भैया जी एक स्कूलसखा के सखा थे और जीवन में पहली बार पहाड़ घूमने के उद्देश्य से लखनऊ से नैनीताल आए थे. भैयाजी को नैनीताल भ्रमण कराने का ज़िम्मा मुझे सौंपते हुए स्कूलसखा ने कुछ दिन पहले चिठ्ठी भेजी थी जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि भैयाजी बचपन के दोस्त है, फैमली मेंबर जैसे हैं वगैरह वगैरह. मैं नैनीताल में बीएससी करता था और किराए के कमरे में एक दोस्त के साथ रहता था.
हम अमूमन नौ बजे से पहले नहीं उठते थे लेकिन उस दिन भैयाजी के चक्कर में अलार्म लगाकर जग गए थे. वे आठ बजे सुबह पहुंचे. पहले रेलगाड़ी से काठगोदाम और वहां से बस में बैठकर नैनीताल. घुमावदार पहाड़ी रास्ते पर उनके पेट की ऐसी-तैसी हुई थी और वे आधे रास्ते उल्टियाँ करते रहे थे. उनकी सूरत बताती थी कि वे यात्रा से बहुत खुश नहीं थे.
नैनीताल अपने नक्शेबाज लौंडों से जाना जाता है. तब भी जाना जाता था. और हम भी अपने को उन्हीं में शुमार करते थे. जेबों में पचास ग्राम मूंगफली खरीदने तक के पैसे नहीं रहते थे लेकिन कपड़ों और जूतों की काट बिलकुल लेटेस्ट होती. दिन भर मालरोड पर दर्ज़न भर बार तल्लीताल-मल्लीताल करते इन महामनाओं की इस्तरी की हुई पतलूनों की क्रीज़ इतनी कर्री होती थी कि छू लेने पर उंगलियाँ कट जाने का खतरा रहता था. पहली निगाह में अपनी नक्शेबाजी के सामने मैंने प्लेन्स से आए, निहायत बदरंग और बेमेल कपड़े पहने अपने हमउम्र भैयाजी को भोंदू और खासा ग्रामीण जाना.
स्कूलसखा ने चिकन कुरता और रेवड़ी का पैकेट भिजवाया था.
“ये भी भेजे हैं आपके लिए!” कह कर भैयाजी ने ‘बाई हैण्ड’ लिखा लिफाफा थमाया और अपना असबाब खोलने में मसरूफ हो गए. भीतर एक और सिफारिशी चिठ्ठी थी जिसमें मुझे हिदायत दी गयी थी कि भैयाजी को मैं वैसे ही ट्रीट करूँ जैसे स्कूलसखा को करता.
रहने का बंदोबस्त हमने सोचा हुआ था. हम दोनों रूम पार्टनर एक खाट पर और गेस्ट ऑफ़ ऑनर दूसरी पर. कमरे में खाने का कोई बंदोबस्त नहीं था अर्थात हम समीप ही अवस्थित वैष्णव भोजनालय में दो सौ चालीस रूपये माहवार पर खाया करते थे. भोजनालय स्वामी ने उसी रेट से मेहमान को खिलाना स्वीकार कर लिया था.
भैयाजी ने चाय की डिमांड की. हमारे मना करने पर उन्होंने अजीब सा मुँह बनाया और बोले – “बिना चाय तो हमाई उतरती नहीं … कोई बात नहीं हम गुल कर लेते हैं.” जीवन में पहली बार मूसा के गुल की डिबिया और उसका इस्तेमाल करने का तरीका देखने का सौभाग्य हासिल हुआ. गुल ने अपना काम किया और आधे घंटे बाद जब वे नहा-धो कर बाथरूम से बाहर आये तो उनके हाथ में मेरी घड़ी थी जिसे मैं पिछली शाम वहीं पेस्ट-साबुन वगैरह रखने के काम आने वाले स्टूल पर भूल आया था.
“देखिये पाइलट को ऐसे नमी में छोड़ियेगा तो स्लो हो जाएगी … माडल टाप है आपका! सोनाटा इस से अच्छी रहती वैसे …”
भैयाजी के बाप का लखनऊ के किसी मोहल्ले में एचएमटी की घड़ियों का शोरूम था. तौलिया बिस्तर पर फेंक अचानक रूम पार्टनर की कलाई दबोचते हुए बोले – “ये तो आउट आफ डेट है आपकी घड़ी. हमाये लखनऊ आना आप पापा से कह के इसके बदले नई दिला देंगे …”
हम शरीफ लड़के थे और हमारे कुल पांच या छः दोस्त थे. अगले दो-तीन दिनों में हमने भैयाजी से सबको मिलवाया. सभी से मुलाक़ात के शुरुआती तीस सेकेंडों में वे नवपरिचित की कलाई थाम पहले घड़ी का मॉडल देखते फिर उसकी विस्तृत टीका करते.
भैयाजी की मेहमाननवाजी के उद्देश्य से हमने तीन दिन कॉलेज गोल किया और उन्हें वे सब जगहें दिखाईं जो हम दिखा सकते थे. झील में अपने पैसों से नौकायन करवाया तो वे बहुत खुश नहीं हुए. आधी यात्रा के बाद बोले – “हमाये लखनऊ में हाथी पारक है. उसमें इस से ज़्यादा मौज आती है!”
नाव से उतरे तो उन्होंने कहा – “अगली एक्टिविटीज बतलाइये तो!” टिफिन टॉप, चर्च, पिक्चर हॉल, हनुमानगढ़ इत्यादि दर्ज़नों जगहों पर ले जाए जाने पर वे कहते – “हमाये लखनऊ में हाथी पारक है…” बाद में उनका वक्तव्य होता – “अगली एक्टिविटीज बतलाइये तो!”
हम दोनों रूम पार्टनर बहुत शरीफ थे और दूसरी दोपहर तक हम मर गए. भैयाजी के प्रति ऐसा अनुराग उमड़ने लगा था कि मैंने पाषाणदेवी के मंदिर में उनके मरने की दुआ भी माँगी. मगर कहावत है कि मरता क्या न करता.
भैयाजी ने नैनीताल को अस्वीकार कर दिया था. पर्यटकों से अटा रहनेवाला नैनीताल इतना बदकिस्मत था कि उन्हें कोई भी जगह फोटो खींचने लायक नज़र नहीं आई. सुबह से शाम तक वे याशिका का एक छर्री कैमरा गले में लटकाए हमारे साथ घूमा करते और एचएमटी घड़ियों के बारे में सतत व्याख्यानरत रहते. शाम को झील में लाल-नीली धारियों वाली पालदार नावें उतरीं तो मैंने उनसे फोटो खींचने को कहा. “बढियां सीनरी मिलेगी तो न खींचेंगे फोटो भैया …. हमाये हाथी पारक में एक बार हमने दो रील खींची थी … पापा कहते हैं कंपनी तो जयको भी बढियां है मगर उसकी चाभी जल्दी टूटती है …”
दूसरी रात हमारे जीवन की सबसे लम्बी रात थी. भैयाजी ने अपने पैसों से रम का अद्धा खरीदा और हमारी पार्टी कराई. छिपते-छुपाते कहीं उस अद्धे की हत्या की गयी और वैष्णव भोजनालय में बैगन की सब्जी और दाल-रोटी के साथ उसे दफनाया गया. कमरे पर भैयाजी के भीतर तलत महमूद की मिमियाती आत्मा घुस गयी और उन्होंने दो बजे तक हमारी ऐसी तैसी की.
बीच में एक बार हमने उन्हें रोकने के कोशिश की और विषयांतर करते हुए उनसे अपने प्रेम-जीवन के बारे में कुछ बताने को कहा लेकिन उन्होंने “पापा कहते हैं पिक्चर में लड़की को सही नहीं दिखाते … वैसे मधुबाला सही लगती है हमको तो …” हम हतप्रभ होते उसके पहले वे बोल पड़े – “एक दूजे के लिए देखे हैं? वैसा कुछ होता नहीं असल जिन्दगी में … एक बार शाम को हाथी पारक में ऐसे ही एक लौंडा जो है बइठा रहा लौंडिया के साथ कमलासन बन के तो जो तुड़य्या उसकी हमने लगाई …” तलत महमूद ने उन पर पुनः हमला किया और उनका दिल अरमानभरा हो गया. वे भयानक सड़ी आवाज़ में रेंक रहे थे – “तू आके मुझे पहचान जरा …”
मैं भैयाजी की सारी बातें बर्दाश्त करने को तैयार था क्योंकि वे मेरे स्कूलसखा के सखा थे लेकिन अपने कैमरे का एक बार भी इस्तेमाल न करने की वजह से उन्होंने नैनीताल की सुन्दरता को जिस तरह थर्ड क्लास साबित किया हुआ था उसने मेरी इस जिद को बढ़ावा दिया कि अगले दिन अपने पैसों से रोपवे में बिठाकर भैयाजी को स्नोव्यू घुमा कर लाऊंगा जहाँ की ब्यूटी से मजबूर होकर उन्हें फोटो खींचनी पड़ेंगी. हम सुबह ही वहां पहुँच गए. चमकीला दिन था और सामने हिमालय की धवल श्रृंखला अपनी पूरी धज में थी. मैं भैयाजी के चेहरे पर उस विस्मय को तलाश रहा था जो पहली बार हिमालय से साक्षात्कार करने वाले नश्वर मनुष्यों के चेहरों पर आ जाता है.
भैया जी अपने जूते के तस्मे बाँधने को झुके और जम्हाई सी लेते हुए बोले – “क्या है … कुछ नहीं … बस चूने का पहाड़ तो है … हमाये लखनऊ हाथी पारक में …”
मेरा मन कर रहा था भैयाजी की खोपड़ी फोड़ दूं. लेकिन उसी दोपहर साढ़े तीन की बस पकड़ उन्हें वापस काठगोदाम जाना था. मैंने ज़ब्त किया. “अगली एक्टिविटीज बतलाइये तो!” – वे पूछ रहे थे.
रोडवेज़ पर मैं और भैयाजी बस के बगल में खड़े थे. पांच मिनट में बस निकलने वाली थी. मुझे लग रहा था उनका काला मुख होते ही दुनिया स्वर्ग में तब्दील हो जाएगी. वे अन्दर सीट पर सामान रख चुके थे. अचानक गर्दन में टंगा कैमरा निकाकर मुझे थमाते हुए बोले – “एक फोटो तो बनता है न नैनीताल का … ज़रा खींचिए तो. हम पोज बनाते हैं.”
भैयाजी पहले झील के सामने खड़े हुए. मैं फोटो खींचने को तैयार हो ही रहा था कि वे बोले – “अरे रुकिए न … सीनरी बनाने दीजिये तो …” वे पोजीशन ले चुके थे और अब उनकी निगाहें झील पर थीं. मैंने फोटो क्लिक किया. बैकग्राउंड में स्टेशन की छत, टिकट-खिड़कियाँ और लोग थे. जिस जगह भैयाजी खड़े थे, बस पर लिखा ‘यूपी रोडवेज़’ साफ़ पढ़ने में आ रहा था.
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