हिमालय की उपत्यका में बसा गढ़वाल यूं तो अपनी, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक आस्थाओं की वजह से अपनी गौरवमयी छवि के लिए प्रसिद्व है. वहीं यह क्षेत्र अपनी आध्यात्मिक चेतना के लिए भी याद किया जाता रहा है. इस क्षेत्र की कन्दराओं को न जाने कितने ऋषि मुनियों ने अपनी तपस्थली और साधना का केन्द्र बनाकर इसे गरिमामय रूप प्रदान किया है.
हिमालय का यह क्षेत्र आदिकाल से तीर्थटन घुमक्कड़ों का क्षेत्र रहा है. यहां की प्रकृति की छटा से मुग्ध होकर यहीं के हो गए. इस क्षेत्र में कई जातियां बाहर से आईं और प्रकृति के सौन्दर्य और वातावरण देखकर इस क्षेत्र में बस गई. हिमालय के इस क्षेत्र में अनार्य जाति को छोड़ कर देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग आए और उन्होंने अपनी बसासत यहां पर की और फिर हिमालय में विभिन्न संस्कृतियों का समागम हुआ. लोग अपने साथ अपनी आस्थाएं लाए, रीति रिवाज लाए परम्पराए लाए और यहां की धरोहरता के साथ मिल कर उसे नए अंदाज में परोसने का काम किया.
इस क्षेत्र में देश के राजस्थान, महाराष्ट्र, दक्षिण से लोग आए और अपनी विशिष्ट संस्कृतियों को यहां के सौन्दर्यमयी वातावरण मिलकर इसे एक नई दृष्टि प्रदान की यहां के जन जीवन में कई राष्ट्रीय त्यौहार भी यहां की संस्कृति के स्तम्भ बनकर उतरते दिखाई दिए, जिनमें होली, दिवाली जैसे त्योहार है जिन्हें यहां अपने तरीके से मनाने की परम्परा है.
गढ़वाल राज्य में यूं तो होली का उत्सव मनाने की परम्परा नहीं थी परन्तु गढ़वाल राज्य के दरबार में इस परम्परा को मनाने की परम्परा रही है इसे यहां शाही होली का रूप भी दिया जाता था. गढ़वाल राज्य के विभाजन के पूर्व श्रीनगर जब राजधानी रही थी तब दरबार के अधिकारी कर्मचारी और राजा मिलकर होली खेलते थे. एक दूसरे पर रंग गुलाल मलते थे. होली की यह परम्परा यहां कुमाऊं से आई क्योंकि तत्कालीन समय में गढ़वाल राज्य के दरबार में कई कर्मचारी और अधिकारी कुमाऊं के रहे होंगे. उन्हें इस राष्ट्रीय पर्व को अपने त्यौहार के साथ मिलकर इसे स्थापित करने की कोशिश की होगी जो दरबारी होली के रूप में मनाई जाने लगी. धीरे-धीरे यह परम्परा-दरबार से घरों और फिर शहर में आई और इसका व्यापक रूप हमें एक सांस्कृतिक पक्ष के रूप में दिखाई देने लगा.
गढ़वाल राज्य विभाजन के बाद जब टिहरी रियासत में राजशाही का राज्य रहा तो टिहरी में भी होली का त्यौहार उसी उमंग और अनुराग के साथ मनाया जाने लगा.
उस जमाने में टिहरी राज्य की राजधानी थी टिहरी, जहां पर पश्चीमीयाणा और पूर्वयाणा दो मुहल्ले थे. पश्चीमी यानि राजा के साथ हिमाचल से आए लोग और पूर्वयाणा यानि कुमाऊं से आए लोग. इसके अलावा टिहरी रियासत में कई अधिकारी उ.प्र. आदि राज्यों से भी थे जो रियासत में कर्मचारी और अधिकारी पद पर कार्य करते थे. हिन्दी के प्रसिद्व लेखक श्री रामशर्मा भी यहां पर अध्यापक रहे और उन्होंने कई बेहतरीन संस्मरण वहां के जनजीवन पर लिखे.
पुरानी टिहरी किसी समय सांस्कृतिक एवं सामाजिक विशिष्टता की एक पहचान रही तथा उसने एक सौन्दर्यमयी रूप देकर इसे गरिमामय स्थान दिया. टिहरी में भी दरवारी होली का प्रचलन था. यूं तो टिहरी में होली का महोत्सव होली के एक दिन पूर्व संपन्न हो जाता था. लोग एक दूसरे के घरों में जाकर रंग खेलते मेहमानदारी करते लेकिन दरबारी होली का अपना अलग महत्व था. दरबार में राजा नरेन्द्र शाह की उपस्थिति में होली का उत्सव मनाया जाता. राजा को टीका लगाया जाता उसके बाद दरबार में सूक्ष्म जलपान होता. जलपान के बाद ‘‘होल्यार’’ दरबार से बाहर निकल कर एक दूसरे पर कीचड़ पानी और गन्दा फेंकते हुडदंग भरा माहौल होता. उस जमाने में रंगों का ज्यादा प्रचलन नहीं था सो लोग अपनी भड़ास कीचड़ फेंककर करते. जिससे शहर का माहौल बिगड़ जाता. शहर के वासी इस रंग में मस्त होकर एक दूसरे घर जा जाकर बधाई देते. इस होली की हुड़दगी के कारण लोग बहुत परेशान रहते. करे भी तो क्या- होली है. चाहे कपड़े खराब हो या शरीर उस दिन तो सबको माफी होती है. उस दिन तो सात खून भी माफ होते.
यहां पर अहम यह था कि होली की इस परम्परा को बदलकर इसे सांस्कृतिक सौहार्द का जामा किस तरह पहनाया जाय. सन् 1930 के आस पास सत्य प्रसाद रतूड़ी जी के नेतृत्व में ‘‘बाल सभा’’ का गठन हुआ. बाल सभा का उद्देश्य था बच्चों में देश भक्ति की भावना को भरना तथा आपसी मेलजोल और सांस्कृतिक सौष्ठता के साथ-साथ भाई चारे का भाव व्यक्त करना. ये सारे बच्चे सेमल तपहु में इक्कठे होते और सांस्कृर्तिक सौहार्द पर चर्चा करते आपस में जिस सदस्य का जन्मदिन होता अथवा जो सदस्य बीमार होता उसके घर जाकर बधाई दी जाती और बीमार के घर पर उसकी सेवा सुश्रशा की जाती. सामाजिक कार्यो की चर्चा शहर भर में होने लगी. यह बात कानोंकान महाराजा तक भी पहुंची. बाल सभा के सदस्य शहर की सफाई व्यवस्था का ध्यान रखते. मकरेणी और पंचमी में भिलंगना में स्नान पर्व के समय ग्रामीणों के लिए अलाव जलाकर उन्हें ठण्ड से राहत देते. होली पर्व से पूर्व बच्चों ने तय किया इस बार की होली में राज दरबार में जाकर नागरिकों और दरबार के कर्मचारियों को गुलाल की पोटलिया भेंट करेंगे और उनसे कीचड़ न फेंकने का अनुरोध करेंगे.
अन्तोगण तय तो हो गया पर गुलाल आए कहां से? बच्चों ने जंगल के फूलों को इक्कठा कर गुलाल, रंग बनाया और पोटली तैयार की. होली का पर्व आया तो बाल सभा की होली देश भक्ति के गीत गाते-गाते दरबार की होली में शामिल हो गए. महाराजा ने पूजा अर्चना की, होली की बधाई तत्पश्चात बच्चों ने सभी आगतुकों को गुलाल की पोटली भेंट की और उनसे कीचड़ न फेंकने और गुलाल से होली खेलने की. अपील की दरबार में बच्चों की गुहार का असर ऐसा पड़ा की लोगों ने रंग ले-ले कर एक दूसरे पर गुलाल छिडकते हुए दरबार से बाहर निकले, आगे-आगे बाल सभा की सेना तो पीछे-पीछे होल्यारों का हुडदंग. बच्चे लोंगों से कीचड़ न फेंकने की अपील करते. देखा-देखी में शहर भर का माहौल कीचड़ और गन्दे पानी से धीरे-धीरे उबर कर रंग बिरगें रंगों की खूबसूरत रूप में संवर गई. लोगों ने इन रंगों को पानी के साथ मिलाकर इसे नया सौन्दर्य प्रदान किया दरबार में क्या शहर भर में बच्चों के इस काम की सराहना होने लगी. दरबारी एवं शहर के नागरिक अब इनकी मदद भी करने लगे और सम्मान की नजरों से भी देखने लगे. महाराज ने भी इनकी प्रशंसा की. बाद में महराज ने इन बच्चों की गति विधियों पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी आगे चलकर ये बच्चे राजशाही के खिलाफ खडे़ हुए. इनमें सुन्दर लाल बहुगुणा, भूदेव लखेड़ा, डा. उनियाल, रामचन्द्र उनियाल, प्रेमदत्त डोभाल, प्रो. सकलानी (सूचना अधिकारी) वंशीलाल पुण्डीर समेत कई लोग हैं. जिन्होंने इस महायज्ञ में अपनी आहुति देकर राजशाही से मुक्त करने में सहयोग दिया.
पुरानी टिहरी का वह सांस्कृतिक वैभव भी टिहरी के साथ-साथ डूब गया है. आज नई टिहरी एक नए शहर के रूप में विकसित हो रहा है. उनकी वह पुरानी विरासत वही विरादराना आपसी मेल-जोल क्या लौट, पाएगा. आज आधुनिकता के चपेट में त्योहारों का रूप भी बदल गया है उसमें अब उन पुरानी स्मृतियों के रंगों को घोलने की आवष्यकता है. तभी हमारा सांस्कृतिक सौहार्द जिन्दा रह सकेगा.
टिहरी डूब गई है- उसके सांस्कृतिक धरोहरता को हम कैसे संजोए यह प्रश्न हमारे सम्मुख है. उन स्थलों को उन त्योहारों को उस टिहरी की प्रसिद्व सिगौड़ी मिठाई को और तमाम ऐतिहासिक प्रतीकों हम कैसे-किस रूप में समाहित करें. यह देखना होगा.
मसूरी के रहने वाले सुरेन्द्र पुंडीर सेवानिवृत्त शिक्षक हैं. हिमालयी लोक संस्कृति के जानकार सुरेन्द्र पुंडीर की अब तक छः पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.
‘उत्तराखण्ड होली के लोक रंग’ शेखर तिवारी द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है. चंद्रशेखर तिवारी काफल ट्री के नियमित सहयोगकर्ता हैं. उत्तराखण्ड की होली परम्परा (Traditional Holi) पर आधारित और समय साक्ष्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की रूपरेखा दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून द्वारा तैयार की गयी है. होली के इस मौसम में इस जरूरी किताब में से कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं. अनुमति देने के लिए हमारी टीम लेखक, सम्पादक, प्रकाशक व दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की आभारी है.
वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…