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जब रंगीन यादें ब्लैक एंड व्हाइट में कैद की जाती थीं

यादों को संजो के रखना इंसानी फ़ितरत है. कुछ यादें दिलों में संजो के रखी जाती हैं तो कुछ यादों को तस्वीरों में उतार दिया जाता है. जब तक कैमरे का आविष्कार नही हुआ था तब तक दिल और दिमाग ही पुरानी यादों के लिए कैमरे का काम करते थे. जो दिल और दिमाग में छप जाता वही अनुभव दोस्तों, रिश्तेदारों संग बातचीत के माध्यम से निकल कर जीवंत रूप ले लेता. समय बदला और दिमाग़ी कसरत की जगह ले ली कैमरे ने. मैं कैमरे के आविष्कार और इतिहास की तह पर नहीं जाऊँगा लेकिन 20वीं सदी के अंतिम व 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों की बात करूँगा जिससे आप खुद को भी जोड़ पाएंगें.

फोटो: कमलेश जोशी

उन दिनों कैमरा होना रईसपने की निशानी थी. कैमरा भी अधिकतर उन्हीं के पास होता था जिनका फ़ोटो स्टूडियो हो. किसी के पास यदि कैमरा होता भी तो ब्लैक एंड व्हाइट, जिससे सिर्फ सादा तस्वीरें खींची जा सकती थी. उस पर भी यदि निगेटिव रोल सही से कैमरे में फ़िट नहीं हुआ तो सारी फ़ोटो करप्ट हो जाती थी. स्कूल से लेकर किसी प्रतियोगी परीक्षा के फ़ॉर्म भरने तक हर जगह पासपोर्ट साइज़ का ब्लेक एंड व्हाइट फ़ोटो ही इस्तेमाल किया जाता था. कलर फोटो की छपाई बहुत मंहगी हुआ करती थी. अगर कलर फ़ोटो की ज़रूरत पड़ती भी थी तो उसके लिए 7 से 10 दिन का इंतज़ार करना पड़ता था क्योंकि कलर फ़ोटो अधिकतर दिल्ली से छप कर आते थे.                                                         
उस समय के कैमरों की बात की जाए तो कोडेक (Kodak) का ब्लैक एंड व्हाइट कैमरा 800 से 1000 रूपये के बीच आता था. कलर फ़ोटो के लिए स्टूडियो मालिकों के पास कोनिका (Konica), कोसीना (Cosina), सोनी (Sony), निकॉन (Nikon) आदि ब्रांड के कैमरा हुआ करते थे जिनकी क़ीमत 12 से 15 हज़ार हुआ करती थी. इन कैमरों की ख़ासियत यह थी की इनमें आज के कैमरों की तरह मैमरी कार्ड नहीं बल्कि निगेटिव रोल इस्तेमाल होता था.

फोटो: कमलेश जोशी


ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटो को एक ख़ास डिवेलपर मशीन द्वारा स्टूडियो के डार्क रूम में ही बनाया जाता था. इस मशीन में निगेटिव को सेट कर के एक ख़ास लेंस पर फोकस करवा कर फ़ोटो पेपर में प्रिंट किया जाता था और फिर फ़ोटो पेपर को कैमिकल में भिगोकर फ़ोटो डिवेलप किया जाता था. डिवेलप फ़ोटो को घंटों डार्क रूम में सुखाया जाता था और सूखने के बाद ग्राहक को पासपोर्ट साइज़ में काटकर तय समय में दे दिया जाता था.

ब्लैक एंड व्हाइट व कलर दोनों ही फ़ोटो के लिए अलग-अलग निगेटिव इस्तेमाल किये जाते थे. प्रोप्लस (Pro-plus), नोवा (Nova), कोनिका (Konica) आदि उस समय के निगेटिव ब्रांड हुआ करते थे. सादा फ़ोटो तो स्टूडियो के डार्क रूम में डिवेलप हो जाता था लेकिन कलर फ़ोटो के लिए कैमरा से निगेटिव को निकालकर दिल्ली या हल्द्वानी के किसी बड़े स्टूडियो भेजना पड़ता था.

आज शादी का 500 फ़ोटो का एक एल्बम बनाने के लिए कम से कम 3-4 हज़ार फ़ोटो खींचे जाते हैं जिन्हें आप पेन ड्राइव में लेकर अपने लैपटॉप में देखकर अपनी पसंद की चुनिंदा 500 फ़ोटो छाँट लेते हैं लेकिन उस समय फ़ोटो रोल (निगेटिव) के हिसाब से फ़ोटो खींचे जाते थे और फ़ोटो की संख्या पहले से फ़िक्स रहती थी.

फोटो डेवलेपर मशीन, फोटो: फोटो: कमलेश जोशी

आज के डिजिटल युग में फ़ोटो खींचने की संख्या की बाध्यता नही है लेकिन आज से 15-20 साल पहले ऐसा सोचना भी सपने जैसा था. आज की डिजिटल पीढ़ी को ये सब बातें शायद अविश्वसनीय लगें क्योंकि उनका साक्षात्कार असल कैमरे से पहले ही मोबाइल कैमरा से हो चुका होता है. कैमरे की भी अगर बात करें तो वो DSLR से नीचे की बात ही नहीं सोचते. 90 के दशक में कोडेक का कैमरा होना ही आपको अभिजात्य (Elite) बना देता था.

आज उपरोक्त कैमरों की कोई क़ीमत नहीं है ना ही इनका इस्तेमाल होता है. शायद इसीलिए जिस दिन मैं इन सब पुराने एंटीक कैमरों की तस्वीर उतार रहा था तो प्रियंका फ़ोटो स्टूडियो, नानकमत्ता के मालिक उमेश जोशी ने मुझसे कहा-क्यों इस कबाड़ की फ़ोटो खींच रहा है? ये अब किसी काम के नहीं हैं. मैंने कहा-हॉं हमारे किसी काम के नहीं हैं क्योंकि हम इन्हें देखते हुए और इनका इस्तेमाल करते हुए बड़े हुए हैं लेकिन आज की पीढ़ी के लिए तो यह खरा सोना है. कैमरों का आज से 20 साल पुराना इतिहास जानने का ये नायाब तोहफ़ा है. इसे कबाड़ समझकर फेंकने की ग़लती मत करना. इन सारे कैमरों को एंटीक की तरह अपने स्टूडियो में संभाल के रखना. ये हमेशा तुम्हारे स्टूडियों में चार चॉंद लगाएँगे और न सिर्फ आज की पीढ़ी के बच्चों को बल्कि पुराने लोगों को अपनी स्मृतियॉं जीवित करने के लिए अनायास ही तुम्हारे स्टूडियो की तरफ़ खींच लाएंगें.

समय काफ़ी बदल चुका है. समय के साथ तकनीक बदली और तकनीक के साथ चीज़ें भी बदल गई. ब्लैक एंड व्हाइट से आज हम 3D तक आ चुके हैं लेकिन यादों के पिटारे से जब भी ऐसा कुछ निकल कर आता है तो दिल झूमने लगता है और सिर्फ एक ही बात कहता है-वो भी क्या दिन थे यार!

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

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Sudhir Kumar

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