नन्दादेवी महोत्सव

नंदाकोट, नंदाकिनी, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदादेवी, नंदप्रयाग, और नंदाभनार जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को उत्तराखण्ड में प्राप्त धार्मिक महत्व दर्शाते हैं. नंदा कुमाऊं, गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं. नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं. हर बरस जगह-जगह लगने वाले नंदेवी मेले में उमड़ने वाला सैलाब अटूट आस्था को प्रदर्शित करता है.

कुमाऊँ में अल्मोड़ा, कर्मी, चिल्ठा, बदियाकोट, डंगोली,  रणचूला, सोराग, पौथी, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं. अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं. नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला लोक विरासत की कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं. अल्मोड़ा नगर में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मेले का आयोजन होता है.

अल्मोड़ा नंदादेवी के संबंध में यह माना जाता है कि सन् 1670 में चंद शासक राजा बाज बहादुर चंद बधाणकोट किले से मां नंदा देवी की स्वर्ण प्रतिमा लाये और उसे अल्मोड़ा के मल्ला महल में स्थापित कर दिया. तब से उन्होंने मां नंदा को कुलदेवी के रूप में पूजना शुरू किया. सन् 1690 में तत्कालीन राजा उद्योत चंद ने पार्वतीश्वर और उद्योत चंद्रेश्वर नामक दो शिव मंदिर नंदादेवी मंदिर में बनाये. मल्ला महल में स्थापित नंदादेवी की मूर्तियों को भी सन् 1815 में ब्रिटिश हुकुमत के दौरान तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने उद्योत चंद्रेश्वर मंदिर में रखवा दिया.

भाद्र महीने की पंचमी तिथि से मेला प्रारंभ होता है. मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं. यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं. नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के समान बनाया जाता है. षष्ठी के दिन शाम के समय में केले के पेड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है.

षष्ठी के दिन शाम के समय पुजारी अक्षत, चन्दन, पूजन का सामान और लाल व श्वेत कपड़ा लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है.  धूप-दीप जलाने के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंकता है. जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है. जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं.

इसके बाद मंदिर के भीतर प्रतिमाओं का निर्माण होता है. प्रतिमा निर्माण आधी रात से पहले पूरा हो जाता है. आधी रात में इन प्रतिमाओं की  प्रतिष्ठा व पूजा होती है.

मुख्य मेला अष्टमी को शुरू होता है. ब्रह्ममुहूर्त से मांगलिक कपड़ो में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ करती हैं. दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं. अष्टमी की रात को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा कर बलिदान किये जाते हैं. मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है. अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी को रखा जाता है. अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुंड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है.

मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक ‘जगरिये’ मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं. मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है. इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं. झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं. मेले का एक अन्य मुख्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं.

अल्मोड़ा की तरह नैनीताल में भी नंदादेवी मेला आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है. कहा जाता है कि अल्मोड़ा से जाकर लोगों ने ही नैनीताल में भी इस मेले की शुरुआत की थी. साल 1918-19 ई. में स्थानीय लोगों की पहल पर इस त्यौहार को नैनीताल में भी जातीय पर्व के रुप में मनाया जाने लगा. मेले को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए श्री राम सेवक सभा द्वारा वर्ष 1938 में व्यवस्था अपने हाथ में ले ली गयी. वर्तमान में भी इस संस्था के पास व्यवस्था का सारा कार्य है.

नैनीताल में भी मेला पंचमी से ही प्रारंभ होता है. यहाँ भी नंदा प्रतिमाओं को कदली स्तम्भों से ही निर्मित किया जाता है. मेले के लिए ब्राह्मण नैनीताल के पास बसे ज्योलीकोट से आते हैं. अल्मोड़ा की ही तरह कदली स्तम्भों का चयन विधिविधान से किया जाता है. मल्लीताल में स्थित धर्मशाला में विधि अनुसार चयनित किये गये कदली स्तम्भों के पूजन अर्चन के बाद मेले की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो जाती है. स्थानीय शिल्पी अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परम्परानुसार नंदामुखाकृतियाँ निर्मित करते हैं. मुखाकृतियों के आंगिक श्रंगार और उनके आभूषणों से अलंकृत करने के बाद उनका पूजन किया जाता है, प्राण प्रतिष्ठा की जाती है.

मेले के अन्तिम दिन परम्परागत रुप से शोभा यात्रा निकाली जाती है. अन्त में पाषाण देवी मंदिर के पास इन देवी विग्रहों को विसर्जित किया जाता है.

संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के मोनोग्राफ के आधार पर

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Girish Lohani

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