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रोजगार दिख नहीं रहा, यूबीआइ क्या गुल खिलाएगा

बड़ी अजीब स्थिति है भारत सरकार में बैठे रणनीतिकारों की। दुनिया के तमाम विकसित देशों की बराबरी का ख्वाब देखते हैं। कई बार इसी आधार पर नियम भी तय हो जाते हैं. हमारे देश की हकीकत क्या है, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यही कारण है कि हमारे देश में बेहतरीन नीतियां बन जाती हैं, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर जमीनी हकीकत कुछ और ही नजर आती है। हम एक ऐसी योजना का जिक्र कर रहे हैं, जो अभी लागू तो नहीं हुई है, लेकिन इसे लागू करने की अंदरूनी रणनीति पर गंभीरता से विचार-विमर्श चल रहा है। केवल औपचारिक रूप से ही बात छेड़ी गई है। यह योजना है यूबीआइ यानी यूनिवर्सल बेसिक इनकम। इस योजना का मतलब है, हर नागरिक को निर्धारित रकम उपलबध कराना। फिलहाल भारत में 2500 रुपये देने पर चर्चा हो रही है। योजना लागू होने के बाद इसकी वास्तविकता क्या होगी, अभी खुलकर कुछ नहीं कहा जा सकता है। जहां तक आकलन किया जा रहा है, इससे 0.5 प्रतिशत ही गरीबी कम हो सकती है, लेकिन इस पर जीडीपी का चार से पांच प्रतिश खर्च करना पड़ेगा.

इस योजना के परिप्रेक्ष्य में अब हम एक छोटे से राज्य उत्तराखंड की चर्चा करते हैं। जो भारी कर्ज के बोझ के तले दबा हुआ है। आंकड़ों के आधार पर ही 50 हजार करोड़ रुपये कर्ज हो चुका है। स्थिति यह है कि राज्य अपने एक साल के बजट से अधिक कर्ज में है। अगर यूबीआइ देश में लागू हो जाती है तो उत्तराखंड सरकार भी इसे लागू करेगी। अगर पूरा बजट उत्तराखंड को वहन करने पड़ जाएगा, तो स्थिति बेकाबू ही हो जाएगी। राज्य में नौ लाख से अधिक बेरोजगार हैं. अगर सभी को योजना का लाभ मिलता है, तब सरकार को प्रतिमाह ही 231 करोड़ 12 लाख 77 हजार रुपये की जरूरत होगी. अपने संसाधनों से सरकार इतना बजट खर्च करने की स्थिति में नहीं है.

हालांकि, उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार ने 2013-14 में बेरोजगारी भत्ता देने की शुरुआत की थी। प्रत्येक बेरोजगार को 1500 रुपये मासिक बेरोजगारी भत्ता दिया जा रहा था, लेकिन वर्ष 2017 में भाजपा के सरकार आने के बाद यह भत्ता बंद हो गया। प्रदेश में पिछले वर्ष तक करीब 210 करोड़ रुपये का बेरोजगारी भत्ता बांट दिया गया था। अब उत्तराखंड में भाजपा सरकार है। यह सरकार किस तरह काम करेगी, कुछ भी स्थिति साफ नहीं है। रोजगार से लेकर युवाओं को लेकर ठोस नीति नहीं नजर आ रही है। इधर, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश सरकार में इस तरह की स्कीम लागू थी. नई सरकार बनने के बाद योजना का क्रियान्वयन नहीं हो रहा है.

यूबीआइ योजना को लेकर कई तरह विचार हैं. कुछ अर्थशास्त्री मनरेगा समेत विधवा, विकलांग पेंशान को भी इस योजना से जोड़ते हैं. उनका तर्क है, मनरेगा को और वृहद स्तर पर चलाया जाए. इससे दो तरह की समस्या कम हो जाएगी, एक तो वास्तविक गरीबों को लाभ मिल जाएगा, दूसरा प्रशासनिक तंत्र को योजना का लाभ दिलाने में अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ेगी. अन्य जरूरतमंद को पेंशन योजनाओं को बेहतर लाभ उपलब्ध कराया जाए. वैसे अब लोकसभा चुनाव होने हैं. इस नजरिये से भी केंद्र की भाजपा सरकार कुछ ऐसी गेमचेंजर योजना लांच करना चाहती है, जिससे सभी का ध्यान फिर से उनकी ओर आकृष्ट हो सके.

तमाम देशों में यूबीआइ स्कीम संचालित है, लेकिन यह योजना उन देशों में भी राष्ट्रीय बहस का मुददा बना हुआ है. फिनलैंड अपने देश के बेरोजगार नागरिकों को 595 डाॅलर प्रति महीने देता है. इटली की सरकार 75 से 555 डाॅलर प्रतिमाह देती है. फ्रांस में भी बेरोजगारों को बेसिक इनकम चुनावी मुददा बना रहता है. पिछले राष्टपति चुनाव में दावेदार बी हैमोन ने प्रत्येक नागरिक को 800 डाॅलर प्रतिमाह देने का वादा किया था. नीदरलैंड में 1020 डाॅलर प्रतिमाह देने का प्रावधान है. वहां पर इस योजना का नाम नो व्हट वर्क यानी काम क्या करना है इसे जानो है. इसके अलावा ब्राजील में 10 डाॅलर, इटली में 537 डाॅलर मिलते हैं. युगांडा में बच्चों व युवाओं के लिए अलग-अलग राशी निर्धारित है. बच्चों के लिए 9.13 डाॅलर और युवाओं के लिए 18.25 डाॅलर तय है. कनाडा व नांबिया में भी पाइलट प्रोजेक्ट के तहत संचालित यह योजना सफल रही. कुछ देशो में इस योजना का मिलाजुला असर ही देखने को मिला.

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