पहाड़ में लड़के का परदेश जाना बेटी की विदाई से कम नहीं होता था. जो लोग हमारी उमर के हैं या बड़ी उमर के हैं या अब भी जो लड़के गांव से नौकरी के लिए जाते हैं सबको लगभग यही शिक्षा मिलती हैं. जिस-जिस ने भी ये बातें महसूस की होगी वो जानता होगा इन बातों का महत्व, उसकी खुद की उपयोगिता, उसके कर्तव्य, गांव पहाड़ के प्रति उसके कर्तव्य और मां बाप गांव के लिए वो कितना जरूरी है और उसके लिए भी घर गांव का होना कितना जरूरी है?
(Pahad Article By Vinod Pant)
जब बेटे के परदेश जाने का दिन आता था घर का माहौल एक दिन पहले से उदासी भरा हो जाता था. सभी परिवारजन या यूं कहिये पास पड़ोस के लोग भी उसे किसी न किसी तरह समझाकर उसके साथ होने का अहसास कराते थे ताकि वो परदेश जाकर उनकी सीख, उनकी बातों, उनके प्यार और उनकी यादों के सहारे कठिन दिन काट सके. ईजा सोचती कि इसके लिए क्या पकाऊ? क्या खिलाऊ? वहां जाकर खाना मिलता होगा कि नहीं… मिलता भी होगा तो मां के हाथ का कहां? बाबू सोचते कि ऐसा क्या करूं कि ये परदेश जाकर दिक्कत परेशानी मे न पड़े. आमा-बूबू सोचते हमारी उमर हो गयी क्या पता ये हमें अगली बार देख पाएगा कि नहीं?
नीचे लिखे वाक्यों को पढोगे तो आपको पता चलेगा कि मां बाप बच्चे को रोजगार के लिए भेज तो रहे है साथ ही उसे ऐसा एहसास भी करा रहे हैं कि परेशान न होना हम हैं तेरे साथ. कुछ न कर पाये तो घर तो है ही. बस उन्हें बेटा राज खुशी चाहिये. परदेश जाते समय बेटा जितना हो सके ले जाय और वापसी में कुछ भी न लाये क्योकि उन्हें लगता है बोझा होगा रास्ते में परेशानी होगी. जबकि बोझा तो जाते समय भी हुआ ही. जब बेटा घर आते समय ईजा के लिए साड़ी, बाबू के लिए कुर्ता और बूबू के लिए तमाकू की पिण्डी लाता था तो उसे पाकर गद्गद तो होते लेकिन सोचते अपना पेट काटकर तो नहीं ला रहा इसलिए कहते – तदुक सामन किलै लाछै. हमर पास छनै छ…
(Pahad Article By Vinod Pant)
ईजा कहती – मेर पास तो भौत साड़ी छन. बक्स भरी रौ, पैल बखतकि ल्याई ले नि पैरि आजि.
घर परिवार के साथ ये भावुक रिश्ता तब लड़के को अपनी जड़ों से अपने सस्कारों के साथ जोड़े रखता था. बेटा घर आते समय आधा किलो भी बाल मिठाई लाये तो टुकड़े करके भी पड़ोस में बांटते थे. जब बेटा जा रहा होता तो पड़ोस के बड़े बुजुर्गों से कहकर जाता कि – मैं जा रहा हूं. सबका आशीर्वाद लेकर जाता था.
(Pahad Article By Vinod Pant)
हर मां बाप के लिए उसका बेटा बच्चा ही रहता है. उसे हर छोटी-बड़ी बात समझाई जाती मसलन – गाड़ी से हाथ मत निकालना. कुछ वाक्य जो पहाड़ से शहर जाने पर ईजा, बाबू, आमा या पड़ोस की काखी के द्वारा कहे जाते थे. जिसने ये सब जिया है वो आज भी इन वाक्यों को पढकर भावुक हुए बिना नहीं रह सकता हमने लगभग ये जरूर सुने होंगे –
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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