हल्द्वानी की नैनीताल रोड पर कालू सैयद चौराहे से दस कदम आगे बढ़ते ही बायें हाथ पर है सरस मार्केट. इसी मार्केट के बायें हाथ वाले दरवाजे से अंदर घुसकर एक हिमान्या मार्ट लिखा बड़ा सा बोर्ड नजर आता है. हिमान्या मार्ट वाली सीढ़ी ऊपर चढ़ते ही दूसरी मंजिल पर एक दुकान नजर आती है, जिसमें आपको विभिन्न पैक्ड पहाड़ी उत्पाद रखे नजर आएंगे. इन उत्पादों में पहाड़ी दालें राजमा, गहथ, भट, रैंस, मोठ हैं तो जम्बू, गंधरायण, जखिया जैसे पहाड़ी मसाले भी. कहीं बुरांश,माल्टा और आंवले का जूस नजर आता है तो कहीं लहसुन, मिर्च, अदरक का और मिश्रित अचार. किसी अलमारी में पहाड़ी लाल चावल, मडुवे का आटा, माश की दाल का चैंस रखा दिखेगा तो किसी में भूजे (पेठा), पहाड़ी काखड़ी की और नाल बड़ी रखी मिलेगी. (Organic Uttarakhand Products Kiran Joshi Haldwani)
काबिले गौर ये है कि इन ढेर सारे उत्पादो में से कोई भी उत्पाद न तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का है और न ही देश की किसी नामचीन कंपनी के. साधारण सी पैकिंग में रखे इन उत्पादों पर कुछ अनाम से महिला समूहों के लेबल लगे नजर आएंगे. ये वे महिला समूह हैं जो पहाड़ से भाबर तक सीमित संसाधनों, अल्प तकनीकी ज्ञान और विपरीत भौगोलिक परिस्थिति के बावजूद स्वालंबन की इबारत लिख रहे हैं. इसी दुकान पर रखे उत्पादों के ढेर पर गौर से नजर डालने पर एक नाम बार-बार आंखों के सामने आता है कालिका स्वयं सहायता समूह, हल्दूपोखरा, हल्द्वानी (नैनीताल) का. तकरीबन हर दूसरे उत्पाद पर इस समूह का लेबल जरूर चस्पा नजर आया. कौन है इस कालिका स्वयंसहायता समूह के लोग, इस बाबत पता किया तो किरण जोशी का नाम पता चला. (Organic Uttarakhand Products Kiran Joshi Haldwani)
किरण जोशी का पता करते-करते हल्दूपोखरा पहुंचा तो एक घर के आंगन में घुसते ही तीन-महिलाएं भटों का एक बड़ा ढेर छानते और साफ करते हुए नजर आईं. बातचीत से मालूम हुआ इससे पहले ये महिलाएं भूजे (पेठा) की बड़ी का एक लॉट डालकर छत से उतरी हैं. आंगन में और घर के अंदर विभिन्न पहाड़ी उत्पादों का ढेर लगा है. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो एक ऐसी संघर्षगाथा का पता चला, जिसने कड़ी मेहनत, लगन और समर्पण से शानदार सफलता का मुकाम हासिल किया.
किरण जोशी के लिए वह दिन किसी दुस्वप्न से कम न था, जब शादी के कुछ वर्ष बाद एक दिन पति राकेश जोशी की एक बड़ी कंपनी में चल रही ठीकठाक नौकरी बॉस से मनमुटाव के कारण छूट गई. बेटा अभी छोटा था. उसकी पढ़ाई-लिखाई से लेकर घर के तमाम दूसरे खर्चों की जिम्मेदारी का एक बड़ा पहाड़ सामने खड़ा था. पास में न कोई संचित पूंजी थी और न ही कोई अतिरिक्त आय का जरिया. इस बीच पति ने खुद के दूसरे काम किए, पर ये काम मुफीद साबित नहीं हुए. अब किरण ने खुद आगे आने की ठानी. पोस्ट ग्रेजुएट तक सुशिक्षित थीं. चाहती तो किसी नौकरी की भी तलाश कर सकती थीं, लेकिन किरण ने लीक से हटकर चलने का फैसला किया. एक ऐसा रास्ता चुना जो थोड़ा पथरीला और जोखिम भरा तो था, पर उसमें भविष्य की सफलता की अपार संभावनाएं छिपी थीं. महिला मंगल दल में काम करने का तजुर्बा होने के कारण उन्हें महिला शक्ति के संगठित प्रयासों का पता था.
किरण ने वर्ष 2004 में एक स्वयं सहायता समूह का गठन किया. पहले प्रयास में कुछ मेहंदी तैयार की और उसे हिमान्या मार्ट में बेचने के लिए रखा. मेहंदी बिक गई तो हौसला बढ़ा. हिना अब रंग लाने लगी. किरण ने इस काम के ही विस्तार का इरादा किया. फिर क्या था स्थानीय पहाड़ी उत्पादों की एक लंबी रेंज तैयार कर ली. घर में निर्मित पापड़, चिप्स, अचार, पैक्ड पहाड़ी दालों, ऑर्गेनिक लाल चावल, मंडुवे के आटे से आगे बढ़ता हुआ उनका समूह आज कई प्रकार की पहाड़ी बड़ियां, मुंगोड़ी, जूस, पहाड़ी पिसी लूण, ऑर्गेनिक पिठ्या से लेकर सिसौण, बुराँश फूल आदि से निर्मित हर्बल चाय के उत्पादन व विपणन तक पहुंच गया है. पति राकेश जोशी भी इन उत्पादों की सफलता से उत्साहित हो पूरी शिद्दत के साथ समूह के कामकाज में हाथ बंटाते हैं.
न केवल हल्द्वानी के सरस बाजार, बल्कि विभिन्न मेलों में भी कालिका समूह के उत्पादों की अच्छी-खासी मांग हैं. किरण व समूह की अन्य सदस्याएं जानकी रंगवाल, भावना आदि इन उत्पादों का हल्द्वानी के उत्तरायणी मेले के अलावा देहरादून व हल्द्वानी के सरस मेलों व इंदिरापुरम (गाजियाबाद) के उत्तराखंड कौथीग में स्टाल लगाती हैं, जहां उनके उत्पाद बढ़-चढ़ कर बिकते हैं. यहां तक कि मुंबई तक से पहाड़ी खानपान के शौकीन उन्हें फोन कर इन उत्पादों को वहां भेजने के ऑर्डर करते हैं और समूह के लोग इस मांग के अनुरूप इन उत्पादों को वहां भेजने की व्यवस्था करते हैं.
समूह की इस सफलता गाथा पर किरण जोशी का इतना ही कहना है कि स्वालंबन के इस रास्ते को अख्तियार करने से न केवल हमारा, बल्कि चार-छह परिवार और पल रहे हैं. अगर नौकरी की सोचती तो स्वकेंद्रित ही होकर रह जाती. दूसरे हमारे इन प्रयायों से उत्तराखंड के स्थानीय उत्पादों को भी बढ़ावा मिल रहा है. यह परम संतोष का विषय है. किरण को स्वावलंबन का यह रास्ता इतना रास आ गया है कि वह चाहती हैं हाल ही में कंप्यूटर साइंस में बी.टेक कर लौटा उनका बेटा मनु कहीं नौकरी के लिए आवेदन न करे, बल्कि इसी धंधे में हाथ बंटाए और अपने अर्जित कंप्यूटर ज्ञान का इस्तेमाल इन उत्पादों की अखिल भारतीय ऑनलाइन मार्केटिंग में करे. इसके अलावा उनकी एक दिली इच्छा अपने इन सामूहिक प्रयासों को दन्या (जिला अल्मोड़ा) के पास स्थित अपने मूल गांव तक ले जाने की भी है, ताकि वहां की महिलाओं में भी स्वालंबन की अलख जगे और उनकी मुट्ठी भी स्वअर्जित चार पैसों की उष्मा से गर्म हो.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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