूप से उपस्थित थी वह थी सामान्य से दीखता वीडिओ कैमरे . पता चला कि आदिवासियों का कैमरे द्वारा सभा की रिकार्डिंग के लिए जबरदस्त आग्रह था. वे सरकारी कैमरे के साथ –साथ अपने कैमरे से रिकार्डिंग किये जाने पर अड़े रहे. शायद इसी वजह से इस बार आदिवासियों के अपनी स्थानीय भाषा में दर्ज हुए वक्तव्यों और उनके क्रमश ओड़िया और अंगरेजी अनुवादों में किसी तरह के फेरबदल की गुंजायश न थी. और जिसकी अंतिम परिणिति उनकी जीत के रूप में हुई.
ऐसा ही एक बड़ा वाकया 2004 का है जब मणिपुर की 12 महिलाओं ने अपनी बहन मनोरमा की सेना द्वरा बलात्कार और नृशंस हत्या के खिलाफ काले क़ानून आर्म्ज़ फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट 1958 को राज्य से हटाने के लिए अपने सर्वोच्तम प्रतिरोध के स्वरुप आसाम राइफल्स के मुख्यालय कांगला फोर्ट के समक्ष 15 जुलाई 2004 को नग्न प्रदर्शन किया. इस 30 सेकंड के वाकये को कई छायाकारों ने अपने कैमरे में दर्ज किया और इस घटना और काले क़ानून आर्म्ज़ फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट 1958 पर कई दस्तावेज़ी फिल्मों का निर्माण हुआ. तकनीक की सुलभता की वजह से इन फिल्मों और इस 30 सेकण्ड के वीडिओ की सैकड़ों की संख्या में प्रतिलिपि बनी और इस काले कानून का प्रतिपक्ष मजबूती से सारे देश में निर्मित हुआ. आज कैसी भी सरकारी जवाबदेही इस वीडिओ रिकार्डिंग के समक्ष परास्त होती है और संघर्ष करते हुए लोगों के हौसले को मजबूत बनाती है.
सवाल यह है कि आप तकनीक का कैसा इस्तेमाल करना चाहते हैं? इससे अपने लोगों की लड़ाइयों को मजबूत बनाना चाहते हैं या सत्ता के दलाल बनकर अपने ही लोगों के दुश्मन.
(यह लेख सबसे पहले मनोहर नायक के संपादन में निकलने वाले अखबार ‘समय की चर्चा’ में छपा था. काफल ट्री में प्रकाशन की अनुमति देने हेतु दोनों का आभार.)
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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