उत्तराखण्ड की इष्ट देवी नंदा मानी जाती हैं. प्रदेश के सभी क्षेत्रों में नंदा देवी की वन्दना में उत्सव मनाये जाते हैं. इन उत्सवों में ख़ास है नंदा जात, जात का अर्थ है यात्रा. यह हर वर्ष मनायी जाती है. हर बारहवें वर्ष के अंतराल पर भव्य और लम्बी राजजात का आयोजन किया जाता है. राजजात का अर्थ है राजाओं की इष्ट देवी कि यात्रा.
इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुमाऊं के कत्युरी राजवंश की भी इष्टदेवी थीं. राजवंशों की इष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है. नंदा देवी पूरे उत्तराखण्ड में समान भाव से पूजी जाने वाली देवी हैं. नन्दादेवी को पार्वती का रूप भी माना जाता है. कहीं-कहीं उन्हें पार्वती की बहन के रूप भी माना जाता है. नंदा को सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी, शिवा आदि नामों से भी जाना जाता है. लोक मान्यता के अनुसार दक्ष प्रजापति की सात कन्याओं में से एक नंदा का विवाह शिव की साथ हुआ. माना जाता है कि इसी हिमालय में माँ नंदा शिव के साथ वास करती हैं.
नन्दादेवी की प्रचलित जागरों में विभिन्न दन्त कथाएँ हैं. किसी में उन्हें चांदपुर गढ़ के राजा भानुप्रताप की बेटी बताया गया है तो अन्य जागर में उन्हें नन्द की बेटी बताया जाता है. नन्द महाराज की यह बेटी कृष्ण जन्म के पूर्व ही कंस के हाथों से निकलकर आकाश में उड़ गयी थी. एक अन्य जागर में नन्दादेवी का जन्म ॠषि हिमवंत और उनकी पत्नी मैना के घर पर हुआ बताया जाता है. इन बहुप्रचलित धारणाओं के बावजूद नन्दा देवी समूचे उत्तराखण्ड के लोक मानस में सर्वमान्य दृढ़ आस्था का प्रतीक है.
नंदा देवी से जुड़ी यह जात (यात्रा) दो तरह की है. पहली, वार्षिक जात जो हर साल अगस्त या सितम्बर महीने में मनाई जाती है. हिन्दी माह के भादों के कृष्णपक्ष में नंदा अपने मैत (मायके) आती हैं. कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी को मैत से ससुराल को विदा किया जाता है. यह जात कुरुड़ से शुरू होकर बेदिनी बुग्याल के बेदिनी कुंड में संपन्न होती है. दूसरी, नंदा राजजात जो बारह साल के अंतराल में मनाई जाती है. माना जाता है कि एक दफा माँ नंदा किन्हीं कारणों से 12 साल तक अपने ससुराल नहीं जा सकी थीं. सातवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी नंदा को 12वें साल मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की, यह परंपरा आज तक कायम है.
12 साल के समयांतराल में आयोजित होने वाली राजजात नौटी से शुरू होती है. कुरुड़, अल्मोड़ा, कटारमल, नैनीताल तथा कुमाऊं, गढ़वाल के कई अन्य गाँवों कस्बों से निकलने वाली डोलियाँ, छंतोलियाँ नन्दकेशरी आकर राजजात का हिस्सा बन जाती हैं. इस यात्रा में होमकुंड तक 250 किमी से ज्यादा की दूरी पैदल तय की जाती है. वाण गाँव से नंदा का ससुराल शुरू हुआ माना जाता है. यहीं से यह यात्रा अपने दुर्गम पड़ाव में भी दाखिल होती है. वाण गाँव तक आते-आते लगभग 114 देवी देवताओं के निशान या चिन्ह राजजात में शामिल हो जाते हैं. वाण में ही लावा, दशोली और अल्मोड़ा की नन्दादेवी तथा कोट भ्रामरी की नन्ददेवी की कटार राजजात में शामिल होती है. वाण से आगे की यात्रा दुर्गम होती हैं और साथ ही प्रतिबंधित एवं निषेधात्मक भी हो जाती है. गैरोली पातल, बेदिनी बुग्याल, पातर नचौनिया, भागुवाबसा, रूप कुंड, ज्युरांगली, शिला समुद्र होते हुए नंदा पर्वत की तलहटी में होमकुंड पहुँचती है.
पातर नचौनियाँ के बारे में कथा प्रसिद्ध है कि राजा यशोधवल अपनी यात्रा में अन्य नियमों के उलंघन के साथ-साथ बाजे और नृतकियां भी लाता था. रात्रि विश्राम में उसने नृत्य का आयोजन किया. यात्रा के नियम भंग होते देख देवी ने चेतावनी स्वरुप सभी नृतकियों को पत्थर बना दिया।.इसी से उस स्थान का नाम पातर (नृतकी) नचौनियाँ (नचाने वाला) पड़ गया. आज भी शिलालेखों के गोल घेरे वहाँ देखे जा सकते हैं. इस घटना से भी राजा यशोधवल नहीं चेता तो आगे चलकर देवी के प्रकोप का परिणाम राजा को रुपकुण्ड में भुगतना पड़ा. रूपकुण्ड में मौजूद मानव अवशेष इन्हीं के माने जाते हैं. राजजात में आये हुये नौटियाल ब्राह्मणों द्वारा कुंवरो के हाथों उनके पितरों का तर्पण कराया जाता है. रूपकुण्ड में 6000 साल पुरानी इन मानव अस्थियों के बारे में कई अन्य किवदंतियां भी प्रचलित हैं. यह भी माना जाता है की स्वर्गारोहण की इच्छा में लोग ज्युरांगली की पहाड़ी से इस कुंड में छलांग लगाया करते थे. होमकुंड में पूजा-अर्चना कर माँ नंदा को शिव के पास विदा कर दिया जाता है. मान्यता है कि यहाँ से माँ नंदा चौसिंग्या खाडू के साथ कैलाश के लिए रवाना होती है.
यात्रा का नेतृत्व एक चौसिंग्या खाडू (चार सिंग वाला भेड़) करता है. इसके बारे में मान्यता है कि यह ठीक यात्रा से पूर्व के महीनों में पैदा होता है और इसके जन्मते ही बाघ तब तक गोठ के चक्कर लगाता है जब तक कि खाडू को माँ नंदा को समर्पित करने का संकल्प न ले लिया जाए. इस खाडू के करबच्छ (पीठ में दोनों ओर लटकता थैला) में नंदा की श्रृंगार सामग्रियां रखी जाती हैं. होमकुंड में इस खाडू को छोड़ दिया जाता है. मान्यता है कि होमकुंड से आगे यही खाडू नंदा के साथ आगे कैलाश जाता है. नंदा के डोली के अलावा विभिन्न गावों की भेंट छंतोलियों में लेकर श्रद्धालु नंगे पाँव यात्रा में चलते हैं. रिंगाल और भोजपत्रों की छंतोलियां राजजात की विशिष्टता हैं. श्रद्धालु खुद के साथ लाये अनाज से खाना बनाकर खाते हैं. इसी दौरान व्रत-अनुष्ठान भी करते हैं.
यह हिमालयी यात्रा संभवतः दुनिया की सबसे दुर्गम यात्रा है. यात्रा की कठिनाई और दुरुहता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि वाणगांव से आगे यात्रा 11000 से 18000 फीट (ज्युरांगली) की ऊँचाई तक जा पहुँचती है. पिछली दो यात्राएँ होम कुंड तक नहीं पहुँच पायी हैं. ऐसी स्थिति में शिला समुद्र के पास ही छोटा होमकुंड में ही पूजा-अर्चना संपन्न की जाती है.
रणकाधार से आगे यात्रा में काफी प्रतिबन्ध भी है स्त्रियाँ, बच्चे, दलित जातियाँ, चमड़े की बनी वस्तुएं, गाजे-बाजे, इत्यादि निषिद्ध हैं. हालांकि पिछली यात्रा में इन प्रतिबंधों में कुछ ढील दिखाई दी थी. हजारों श्रद्धालु आज भी इस यात्रा को पूरा करते हैं. इस यात्रा के सफल संचालन के लिए भी ‘नन्दादेवी राजजात समिति’ का गठन किया गया है. इसी समिति के तत्त्वाधान में प्रति वर्ष नन्दादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है.
परम्परा के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरम्भ होता है. इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुंवरों के अलावा अन्य सम्बन्धित पक्षों जैसे बधाण के 14 सयाने, चान्दपुर के 12 थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केन्द्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है.
आयोजन में सम्बन्धित प्रशासनिक एवं सरकारी विभाग, गैर सरकारी संगठन, स्वयंसेवक एवं जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आम जनता भी भागीदारी करती है.
पिछली नंदा राजजात यात्रा 2014 में संपन्न हुई. यह उत्तराखण्ड बनने के बाद की पहली यात्रा थी. यात्रा को 2012 में होना था मगर यह प्राकृतिक कारणों से टलती आ रही थी. इस यात्रा में देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु और पर्यटक शामिल हुए थे.
(सभी तस्वीरें नंदा राजजात – 2014 से)
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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