बटरोही

पवनदीप राजन: हजारों साल बाद अंकुरित हुआ कालिदास का रोपा गया पौधा ‘कुटज’

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मशहूर निबंध है ‘कुटज’. गिरिकूट यानी पहाड़ों की चोटी पर पैदा होने वाला वृक्ष है कुटज. कठिन पहाड़ी परिस्थितियों के बीच पैदा होने पर भी अपने अतुलनीय सौन्दर्य से समूचे हिमालय प्रदेश को मुग्ध और सुवासित करने वाला यह फूल कालिदास के दौर में समूचे आर्यावर्त को अतुलनीय कला-ऊर्जा प्रदान करता था.
(Pawandeep Rajan)

अपने निबंध ‘कुटज’ में द्विवेदीजी लिखते हैं, “कालिदास ने ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कमबख्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा. चम्पक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविन्द नहीं, फ़क़त कुटज के फूल. सुस्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभकिरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावतंसा, या फिर पौरुषव्यंजक नाम अकुतोभय, गिरिगौरव, कूटोल्लास, अपराजित आदि कोई भी नहीं… कुटज के ये फूल मिले!… जो कालिदास के काम आया हो उसे ज्यादा इज्जत मिलनी ही चाहिए थी, मिली कम है!”

कैसी विडंबना है कि हजारों साल पहले पैदा हुए कालिदास मानव जाति को इस पहाड़ी पुष्प के जरिये अनोखा सन्देश देते हैं:

भित्वा पाषणपिठरं छित्वा प्राभंजनीं व्यथाम्पी
त्वा पातालपानीयं कुटजश्चुम्बते नभः

जीन चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफ़ान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश को चूमकर, अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो!… कुटज का यही उपदेश है. जीना भी एक कला है, लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है. जियो तो प्राण डाल दो जिन्दगी में, मन ढाल दो जीवन रस के उपकरणों में. ठीक है, लेकिन क्यों? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है! याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे. उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है. पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती – सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं – ‘आत्मनस्तु कामायसर्व प्रियं भवति.’ विचित्र नहीं है यह कर्त? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए. सुना है पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही है. सुन के हैरानी होती है. दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है – है केवल प्रचंड स्वार्थ. भीतर की जिजीविषा – जीते रहने की प्रचंड इच्छा – ही अगर बड़ी बात हो तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाये गए हैं, शत्रु-मर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गाई जाती हैं, झूठ है. इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है. लेकिन अन्तरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ढंग से सोचना है. स्वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्य है, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है. क्या है?
(Pawandeep Rajan)

कुटज क्या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख मांगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्मोन्नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अंगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दांत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झांकता. जीता है और शान से जीता है – कोई वास्ते, किस उद्देश्य से? कोई नहीं जानता. मगर कुछ बड़ी बात है. स्वार्थ के दायरे से बाहर की बात है. भीष्म पितामह की तरह अवधूत की भाषा में कह रहा है, चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाये उसे शान के साथ हृदय से बिलकुल अपराजित होकर सोल्लास ग्रहण करो. हर मत मानो. सुख और दुःख तो मन के विकल्प हैं.

कुटज अपने मन की सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता. मनस्वी मित्र, तुम धन्य हो.

(कुटज: हजारीप्रसाद द्विवेदी)         

उज्जयिनी प्रवास से लौटने के बाद काश्मीर-कुमार कालिदास ने देवगिरी की श्रृंखलाओं से लेकर इसी पुष्प का बीज अपने गृह-क्षेत्र में बोया था जहाँ हजारों साल के बाद पवन दीप के रूप में हमारी वर्तमान सदी में उसका अंकुरण हुआ है.
(Pawandeep Rajan)

इतिहास मानो साक्षात् लौट आया हो! भारतीय इतिहास में अनेक कालिदासों का उल्लेख मिलता है जिनका समय भी ईसा की आरम्भिक से लेकर दसवीं सदियों के बीच माना जाता है. कालिदास अनेक हैं मगर ‘कुमारसंभव’, ‘मेघदूतम’, ‘शाकुंतलम’ आदि का रचनाकार तो एक ही है, जो अपने सौन्दर्य, बहुमुखी प्रतिभा, अद्भुत काव्य-बिम्बों, प्रतीकों और अपनी सांस्कृतिक-जड़ों की सुवास के कारण युग-युगों तक भारतीय साहित्य का मानक बन गया था. आज तक वह ‘अस्त्युत्तरस्यां दिशि’ इस महादेश का पर्याय बना हुआ है.

यही कारण है कि इस कवि के बारे में अनेकों किम्वदंतियां प्रचलित रही हैं, जिनमें सबसे प्रचलित यह है कि चौथी-पांचवी सदी के सम्राट चन्द्रगुप्त का समकालीन यह पहाड़ी युवक पर्वतीय प्रदेश से पाटलिपुत्र पहुँच कर चन्द्रगुप्त के नव-रत्नों में शामिल हो गया था. अपने सौन्दर्य और प्रतिभा के बल पर उसने राजकुमारी का दिल जीत लिया था मगर वह राजकुमारी के साथ शास्त्रार्थ में पराजित हो गया था. उसने देवी काली की पूजा की जिसने प्रसन्न होकर उसे संसार की सबसे बड़ी काव्य-प्रतिभा के रूप में दसों दिशाओं में ख्याति अर्जित करने का वरदान दिया.
(Pawandeep Rajan)

तमाम किस्से हैं; कुछ ने उसे कश्मीर- राज्य का कुमार माना है तो कुछ ने उज्जयिनी का, कुछ में वह देवगिरि की वादियों में बंजारों की तरह घूमता अपनी जोयाँ मुरली बजाता हुआ अपनी प्रकृति-प्रेयसी के विरह में भटकता पहाड़ी ग्वाला दिखाई देता है. ‘मेघदूतम’ के हिमालय वर्णन की वजह से लोग उसका अनिवार्य सम्बन्ध पर्वत-प्रदेश से मानते हैं. यह तो तय है कि जिस प्रकार हिमालय को इस कवि ने पृथ्वी का मानदंड मानते हुए अपने काव्य में समूचे भारतवर्ष का व्यापक चित्र खींचा है, वह इस बात की गवाही देता है कि वह राज घराने का कोई अभिजात कुमार नहीं, एक सामान्य पहाड़ी युवक था जिसने अपनी स्वर-लहरियों के बीच भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता को रेखांकित करते हुए सारा भारतवर्ष घूमा था.

पवनदीप राजन की हालिया उपलब्धि के कारण ये अतिरंजित-सी लगने वाली बातें अनायास दिमाग में उमड़ने लगी हैं. यह युवा मेरी स्मृतियों के इतिहास के झरोखे से उदित हुआ कोई जादुई शख्सियत नहीं है, ऐसे वर्तमान में से अंकुरित है जिसे बिलकुल अभी-अभी हमने अपनी नंगी आँखों से देखा है. दुनिया के एक-एक बच्चे, एक-एक युवा और प्रौढ़ ने. दो साल की उम्र से शुरू कर दो दशक पूरे करते-करते अनेकों संगीत शैलियों और वाद्य-यंत्रों का उस्ताद बन गया यह बच्चा किसी भी समाज के लिए मिसाल हो सकता है. वह हर पल अपना प्रमाण खुद रहा है.
(Pawandeep Rajan)

खास बात यह है कि पवनदीप की जड़ें उस संभ्रांत, अभिजात और कुलीन माहौल से नहीं, अपनी धूल-मिट्टी और उन स्मृतियों में से उत्पन्न हैं, जिनकी ओर इतिहास ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया. उन स्मृतियों को कभी किसी का सहारा नहीं मिला. उसके पीछे किसी जातीय इतिहास, कलाओं और पुरखों की कोई बैसाखी नहीं थी. ऐसी बैसाखी तो कतई नहीं जिसके सहारे वह कठिन पहाड़ी रास्तों को चढ़ पाता. वास्तविकता तो यह है कि अगर ऐसे सहारे उसे मिले होते तो वह कभी इन ऊँचाइयों तक पहुँच भी नहीं पाता. स्मृतियाँ थीं जरूर, लेकिन वे उस समाज की थीं, जिसने उसे अप्रत्यक्ष ढंग से हमेशा रोका ही था. उत्तराखंड के कुलीन-तंत्र और इतिहास के बीच से बिना उसे पीछे धकियाये और बिना उनका नोटिस लिए वह इतिहास की पुनर्रचना करने का साहस और संकल्प लेता है और एकाएक जंगली फूल की तरह भारतीय रंगमंच पर उभर आता है. इसीलिए मैंने उसे कालिदास के बोये कुटज के बीज का अपनी ही धरती पर प्रथम-अंकुरण कहा. उसकी दादी, पिता और बुआ की स्मृति-परम्परा ने उसे जन्म दिया, इसमें कोई संदेह नहीं, मगर उसका अभ्युदय उस कुलीन परम्परा को सहज ही ख़ारिज करता है जो जाति, धर्म और कुलीनता के दंभ के बल पर युग-युगों से जन्म लेकर होनहार प्रतिभाओं को हाशिये में धकेलती रही है और बिना किसी अपराध के उन्हें दण्डित करती रही है.

खास बात यह है कि पवनदीप उन्हें अपने रास्ते से हटाता नहीं, वे खुद-ब-खुद उसके रास्ते से हट जाते हैं और उसके लिए राजपथ बिछा देते हैं. उसे इस बात की फ़िक्र नहीं है कि कुलीनों के अवशेष धीरे-धीरे उसके परिवेश के बीच से एक दिन नष्ट हो चुके होंगे और नए आत्म-विश्वास के साथ संस्कृति का नया वितान उनकी जगह ले चुका होगा. इसीलिए यह परिवर्तन ऐतिहासिक नहीं, उससे अलग और खास है, जिसे इतिहास के ढांचे में ढली शब्दावली से नहीं समझा जा सकता, सिर्फ भविष्य की आँखों से महसूस किया जा सकता है.

पवनदीप के लिए आशीर्वाद और शुभकामनाएं जैसे शब्द पर्याप्त नहीं है. वह इस देश का नया कुटज है जो इतिहास का सच बन चुका है. कुटज के बीज से उसी का तो पौंधा अंकुरित होगा; जरूर वह अतीत के वृक्ष का नया संस्करण होगा. और जब कोई स्मृति नयी जरूरतों के हिसाब से आकार ग्रहण करती है, तब वह अधिक सुन्दर और कलात्मक बन जाती है. इतिहास चाहे भी तो उसे बदल सकने में समर्थ नहीं है, अगर कोई बदल सकता है तो खुद व्यक्ति ही. चाहे वह कालिदास हो या पवन दीप.
(Pawandeep Rajan)

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: उत्तराखंड में ओबीसी बिल के निहितार्थ: एक तत्काल प्रतिक्रिया

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • इस सुंदर अंकन के लिए आपका आभार बटरोही जी !
    कैसा अनुपम मोती चुना है आपने - कुटज !
    सारगर्भित, प्रभावी, मर्मस्पर्शी !
    विनम्रता के साथ कृतज्ञता !

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago