परम्परा

वरिष्ठता का पैमाना है पहाड़ी नामकरण का भात

नामकरण हमारे हिन्दू धर्म का पांचवां संस्कार होता है इस दिन माता-पिता नहाकर नए वस्त्र पहनते हैं और शिशु को भी नहलाकर नए कपड़े पहनाए जाते हैं. फिर माता-पिता बच्चे को अपनी गोद में लेकर हवन स्थल पर बैठते हैं. (Namkaran Ka Bhaat)

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हवन करने के बाद पंडित बच्चे की कुंडली बनाते हैं. कुंडली के अनुसार बच्चे की राशि के हिसाब से एक अक्षर का चयन किया जाता है. माता-पिता अपने शिशु के लिए इसी अक्षर से शुरू होता नाम रखते हैं. आजकल लोग पहले ही कुंडली बनवाकर अक्षर पता कर लेते हैं और उसी के अनुसार पहले से कोई अच्छा नाम सोच लेते हैं.

पूजा आदि के बाद माता-पिता कान में बच्चे का नाम बोलते हैं और फिर एक-एक करके पूरे स्नेह के साथ सभी सदस्य व सगे संबधी बच्चे को अपनी गोद में लेते हैं और उसे उसके नाम से पुकारते हैं.

पहले इस तरह होता था कुमाऊं में नामकरण संस्कार

बदलते समय में भी पहाड़ की पहाड़ जैसी मान्यतायें हैं हर पहाड़ी के अंदर जड़ जमाये हुए हैं. इन्हीं में एक है पहाड़ी नामकरण का भात. वैसे तो भात खाने की परंपरा पहाड़ के हर कामकाज में हुई, फिर चाहे शादी हो या जनेऊ या फिर नामकरण. लेकिन इन सब में नामकरण का भात खाने के साथ ही वरिष्ठता मापने में भी कहीं न कहीं योगदान रहता है. उम्र में छोटे-बड़े की माप के कई तरीके हैं लेकिन आप अगर पहाड़ी हैं तो आपने जरूर कभी बोला या सुना होगा— “अरे! मैंने तो तेरे नामकन (नामकरण) का भात खाया ठहरा. यह बात उम्र में बड़े होने का संकेत करती है. यह बात आपको गांव के लोगों या फिर सगे संबंधियों से सुनने को मिलती है.

नामकरण के भात से तात्पर्य है— जब बच्चा दस दिन का हो जाता है तो उसका नामकरण संस्कार होता है. इस आयोजन में पूरे गाँव व संबंधियों के लिए एक भोज का आयोजन भी होता है. इस भोज में मुख्य रूप से दाल-भात खाने-खिलाने का प्रचलन है. आजकल नामकरण में और भी तरीके के कई भोजन शहरों में परोसे जाने लगे हैं लेकिन गांवों और पहाड़ी अंचलों में आज भी तांबे के तौलों में नाली के नाप से चावल और पानी डालकर बना हुआ भात और साथ में पहाड़ी तरीके से बनी दाल ही प्रचलित है. मौसमी सब्जियां, रायता, चटनी, बड़ा ये सब भी भात का साथ निभाते हैं.

यही भात आगे चलकर एक पैमाना बन जाता है. अक्सर लोग कहते हैं “अरे! बहुत बड़ा हो गया, तेरे तो नामकरण का भात खाया ठहरा.” “फलाने के लड़के/लड़की की शादी है बल, परसों का ही हुआ वो उसके नामकरण का भात खाया ठहरा मैंने.”

नामकरण का भात खाने का सीधा तात्पर्य हुआ कि कहने वाला आपसे इतना बढ़ा है कि आपके नामकरण के योजन में उसकी भात खाने की उम्र रही होगी.
(Namkaran Ka Bhaat)

खुनौली, बागेश्वर के कमल कवि काण्डपाल वर्तमान में रूहेलखंड विश्विद्यालय के छात्र हैं.

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Sudhir Kumar

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