स्मृति के कोई दर्ज़न भर स्थिर-चित्रों से बना था उसका शहर. उसका शहर पतली सड़कों और बक्सेनुमा मकानों का संकुल न होकर कुछ चित्रों की लड़ी था. इस लड़ी को दोनों सिरों से कहीं बांध दो तो रंग बिरंगी झालर की तरह दिखने लगता था ये शहर. शहर की जो तस्वीरें उसकी मिल्कियत थीं उनमें एक तो थी चौराहे के आइसक्रीम पार्लर की. और एक कच्चे, पीले रास्ते की जो कही ले जाने के बजाय भटकाता ज्यादा था. (वैसे यही इसका सुख भी था). एक कोने की थी जो दो ऊंची दीवारों के मिलने से बना था. दोनों दीवारों में से एक में बीचो बीच पीपल उगा था और शाखें दीवाल फोड़ कर बाहर आ रही थीं.
एक तस्वीर स्कूटर मैकेनिक की दुकान वाली थी. एक हैलोजन लाइट फेंकते खम्भे की. और एक पोस्ट बॉक्स की भी. ऐसी ही कुछेक और तस्वीरों से बना था उसका शहर. पर हां एक तस्वीर जिसका अभी ज़िक्र नहीं हुआ और जो बाकी की रंगीन छवियों से जुदा थी और जिसके बिना उसका ये शहर स्मृतियों का नगर नहीं बन सकता था वो एक ब्लैक एंड वाइट पासपोर्ट साइज़ फोटो थी. बाकी ग्यारह के ग्यारह चित्रों के रंग फ़ीके पड़ते जा रहे थे पर इस श्वेत श्याम छवि को वो हर दिन नवीन और युवतर होते हुए ही देखता था.
असल में ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो शहर की तस्वीर नहीं थी. ये तो एक लड़की का पासपोर्ट साइज़ फोटो था. ये एक फोटो ज़रूर था पर इस पर नज़र पड़ते ही एक पूरा एल्बम उसके सामने खुल जाता था. एल्बम के हर चित्र में वो लड़की ज़रूर होती. बल्कि वो लड़की ही होती.अलग अलग मूड, मुद्राओं में. कई बार तो उस अल्बम के एक ही फोटो में लड़की अलग अलग वक्त में अलग मुद्राओं में नज़र आती थी. अक्सर जैसे उसके सामने फेसेज़ बनाती हुई. उसे सामने देखकर तो और भी मुंह बिगाड़ती सी लगती थी.
शहर की स्मृतियों की पन्नियाँ. रंग बिरंगी.चित्रित. उड़ती हुई, लहराती हुईं. हवा में अपना संतुलन खोती ये पन्नियाँ कितनी भली लग रही थीं. पर इस समय उसके सामने जो शहर था वो अलग था.उस शहर से जुदा जो उसी की कुछ पुरानी यादें धुंधला नक्शा उतारे थीं. वो सोचने लगा, आया तो वो उसी शहर में था! फिर क्या हुआ कि उसकी याद के स्टिल्स से बना शहर कोई और शहर मालूम होता था.इस जिंदा से लगते शहर से जुदा.स्पर्श से भी जिसे पहचाना न जा सके.
स्पर्श पहचान करने की आखरी हद होता है.
कैसे कोई वृद्धा बरसों बाद परदेस से आये पाँव छूते पोते की तस्दीक उसे जगह जगह से छूकर करती है.यहाँ इस नए शहर में जितना मर्जी अपना पुराना खोजने की वो कोशिश करता, उसे कोई और ही शहर हाथ लगता. उसे शक होने लगा कि कहीं वो किसी अनजान शहर में तो गलती से नहीं आ गया. उसने सर उठाकर देखा, शहर का दुर्ग मजबूती से खड़ा था.
वो और ज्यादा परेशान हो गया. क्या दुर्ग शहर का हिस्सा था या शहर इसके पडौस में बसा हुआ था? दुर्ग उसका पहचाना था पर शहर से फिर भी जान पहचान निकल नहीं रही थी. क्या शहर खानाबदोशों का डेरा भर होता है? कि कुछ बरस किसी किले के बगल में डेरा डालो और फिर कहीं और के लिए निकल लो.पीछे कोई नया काफिला अपने खच्चरों- टट्टुओं के साथ तैयार खड़ा है इसी जगह कुछ बरस डेरा डालने को. वो भी एक यायावर की तरह इस जगह आया था. आने के कई दिनों तक वो संकोच में रहा. शहर उसके लिए सिमटा रहा तो बाँहें उसने भी नहीं फैलाई. वो चाय की दुकानों में नरमाहट ढूंढता रहा. फिर एक दिन उसकी दोस्ती एक जूते चप्पलों के दुकानदार से हुई. वो गया था अपने लिए एक जोड़ी नए जूते खरीदने और साथ में एक दोस्त मुफ्त में ले आया. दुकानदार उसकी उम्र का ही था. कह रहा था बड़े भाईसाब और वो साथ में चलाते हैं ये दूकान.पैसा भाई साब का है और बैठता वो है.जेंट्स और लेडीज दोनों के लिए जूते सैंडल रखता है.
दोस्ती लगातार बढती गई. हीरालाल था दुकानदार का नाम. दिखने में सुन्दर. वो शाम को वहीं बैठने लगा.हीरालाल की दूकान उसकी बैठक हो गयी. एकाध घंटा गप्प मार कर, चाय पीकर ही उठता वो. हीरालाल को भी उसकी संगत अच्छी लगती थी.
एक दिन..शाम का वक्त था. दुकान पर वो बैठा था. हीरालाल कहीं गया हुआ था.ये कोई नई बात नहीं थी.हीरालाल उसके आने पर कई बार सिगरेट पीने पान के केबिन पर चला जाता था. दूकान में सिगरेट न पीने का उसूल था. उसी समय एक लम्बी सी लड़की दुकान में आई.वो एक आम ग्राहक थी. उसे अपने लिए सैंडल चाहिए थे. उसने उस लड़की को रुकने के लिए कहा. हीरालाल आने ही वाला था. लड़कियां परदेसियों को पहचान जाती है. कुछ मिनट की देरी के बाद उस लड़की ने उससे पूछा था कि कितना वक्त हो गया इस शहर में आये हुए, उसने दिन गिनकर बता दिए.
जैसा कस्बाई प्यार में होता है, परदेसी से दिल लगाने का मामला खतरनाक पर अनिवार्य सा होता है. छोटे शहरों की मुट्ठी में बंधे लोग अक्सर के दूसरे के पास आने को अभिशप्त होते है. वो दोनों अक्सर एक दूसरे को दिख ही जाते थे. वहां कई दिनों या महीनों की आँख मिचौली संभव ही नहीं थी. कोई दूर का ही प्रेमी हो सकता है एक क़स्बे की प्रेम कथा में. वर्ना हीरालाल ही क्या बुरा था? हीरालाल में एक एक प्रेमी की सारी खूबियाँ तो थी पर क़स्बे का प्रेम दूरियों और अपरिचय के तंतुओं से बनता है. उस परदेसी के रिश्ते-नातों की डोरियों का गुच्छा सुदूर में कहीं था जिसे वो लड़की नहीं जानती थी. उस परदेसी का घर, उसके परिजन उस लड़की के लिए अस्तित्व में नहीं थे. वो उस ‘बार गाम’ के लड़के को ही उसके ‘सम्पूर्ण’ के रूप में जानती थी.
लड़की की तरफ से एक महीन, सूक्ष्म और क्षणिक मुस्कान ने पहले से ही मौजूद हेडी मिक्स में तूफ़ान ला दिया. वो एक तीव्र बहाव में बह गया जिसके खिलाफ जाने की उसने कोई कोशिश नहीं की. असल में उसे समझ में आने से पहले ही ये सब घटित हो गया.
उस लड़की के साथ इस नए जन्मे रिश्ते में भले ही वासना या हवस ढूंढी जाय पर ये था प्रेम ही. ठीक ठीक किताबों वाला या अपने परिशुद्धतम रूप जैसा प्राचीन समय से लिपिबद्ध है वैसा नहीं पर प्यार वाला ही प्यार. इस ज़माने वाला भी नहीं. छोटे शहर- कस्बों वाला, अगर सटीक रूप से कहा जाय.
लड़की हीरालाल की दुकान पर एकाध बार ही आई फिर नहीं आई. हीरालाल को वो अपने प्यार की जानकारी देना नहीं चाहती थी क्योंकि वो भले उसके महबूब का दोस्त था, पर था वो असल में उसका अपना शहर जिस तक वो अपने प्यार की फुसफुसाहटों को पहुँचने नहें देना चाहती थी.शहर चाहे उसका पिता भाई या दोस्त ही क्यों न हों प्यार के मामले में क्रूर बनते देर नहीं लगती.
उसे एक कहानी की याद हो आई जिसमें झामन ने अपनी ही बेटी का क़त्ल कर दिया था. वो बेटी जिसने एक परदेसी को दिल दे दिया था.बाद में झामन ने भी एक पेड़ से लटक कर फंसी लगा ली थी. एक बिलकुल तनहा खड़े उसी पेड़ से झामन के रोने की आवाजें क़स्बा कई बरस सुनता रहा था.
लड़की के दूकान पर न आने से उसने भी अपने दोस्त हीरालाल को छोड़ दिया. उस छोटे से, कम आबादी के शहर में वो और लड़की कोने तलाशने लगे. शुरू में शहर में एकांत के अनेक द्वीप थे जहां वे समय से परे चले जाते थे, पर धीरे धीरे वे सब एक अनजान भय के कोहरे में डूबते गए. अब उन्हें शहर में कोने मुश्किल से नसीब होने लगे थे. उसे उन दिनों शहर अचानक आबादी से भरा, भीड़ से ठसा शहर लगने लग गया.वो बमुश्किल लड़की को मुख्य सड़क पर आते जाते ही देख पाता था. उसकी ख्वाहिशों में लड़की को देखना भर रह गया था. वो सड़क पर एक दिन सबके सामने लड़की को चूमना चाहता था. पर लड़की का दिखना भी उसके लिए उत्सव जैसा हो गया. वो छोटा शहर उसके लिए महानगर सा हो गया. और उसमें जैसे वो लड़की गुम हुए जा रही थी.
और एक दिन वो लड़की उस शहर से गायब हो गई. एक आदमकद अहसास बना रह गया.फिर उसके अस्तित्व से भी उस लड़की की उपस्थिति फिसलने लग गई. दुनिया के मेले में लड़की का हाथ उससे छूट ही गया था, उसकी आत्मा से भी वो लड़की जाती रही. पर उसका भार वो महसूस करता रहा.
शहर छोड़ने से पहले उसके पास उस लड़की का ब्लैक एंड वाइट फोटो था. पासपोर्ट साइज़ का. वो फोटो ही अब उसके लिए वो लड़की था. वो गुम भी गया तो भी उसका प्रिंट उसके मस्तिष्क में बना रह जाने वाला था.लड़की जैसे तिलतिल उससे आजाद हो रही थी. पहले वो कहीं चली गई, फिर उसकी मौजूदगी, फिर उसका अहसास और अब अरसे बाद लड़की की उपस्थिति का भार जब उसके मन से जाता रहा. पर इससे उसे काफी अच्छा लगने लगा. वो इस प्रक्रिया में खुद भी जैसे के पाश से छूटता गया था. उसने शहर को शुक्रिया कहा.
फिर से इस शहर में किसी सड़क के कोलतार पर चलते उसके जूतों के सोल चिपक रहे थे. गर्मी ने कोलतार को गर्म लिसलिसे द्रव में बदल दिया था. पर उसकी याद में उतरा शहर ठंडा था.आसमान से नर्म बर्फ गिर रही थी.
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.
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