आज फूलदेई है, प्रकृति की गोद में पलने और बढ़ने वाले पहाड़ियों का पर्व फूलदेई. प्रकृति का हर रंग पहाड़ियों के जीवन में मौजूद रहता है दुनियादारी की भाषा में इसे ही पहाड़ियों की लोक संस्कृति कहा जाता है. पहाड़ियों की विशिष्ट संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है फूलदेई.
(Phooldei 2024)
पहाड़ियों का प्रकृति से लगाव उनकी लोक संस्कृति में भर-पूर दिखता है. पहाड़ी समाज हर ऋतु का स्वागत त्यौहार की तरह करता है. कुमाऊँ और गढ़वाल मंडल में जिसे फूलदेई कहा जाता है उसे जौनसार बावर में गोगा कहते हैं. चैत के महीने की पहली गते यानी चैत्र माह की पहली तिथि को पहाड़ के लोग फूलदेई का त्यौहार मनाते हैं.
(Phooldei 2024)
उत्तराखंड में चैत महीने की शुरुआत संक्रान्ति के दिन से मानी जाती है क्योंकि यहां सौरपक्षीय पंचांग को अधिक मान्यता दी जाती है. महिलायें सुबह सवेरे घर की लिपाई-पुताई करती हैं और बच्चे नहा-धोकर पिछले दिन तोड़े गये फूल इकठ्ठा कर चल पढ़ते हैं बसंत के स्वागत को. फूल और चावल के दाने से बच्चे गांव के हर घर की देहली का पूजन करते हुये गीत गाते हैं:
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार…फूल देई-छ्म्मा देई.
फूल देई माता फ्यूला फूल
दे दे माई दाल-चौल.
इस दौरान देहली कफ्फू, भिटोर, आडू-खुमानी आदि के फूलों से पूजी जाती है. देहली पूजने के बाद बच्चों को घर की सबसे बड़ी महिला चावल, गुड़ और कुछ पैसे दिये जाते हैं. बच्चे इन चावलों को अपने घर ले जाते हैं इन चावलों से रात को घर में त्यौहार मनाया जाता है.
फूलदेई के दिन अब पहाड़ की पतली पगडंडियों पर एक घर से दूसरे घर जाती बच्चों की टोलियां अब देखने को कम मिलती हैं. हां पिछले कुछ सालों से सोशियल मिडिया में देश-विदेश में रहने वाले पहाड़ियों की तस्वीरें भी खूब देखने को मिलती हैं.
(Phooldei 2024)
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फूलदेइ का यह त्यौहार भी अब वैसा नहीं रहा, अब यह प्रकृति प्रधान ना होकर पर्व प्रधान हो गया है। अभी मैं कुछ दिनों पूर्व ही गुप्तकाशी से गुजरा था तब वहाँ देखा, बच्चे बसों के अंदर घुस कर सबको टीका लगा रहे हैं, और बदले में पैसे माँग रहे हैं। गाँव के बच्चे तो अभी इन सब चीजों से बचे हुए हैं पर मार्किट के बच्चे जब ऐसा कर रहे थे तब दिल्ली में शनिदान माँगने वालों की तरह प्रतीत हो रहे थे। उनकी थाली में वन से चुने उन फूलों की कमी थी। एक पहाड़ी व्यक्ति तो ये सब समझ जाएगा कि यह फूलदेई पर कर रहे हैं। पर बाहरी व्यक्ति तो यही सोचेगा कि यह भी एक भिक्षा माँगने का तरीका है। हमें अपनी तकनीक में नवाचार लाना है, अपनी संस्कृति में नहीं।