मेरा बचपन-3 (आखिरी क़िस्त) (डीडी पन्त की अप्रकाशित जीवनी के अंश
पिछली कड़ी का लिंक : एक एसडीएम को देखकर मुझे खूब पढ़ने की इच्छा हुई
-देवी दत्त पंत
एक घटना याद आती है. मैं आठ या नौ साल का रहा हूंगा. हमारा स्कूल घर से दो -तीन फलांग की दूरी पर था. हम सुबह-सुबह ही निकल जाते थे. यानी सुबह उठे. पहला काम जो होता था वह सुबह उठो टट्टी-पेशाब करो, धारे पर हाथ मुंह धोओ. घर चले आओ. खाने के लिए दूध-दही जो भी मिल जाय, खाओ. फिर स्कूल के लिए निकल पड़ो. एक बार यह हुआ कि हाथ मुंह धोने पर पहुंचा तो जाने कैसे मन हुआ कैसे सीधे स्कूल चला जाय. शयद बच्चोंमें यह होड़ हाती हो कि कौन सबसे पहले स्कूल पहुंचे. तो मैं मुंह अंधेरे ही स्कूल पहुंच गया. वहां पहुंचकर मुझे डर लगा. स्कूल में भूमिया का मंदिर था. रात को सोते वक्त मुझे लगा कि एक शेरनुमा जानवर मेरे पास आया है. मैंने उसे कहा- जा, तू यहां क्या कर रहा है. लेकिन वह था कि पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा था. मैं हंसने लगा और इसी तरह की अजीब-अजीब हरकतें करने लगा. उस वक्त पिताजी घर पर ही थे. उन्होंने चिमटे को लाल गरम किया और मुझे दिखाया. मेरे मुंह से निकला- मैं गया, मैं गया. फिर डर कर सो गया. यह घटना मुझे आज भी अच्छी तरह याद है.
हमारे स्कूल के अध्यापक साधारणतया अच्छे थे. कई हमारे घर पर भी रहा करते थे और पिताजी से गप्पें लड़ाया करते थे. जिन्हें मैं अच्छे अध्यापक कह सकता हूं, वह मिडिल स्कूल में मिले. उनका नाम अम्बा दत्त जोशी था. उनके बच्चों ने बाद में नैनीताल आकर पढ़ाई की. उनका एक बेटा आजकल दिल्ली में आइएएस है. जोशी जी बड़े अच्छे अध्यापक थे. उनकी खास बात यह थी कि वह प्रतिभा को पहचानते थे. एक दिन मुझे बुला कर बोले-देख तू मेहनत करना, जरूर अच्छा आदमी बनेगा. इसी तरह की कुछ और बातें उन्होंने कहीं. यद्यपि अन्य अध्यापक भी बुरे नहीं थे. बाद में बीएचयू में पढ़ते हुए एक और बेमिसाल अध्यापक प्रो. आसुन्डी मिले. वह दक्षिण भारतीय थे. फिर रमन साहब के साथ रहने का सौभाग्य हुआ. रमन भी बहुत अच्छे अध्यापक थे. हमेशा सही राय देते थे. तब प्राइमरी या मिडिल की पढ़ाई में ऐसा कोई खास अंतर नहीं था. सिवाय अंग्रजी के अध्यापक के, किसी और ने मुझे कोई नई या दिलचस्प बात बताई हो, मुझे याद नहीं है. बेशक सभी ईमानदार थे. मेहनत से पढ़ाते थे, अच्छा लगता था.
बचपन में मुझे याद है पिता जी वैद्यकी किया करते थे. पैसा तो नहीं था. पर वह दरियादिल इंसान थे. तमाखू-चाय आदि लोगों को पिलाते थे. चार-छः लोग मिल कर गप मारते थे. और उनके साथ बैठ कर मैं उनकी गप सुना करता था. बड़ी अच्छी-अच्छी बातें होती थीं. एक दिन का किस्सा, मुझे हमेशा याद आता है. हमारे गांव से नीचे बसे गांव में एक मुसलमान रहा करता था. पिता जी की महफिल में उसके साथ पांच-सात और लोग बैठे गप मार रहे थे. वह अपने धर्म की तारीफ के पुल बांध रहा था कि हमारे यहां जात पात नहीं है, सब बराबर है. उस वक्त गांव का एक बूढ़ा ओड़ भी वहां बैठा था. हम उसे रमदा नाम से बुलाते थे. वह बड़ा हंसमुंख और भला इंसान था. मुसलमान की बात सुन कर बोला, ‘ऐ शेख जी! ठीक है तुमने भात भी खाया, डुबके भी खाए, तुमने मडवे की रोटी भी खाई, गेहूं की रोटी भी खाई, सब खा पीकर के एक पंचनाज का बाल बन गया. इससे क्या होता है शेख जी?’ उसकी बात सुनकर लोग खूब हंसे. तो इस तरह की निष्कपट बातें हुआ करती थीं. किसी के मन में कोई मैल नहीं था. कोई मेले के किस्से सुनाता था, कोई मंदिर की बात बताता था.
इन्हीं दिनों मैं प्राइमरी पास कर पहली बार घर से बाहर पढ़ने निकल. तब दर्जा 4 का इम्तेहान सब डिप्टी इन्सपेक्टर लेता था. इसे पास करने के बाद मुझे आगे की पढ़ाई के लिए कांडा भेजे जाने की बात होने लगी. उन दिनों पूरे अल्मोड़े जिले में केवल पांच मिडिल स्कूल थे. दो अल्मोड़ा शहर में थे- एक टाउन हाल और दूसरा नार्मल स्कूल. बाकी तीन जिले भर में थे. एक खेतीखान में, एक कांडा में और एक मेरे ख्याल से सोमेश्वर में था. बस इतने ही स्कूल थे, लेकिन पढ़ाई लिखाई के हिसाब से थे बहुत अच्छे. बड़ी शोचनीय बात हैकि तब संसाधनों के अभाव में भी पढ़ाई होती थी, आज क्यों नहीं होती? आज हम इतनी बातें करते हैं! कांडा में मैंने तीन साल पढ़ाई की और फिर इम्तेहान देने अल्मोड़ा आया. इसके बाद आठवीं कक्षा में मेरा एडमीशन गवर्नमेंट इंटर कालेज में हो गया. यहां मैंने इंटरमीडियट तक पढ़ा. इसे बाद दिक्कत आई कि अब आगे कैसे पढ़ा जाए. डिवीजन भी इण्टर में मेरी सेकेण्ड थी. आगे पढ़ने का कोई साधन नहीं था. ताज्जुब की बात है इसी उधेड़बुन में घर लौटा तो पाया कि पिताजी मेरी शादी तय कर चुके थे.
मेरी शादी का किस्सा भी बड़ा मजेदार है. शादी को लेकर मैं भी उत्सुक था. दो कारणों से -पहला तो यह कि ससुराल से आगे पढ़ने के लिए पैसा मिल जाएगा. दूसरा, उम्र भी इस आकर्षण की वजह थी.
हमारे पड़ोस के गांव का एक ठाकुर बैतड़ी (नेपाल) में लकड़ी के ठेके लिया करता था. वहां वहएक सम्पन्न नेपाली भट्ट ब्राह्मण परिवार में ठहरता था. भट्ट जी के विवाह योग्य कन्या थी. सो उन्होंने ठाकुर साहब से कहा कि यहा पढ़े-लिखे लड़के मिलते नहीं है, इसलिए तुम अपने इलाके में देखना यदि कोई योग्य वर मिले तो बात करना. तो ठाकुर साहब हमारे पिता जी के पास यह प्रस्ताव लेकर आये. शायद घर की सम्पन्नता देखकर पिताजी मेरी शादी को राजी हो गये. इस तरह मेरी बारात नेपाल के बीहड़ बैतड़ी जिले में गयी. पैदल रास्ता, पहुंचने में तीन दिन लगे.
लेकिन शादी के बाद मेरी उम्मीदों पर पानी फिर गया. ससुर ने कहा कि अगर पहले जैसे बात होती तो मैं जरूर मदद करता. आज तो मेरी अपनी हालत बहुत खराब है. इस तरह से ससुराल के बूते आगे पढ़ने की बात खास बनी नहीं. हां आगे चलकर कर मेरी सास ने कई मौकों पर मेरी बहुत मदद की. वह बड़ी कर्मठ और भली स्त्री थी.
शादी के बाद पिताजी भी चाहते थे कि मैं आगे पढूं. उन्होंने इस बाबत मुझे अपने ससुर को पत्र लिखने को कहा. मैंने उन्हें कर्ज देने को कहा. जवाब आया- हमारी हालत बहुत अच्छी नहीं है और पहले जैसी बात होती तो 30-40 रू देते. उनका मतलब था 30-40 रू महीना, जो उन दिनों काफी हुआ करता था. इतने में अपना काम चल सकता था. उनकी विवशता से मैं बैचेन हो गया. पैसे के इंतजाम के बगैर आगे क्या होगा. खैर मैं घर से निकल पड़ा. अल्मोड़ा में मेरा एक दोस्त था-भूपाल सिंह. उसके पता रतन सिंह रावत डिप्टी साहब थे. भूपाल अब इस दुनिया में नहीं रहा. तब वह बनारस में इंजीनियरिंग कर रहा था. उसने बनारस जाकर मालवीय जी से मदद मांगने की सलाह दी और कहा कि वह कुछ न कुछ इंतजाम जरूर कर देंगे. मैं उसके साथ बनारस को निकल पड़ा. वहां मैंने एडमीशन भी ले लिया. वहां तब गोविन्द बल्लभ पंत नाम के एक अध्यापक हुआ करते थे, उन्होंने ढाढस बंधाया कि फीस माफ हो जाएगी, चिन्ता न करो. तीन महीने तक मैं बिना पैसे के ही रहा. मैस में खाना खाता था, कालेज जाता था और फिर जब दशहरों की छुट्टियां पड़ी तो मैं घर लौट आया.
घर पहुंचकर फिर सवाल खड़ा हुआ कि वापस कैसे जाऊं. पिताजी किसी मुकदमे के सिलसिले में लोहाघाट गये हुए थे. यह सोचकर अल्मोड़ा लौट आया कि दोस्त से उधार ले लूंगा लेकिन तब तक वह जा चुका था. मेरे पास पैसा नहीं था, सो वापस गांव लौटना पड़ा. मुझे वापस देख पिताजी बड़े नाराज हुए हुए बोले -तूने बिरादरी में हमारी नाक कटा दी. मैंने जवाब दिया आप मुझे साठ रुपये दीजिए. तीन महीने का खाने का पैसा चुकाना है. खाने पर तब आठ रुपये महीना खर्च आता था. हास्टल की फीस और आने-जाने का खर्च अलग. बड़ी मुष्किल से तीन-चार दिन में चालीस रुपये इकट्ठे हो पाए. खैर मैं चल दिया.
बनारस पहुंचा तो पता चला कि सास ने भी साठ रुपये भेजे हुए थे. बहुत संवेदनशील और समझदार महिला थीं वह. अपना हिसाब-किताब रखती थीं और आकस्मिक जरूरतों के लिए पैसा जमा रखती थीं. तब से वही मुझे कभी-कभार चालीस-पचास रुपये भेजती थीं, जो मेरे लिये काफी होते थे. फीस माफ हो चुकी थी. पिताजी के पास पैसे नहीं थे, लेकिन कभी-कभार वह भी भेज देते थे. अल्मोड़े तक उन्होंने बराबर पैसे दिए. बनारस जाने का फैसला मेरा अपना था, यद्यपि चाहते वह भी थे.
(डीडी पन्त की अप्रकाशित जीवनी के अंश आशुतोष उपाध्याय के सौजन्य से ‘पहाड़’ में प्रकाशित हो चुके हैं. वहां से साभार)
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