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हिमालय में प्लूटोनियम – सी आई ए का एक और अपराध

शीतयुद्ध के दौरान सी आई ए ने कुछ कामों को हर सूरत में सरंजाम देना ही था – कम्यूनिज़्म को रोकने के लिए कैसी भी कीमत चुकाई जा सकती थी और किसी भी तरह की तकनीकी बाधा को पराजित किया जा सकता था. और चीन के मिसाइल कार्यक्रमों की ख़ुफ़िया सूचना प्राप्त करने के लिए कोई भी पहाड़ फ़तह किया जा सकता था.

लोप नोर में चीन द्वारा किये जा रहे मिसाइल परीक्षणों की जासूसी करने के लिए सी आई ए ने एक हैबतनाक ऑपरेशन किया था – दुनिया के चुनिन्दा पर्वतारोहियों की मदद से नन्दा देवी और नन्दा कोट की चोटियों पर परमाणु ऊर्जा से चलने वाली लिसनिंग डिवाइसेज़ स्थापित करने का प्रयास. लेकिन इस हिमालयी अभियान में सी आई ए ने लिसनिंग डिवाइसेज़ के लिए इस्तेमाल होने वाले प्लूटोनियम नामक तत्व के चलते होने वाले दुष्परिणामों को पूरी तरह नज़र अन्दाज़ कर दिया था जिसका खतरा उस मिशन में शामिल लोग आज तक महसूस करते हैं.

1966 में चार पाउन्ड प्लूटोनियम नन्दादेवी में खो गया था और आज तक कोई नहीं जानता कि उसका क्या हुआ या उन शेरपाओं और पर्वतारोहियों का जो इस अभियान में शामिल थे. मालूम तो यह भी नहीं कि जिस चोटी की बर्फ़ पिघल कर गंगा नदी में जाती है, उस गंगा के किनारे बसने वाले लोगों के साथ क्या क्या हो चुका है और होने वाला है.

न्यू यॉर्क की थंडर्स माउथ प्रेस द्वारा 2006 में प्रकाशित पीट ताकेदा की लिखी पुस्तक एन आई ऑन टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड में इस ख़ौफ़नाक अभियान के विस्तृत विवरण पढ़ने को मिलते हैं.

यह बहुत सीधा सा मिशन था. यह सैटेलाइट और डिजिटल उपकरणों से पहले का समय था जब सामान्य रेडियो उपकरण लगी हुई मिसाइलें सन्देश भेजा करती थीं जिन्हें कोई भी अपने रेडियो रिसीवर पर प्राप्त कर सकता था.

हिमस्खलन के बाद बाहर निकलते पीट ताकेदा

अपने सिग्नल्स को दुश्मनों से दूर रखने की नीयत से चीन ने अपनी मिसाइलों का परीक्षण लोप नोर में किया. बाहरी संसार का कोई भी व्यक्ति इन सिग्नल्स को सिर्फ़ और सिर्फ़ हिमालय की चोटी से ही सुन सकता था. सो सी आई ए ने निर्णय लिया कि वह 25000 फ़ीट की ऊंचाई पर नन्दा देवी कॊ चोटी पर अपना रिसीवर स्थापित करेगी.

हिमालय की कठिन परिस्थितियों के कारण यह असम्भव था कि इस रिसीवर की देखभाल कोई मानव कर पाता. चूंकि रिसीवर की बैटरियां लगातार बदली जानी होती थीं, सी आई ए ने इसका समाधान खोज निकाला. अमरीकी अन्तरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले रेडियोसोटोपिक थर्मल जेनेरेटर यानी आर टी जी के इस्तेमाल का निर्णय ले लिया गया.

1965 में एवरेस्ट फ़तेह करने वाले पहले भारतीय कैप्टेन एम एस कोहली को फ़्रिज के आकार के इस उपकरण को नन्दादेवी की चोटी पर पहुंचाने के अभियान हेतु सारी तैयारियां करने का ज़िम्मा सौंपा गया.

कोहली ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं. विवरणों में कुछ अन्तर होने के बावजूद दोनों का नैरेटिव करीब करीब एक सा है.

1965 के पतझड़ में एक भारतीय-अमरीकी दल नन्दादेवी के बेस कैम्प तक पहुंचा. इकत्तीस लोगों के इस दल को बेस कैम्प में हैलीकॉप्टर द्वारा उक्त रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम 238 की सात छड़ें मुहैय्या कराई गईं जिन्हें चोटी तक पहुंचाने में तीन सप्ताह लगे.

जब ये लोग चोटी पर पहुंचने ही वाले थे, मौसम बेतहाशा ख़राब हो गया. पर्वतारोहण का सीज़न समाप्त हो चुका था और रिसीवर स्थापित करने का कोई भी प्रयास अब अगले साल से पहले सम्भव न था. बजाय इस तमाम उपकरणों को वापस नीचे लाने की जेहमत उठाने के, यह तय किया गया कि उन्हें एक चट्टान से बांध कर वहीं छोड़ कर अगले साल आ कर काम को अंजाम दिया जाय.

अगले साल वसन्त में जब ये पर्वतारोही वापस उस जगह पहुंचे तो यह देख कर उनके होश उड़ गए कि वह पूरी की पूरी चट्टान बर्फ़ अपने साथ नीचे कहीं बहा ले गई थी.

रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम की छड़ें सम्भवतः हज़ारों फ़ीट नीचे किसी ग्लेशियर में दफ़न थे. इन्हीं ग्लेशियरों से उत्तर भारत के मैदानी इलाकों को पानी मिलता है. बेतहाशा प्रयास किये गए कि इन चीज़ों को वापस खोज लिया जाए पर ऐसा हो न सका और आखिरकार सी आई ए ने अपने हाथ खड़े कर दिये.

दर असल सी आई ए के पस्त पड़ जाने का मुख्य कारण कुछ और थी – आर टी जी के भीतर धरे प्लूटोनियम की नैसर्गिक ऊष्मा के कारण आर टी जी सीधे सीधे बर्फ़ को गलाता हुआ किसी ग्लेशियर के बीचोबीच पहुंच चुका था.

इस पूरे किस्से के दो पहलू हैं. अच्छा तो यह होगा कि आर टी जी किसी चट्टान पर जा कर टिक गया हो. लेकिन इसका बुरा पहलू यह है कि बर्फ़ और चट्टान के किसी पिण्ड ने आर टी जी की कठोर परत को तोड़ दिया हो और प्लूटोनियम बहता हुआ गंगा में न पहुंच गया हो.

1978 में जब आउटसाइड पत्रिका में हावर्ड कोन नामक पत्रकार ने द नन्दा देवी केपर शीर्षक अपने लेख में इस बात का पर्दाफ़ाश किया तो जाकर भारत की सरकार चेती.

भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने देश को आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीकठाक था और इसे लेकर मामला रफ़ादफ़ा करने वाले कुछ सरकारी दस्तावेज़ पेश किये. जब मैंने खुद इस मिशन से सम्बन्धित अमरीकी अधिकारियों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि ताकेदा की किताब को साइन्स फ़िक्शन से अधिक कुछ नहीं माना जाना चाहिये. अमरीकी सरकार के किसी दफ़्तर में इस अभियान को अधिकृत रूप से रेकॉर्ड नहीं किया गया है.

जैसा कि भारत सरकार की रिपोर्ट ने संकेत किया था आर टी जी से यदि प्लूटोनियम निकला भी होगा तो आबादी वाले हिस्सों तक पहुंचने से पहले ही वह गंगा के किनारे रेत-कंकड़ में धंस गया होगा. और यदि वह मैदानी इलाके में प्रवेश कर भी गया होगा तो उसकी शक्ति नदी के अपार जल के कारण बेहद क्षीण हो गई होगी और उस के कारण किसी भी किस्म का स्वास्थ्य संकट नहीं हो सकता.

तो सिद्धान्ततः कोई बड़ी दिक्कत नहीं थी. लेकिन प्लूटोनियम को लेकर वास्तविकता में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता – खास तौर पर 1960 के दशक में आर टी जी में बतौर ईंधन इस्तेमाल किये जाने वाले प्लूटोनियम को लेकर. 1941 में ग्लेन सीबोर्ग और उसकी टीम द्वारा बनाए गए प्लूटोनियम के बारे में कहा जाता है कि यह इस पृथ्वी को बिलॉन्ग नहीं करता और उसका व्यवहार ऐसा होता है जैसे उसे यहां रहना कतई नापसन्द है.

परमाणु विज्ञान के हिसाब से देखा जाए तो प्लूटोनियम अपने करीब बीस आइसोटोप्स के ऐसे उबलते लौंदे की तरह अस्तित्वमान रहता है जो लगातार टूटते और बनते रहते हैं और लगातार रेडियेशन छोड़ते रहते हैं.

भौतिकविज्ञान और रसायनविज्ञान की दृष्टि से भी यह तत्व बेहद खतरनाक माना जाता है – खासतौर पर मानव जीवन के लिए. इसका एक माइक्रोग्राम मनुष्य के लिये जानलेवा हो सकता है.

1960 के दशक में अमरीकी सरकार द्वारा जारी किये गए दिशानिर्देशों के अनुसार किसी एक जगह पर अधिक से अधिक चार पाउन्ड प्लूटोनियम का भण्डारण किया जा सकता था. नन्दा देवी में इतना ही प्लूटोनियम रखा गया था.

अमरीका इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ. अगले ही साल एक और आर टी जी को नन्दा देवी के समीप 22,500 फ़ीट ऊंची एक और चोटी नन्दा कोट पर सफलतापूर्वक इन्स्टॉल कर दिया गया. कुछ महीनों बाद उस से सिग्नल आना बन्द हो गए. बर्फ़ की वजह से मशीन ने काम करना बन्द कर दिया था. अच्छी बात यह थी कि आर टी जी को वापस लाया जा सकता था. अक्टूबर 1967 में यह काम किया गया. इन तीनों अभियानों में काम करने वाले शेरपाओं को रेडियेशन से बचाने के कोई उपाय नहीं किये गए थे. फ़ौजियों और पर्वतारोहियों को भी जो एन्टी-रेडियेशन बैज दिए गए थे उनकी गुणवत्ता पर किसी तरह का यकीन नहीं किया जा सकता था.

हम शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि असल में वहां हुआ क्या था.

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