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छिपलाकोट अंतरयात्रा: चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया

वापसी का दौर था. कुंडल दा, सोबन, दल बहादुर और डमर दा ने पहले से तय कर रखा था कि पहले पटौद कुंड से हो कर जाने वाले रास्ते की खोज खबर लेंगे. रेंजर साब और भगवती बाबू से इस पथ के बारे में काफी बातचीत हो चुकी थी. सो अब टेंट खोलने, लपेटने और बिखरे सामान की बटोरा बटोर शुरू हो गई थी. कहीं भी कोई कूड़ा करकट यहां फैला न रहे यह रेंजर साब ने कड़क चेतावनी दे दी थी.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

अभी दो दिन पहले जो भारी हिमपात हुआ था अब अचानक आ पड़ी तेज धूप से बर्फ पिघल रही थी और रह रह कर ठंड के झोंकों का एहसास दिला रही थी. चारों तरफ नजर घुमाने पर हर बार ऐसा महसूस हो रहा था कि ये कुछ नया सा दिख रहा है. दीप से कहा तो उसका भी यही कहना था कि हर बार बदले हुए नजारे हैं. यहां से उतरने का मन ही नहीं हो रहा. पता नही दुबारा कब आएं. हमारी आपस की गुण-मुण रेंजर साब सुन रहे थे. सो बोल पड़े, “बस यह पल है, इसे जी लो. आगे जो हो इसी आँख में रिंगणे वाले छिपला पर छोड़ दो. अब बस हर सांस इसी से प्राण तक जा रही है गुरू.हर मंजर दिलकश है”.

वाकई में छिपला की एक दूसरे से चिपटी एक दूसरे में समाई अनगिनत चोटियों पर जमी बरफ ने उसे एकाकार कर दिया था जिसकी सफेदी भरे कोने खूब गहरे नीले आसमान से चिपके थे और यहां-वहां से सरकते बादल के गुच्छे हर पल में रंगत निखार दे रहे थे. कदमों तले ठंड महसूस हो रही थी तो सर से नीचे सूरज का ताप बढ़ता हुआ महसूस हो रहा था.दूर पहाड़ियों की तलछट से धीरे-धीरे कोहरा ऊपर की ओर उठते दिखाई देने लगा था. अब तो रुई जैसे उसके गुच्छे झिलमिलाते हिम भरी पहाड़ियों पर लटकने लगे.

चेले फटाफट सारा बिखरा सामान समेटने में जुटे थे बस टेंट लपेटने में देर लग रही थी. सोबन ने मेरे पिट्ठू को पूरा उलट दिया और उसके सामान को अपनी तरकीब से रखने लगा.

“आगे की जरूरत का सामान ऊपर-ऊपर दिया, नीचे को चाने की जरूरत ही नही”, बोलते वह मुस्कुराया. फिर बोला, “अभी देखना सर, कितने तेज हौला आता है यहां, आगे के बाट को चिताना ही मुस्किल हो जायेगा. खैर, कोई परेशानी वाली बात नहीं, इसी राह के रसिया हुए सब”.

“अब किस रास्ते वापस होंगे हम”? दीप ने पूछा.

“फरकने का एक बाट तो खेला पलपला वाला है जिसके नीचे बस उतार ही उतार है. थके लग जाती है ऐसे बाट में, दूसरा फिर चेरती ग्वार वाला हुआ जिससे आगे बढ़ते शेराघाट तक पहुंचा जाता है. अब रेंजर साब और भगवती पंडितजु तो धारचुला ही रुकेंगे. बाकी तो थोड़ा नीचे उतर के ही फाम लगेगी कि कहां से उतरा जाए”.

मैंने कैमरा स्टैंड में लगा लिया. छिपला की कुछ फोटो स्लो स्पीड में लूं और कुछ ग्रुप फोटो भी. रील भी अब सिर्फ दो बची हैं और ट्रांसपेरेंसी तो बस एक ही है. स्लाइड वाला कैमरा दीप को दे दिया उसका हाथ इसमें परफेक्ट है जहां उसने कैमरा पकड़ लिया तो खींचेगा गजब. मेरे तो ट्रायल एंड एरर चलते हैं. फोटो दिल्ली जा गुरूदेव एस पाल को दिखाने हैं जाहिर है डांठ भी खानी है. वह तो परफेक्शनिस्ट हैं.जो उन्हें पसंद आ जाए सो समझो हजार में एक फोटो होगी.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

“फोटो तो नजर से पढ़ी जाती है बच्चे वो बात ले आओ कागज पर जो दिल में है. दुनिया में बेचारा दिल ही तो है जो सब सहता है”. वह बहुत संजीदा हो कर कहते. बिल्कुल तल्ख तेवर दिखा उनकी श्रीमती बोलीं थीं तब. और जो मैं तुम्हें सह रहीं पार्टीशन के बाद से. कुड़मई क्या हुई पुत्तर दंगे हो गए, कैसे मरे कटों के बीच से ये फसादी ले आया पुरानी दिल्ली के रिफ्यूजी कैंप में, पांच बरस लगे पंजाबी बाग के अपने इस घरौंदे में सर छुपाने में. कितने दिन तो शीश गंज पड़ी रहती इनके कैमरों और बाकी लोह लक्कड़ को कलेजे से लगाए. अखबार के दफ्तर से लौटते तो मुझसे न पूछते कैसे गुजारा दिन, बस पूछते मेरा हजलब्लेड सलामत है, रोलीकॉर्ड सही है? इत्ते बरस गुजर गए दो तोले सोने के कड़े न ला दिए ये”.

“एक फोटक मेरे को खींचने दो साब जी !” बड़ी हौस से दल बहादुर बोला.

“लेss थाम “, कैमरे का पट्टा उसके गले में लटका उंगली क्लिक पर जमा आंख व्यू फाइंडर पर टिका मैं बोला. खुद उसके सामने खड़ा हो गया. अब दल बहादुर को देखा तो हंसी छूट गई. उसके हाथ पैर कांप रहे थे. उसकी ये हालत देख सबको हंसी आ गई. वो बिचारा और नर्वस हो गया.

“तू शाला तो डोटियाल ही रहेगा रे दिलुवा! रोक सांस और कर फौज वाली एटेंशन. जो आंख से देख रहा उस और देख दबा बटन,जिस छेद से देख रहा वो आंख खुली रख दूसरी बंद कर”. डिमर दा ने इंस्ट्रक्शन दिया.

“मेरी तो दोनों आंख बुजी जा रहीं,आगे क्या देखूं “.दल बहादुर बेबस था.

“अरे आंख भी नहीं मारी किसी को हो दिल दा? बस वैसा ही कर दो”. सोबन खितखिताया.

“अपना दिलूवा तो सीधा घोप निकल वाला है. बजांग वाली शिलाजित चाट कितने थन निमोड़े ठहरे इसने, अभी होश गुल कर मर्यांन” कुंडल दा ने चुटकी ली.

कुंडल दा कुछ और कहने ही जा रहे थे कि दल बहादुर की चीख सुनाई दी, “खींच दी हो हजुरो”.

“तू दिलुवा, घुरड़ की टांग में गोली चलाने वाला, कैमरा पकड़ा तो लमपुचड़ी जैसा थिरक रहा था”डिमर दा ने खुशी से उसकी पीठ पर एक गदेक लगाई. फोटो जब बन के आईं तो दल बहादुर की खींची यह फोटो सबसे अच्छी लगी.
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सामान सब पैक था. ग्रुप फोटो खिंच चुकी थी. अब वापस कदम लौटने थे. यहां पहुंच के जितना सुकून मिला था तो अब बेकरारी थी. मन कहता कुछ और रुकें, कुछ और करीबतर देखें. कुछ सुबह शाम और काटें. मैने महसूस किया कि अब सभी कुछ खोए से हैं, गुमसुम. भगवती बाबू तो न जाने कितनी बार इन चोटियों को प्रणाम कह चुके हैं, हर बार उनकी तरफ नजर पड़ती है तो उनके हाथ छिपला की पहाड़ियों की ओर नमस्कार की मुद्रा में हैं. संकरु की तो पूरी पार्टी साष्टांग दंडवत की मुद्रा में दिख गई. सबने अपने अपने हिस्से का असीम विस्तार पा लिया. मेरी भी वह हसरत जो बचपन से मेरे साथ चिपकी थी कि उस ऊंचे पहाड़ पर जाना है. चीना रेंज से दिखने वाला लड़ियाकांटा का वह ऊंचा शिखर. कितनी जिद थी कि कोई मुझे वहां ले जा दे. अरसा गुजर गया तब जा पाया और तब वहां से और ऊंची पहाड़ियों दिखीं. कितनी फैली हुई कितनी मनमोहक. सबसे दूर के पर्वतों पर तो बर्फ दिखती थी. उन चोटियों पर जहां जाने के लिए मन मचलते रहा. अब तबियत ठहरी जा रही है. छिपला के इस शिखर पर पहुंच कर ऐसा लग रहा है कि बचपन में मैंने यही चाहा था जिसके सपने भी मुझे कई कई बार आते और फिर मैं धड़ाम से गिरता और मेरी आंख खुल जाती. नींद में कुछ बड़बड़ाता भी और गिर पड़ने पर चीखता भी. सबकी नींद खुलती तो उनकी नाराजगी भी झेलनी पड़ती. बप्पा जी की तो यही राय थी कि मैं डोली हूं, मेरा मन कहीं नहीं लगता और सपने में भी मैं यही सब चढ़ने उतरने की फिल्में देखता हूं.

ये हसरत कब से कुलबुलाई और फिर मुझे मेरी तरह के लोग मिलते भी तो रहे. पहाड़ में गांव में मुझे सबसे ज्यादा अगर किसी ने घुमाया तो वह मेरी आमा थी. अपने मामा के यहां गरमपानी के बाजार से ऊपर के गांव. स्टेशन में रोडवेज की गाड़ी से उतर सड़क पर करीब आधा किलोमीटर ऊपर की ओर चढ़, फिर एक मोड़ से सड़क के कच्चे रास्ते पर उतर जाना. इसी सड़क से ठीक सामने जो हरा भरा पहाड़ है काफी ऊंचाई पर उसके ठीक बीचों बीच में एक दुमंजिला घर दिखाई देता है, झक्क कमेट पुता. वहां रहती मेरी नानी जिसे सारे गांव वाले आमा जी कहते, सो हमारे मुख में भी आमा चढ़ गया. इस सड़क से नीचे ढलान वाले कच्चे रास्ते पर उतरते ही, मेरी चाहतें चील की तरह चक्कर काटने लगतीं. आमा दो गांवों की बड़ाणज्यु हुईं. पहला जो यहां सड़क से साफ दिख रहा वह हुआ, जड़भीला और दूसरा करीब पांच मील दूर चढ़ाई पर सिल्टुना. बस इस धार से उतर नीचे पड़ेगी गाड़. गाड़ के अगल बगल बिखरे खूब सारे गोल चपटी नुकीली शिलाएं जो बहते जल की सतह से ऊपर उभरे दिखते. बहता पानी इनसे टकराता और खूब शोर मचाता.एक चट्टान जिसका नाम ही मेंढक शिला पड़ गया. नीचे उतर जैसे ही गाड़ के पानी के पास पहुंचते सबसे पहला काम होता जूता जुराब खोलना और पैंट को घुटनों तक मोड़ लेना. हमें लेने को आमा जरूर किसी न किसी को भेजती. वह या तो कुंवर राम होता जो आमा का साजी था और या फिर उसके लड़के जो मेरे से कुछ बड़े और कुछ छोटे थे. बस ये बिरुवा, रतन, घंटू, परताप आ जाएं तो फिर मस्ती का आलम होता. कुंवर राम तो बहुत ही सख्त और दिखता भी के एन सिंह की तरह था जिसकी फिल्म आवारा देख तो मैं भी झस्की गया था. आंखें भी वैसी ही लाल. हमारे जड़भिल वाले घर से आधा मिल दूर उसका घर था. उसका बड़ा लड़का बिरूवा बताता था कि बाबू का निशाना बड़ा सच्चा है. तुमको भी खिलाएंगे काकड़ का शिकार और जंगली मुर्गी तो कौन पूछे. राज सेब यानी हमारे मामा भी घर के बाहर दूसरे चूल्हे में बनाते हैं बड़ा स्वाद वो पांच सेर वाले भड्डू में अब हमारे हाथ का तो तुम खाओगे नहीं.
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“क्यों नहीं जो खाऊंगा? “

“अरे यार नही खाते राज सेब लोग. हां हमारी निकाली दारू तो गटका जाते हैं. देखो ये गाड़ में माछ, भेकाने भी देखो. ज्यादा आगे मत जाना हां रड़ी जाओगे स्याट्ट से “.

बिरुवा की अनवार अचानक मुझे बहुत कुछ संकरू से मिलती जुलती लगी. संकरु सा ही मस्त खिलंदड़ पन बिरुवा में भी तो था.

मनचाही इच्छा पूरी हो गई छिपला केदार तक पहुंच. इसे ही कहते होंगे, “अगास पुज जाण”. बार-बार बस यही लग रहा था कि ऐसा ही कुछ मैं चाहता था, कल्पना करता था. जैसा साथ यहां की यात्रा में मिला उनके जैसी सूरतों, उनके जैसे स्वभाव वाले चेहरे पहले भी मुझे मिल चुके थे बस उन्नीस बीस का फर्क रहा होगा.

” नीचे उतर उस ग्वार की तरफ फरका जाता है जिसे चेरती ग्वार कहते हैं गुरुज्जी”. संकरू बोला.

“वह आगे बहुत दूर धार में बर्फ से ढकी चोटी की जड़ पर हरी पट्टी जो दिख रही है न, वही हुआ चेरती ग्वार का इलाका”. सोबन समझा रहा है कि खेला-पलपला के लिए नीचे से घूम कर जाना पड़ेगा. अभी डिकर दा की बात हुई अपने पछान वाले अनवालों से जो चेरती ग्वार होते ऊपर आए और बता रहे कि ये रास्ता अभी बिल्कुल सही है. वापसी फिर सेराघाट वाला रास्ता पकड़ लेंगे ये अपने ढोर ढंकर लिए, खूब घास हुई इस इलाके में.

हमारी पार्टी सारा सामान समेट नीचे ढलान में उतरती दिखाई दे रही है. सब से पीछे दीप, सोबन, संकरू और मैं हैं. फोटो खींचने के चक्कर में पिछड़ रहे हैं. अभी मौसम बिल्कुल साफ है. सोबन धूप में खिल उठी एक चोटी की ओर इशारा कर बता रहा कि वह नेपाल का आपी शिखर है. इसी के पीछे से सूर्योदय हुआ इसलिए खेला से तवाघाट को जाते रस्ते की फाम इसी के लैंडमार्क से बनती है.
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उतर चुके हैं. आधा घंटा भी न हुआ होगा कि अचानक ही कोहरा आया और आगे सब बुजी गया याने कि दो तीन फीट की दूरी से आगे सब गड्ड-मड्ड. ऊपर से ऐसा लग रहा था कि रास्ता खूब हरा-भरा मुलायम सी घास वाला होगा पर कहां यहां तो अब उतरते ही है खूब बड़े-बड़े पत्थर. उनमें से कई जगह तो अगल-बगल सरक कर निकलने का कोई रस्ता भी नहीं.उन पर चढ़-उतर कर कूद-फांद कर ही आगे बढ़ा जा सकता है जिनकी चोट रह-रह कर पैर के तलवे में पड़ रही और चीस मचा रही. अभी रेंजर साब के आदेशानुसार मुझे और दीप को बीच में रखा गया ताकि हम इन पत्थरों पर चलते लुड़क-पुड़क न जाएं. पीठ पर लदा सामान भी चेलों ने खुद लाद लिया था. रहा बचा गर्दन में लटका कैमरा ही था जो रह-रह डोलता. इस निकोन एफटीटू की बॉडी पीतल की होने से काफी वजनी थी.इसे कंधे पर लटकाना इस रास्ते में बड़ा जोखिम भरा था. जरा डगमग हुई कि इसके फिसल कर नीचे भ्योल की तरफ छटकने की पूरी गुंजाइश थी. गले में लटक कर भी नीचे उतरने में यह अपने भार से आगे को जाता फिर पीछे होता. एक तो उतार दूसरा रास्ता कितने किसम के ढूंगों और रोड़ी से भरा उस पर कैमरे का वजन, अब इनसे निमुज लगने लगी थी. अब तो धार पर उतार भी बढ़ते जा रहा था जिस पर खट्ट से फिसल जाने का भय जिसे कहते हैं रडि जाना.

घांघल पार करते घंटे भर से ज्यादा हो गया. ऊपर की ओर देखा तब लगा कि ऊंचाई से हम एकदम नीचे उतार पर पहुंच गए हैं और अब तो बदन की लोथ निकल गई है.

सामने जल कुंड दिख रहा है.जहां आगे हमसे तेज बढ़ी पार्टी अपना बोझ उतारे दिख रही है. इस सोते को देख प्यास खूब उभर गई है. सोबन मेरी इच्छा भांप गया है. बोला, “एक दम पाणी मत घुटका लेना सर. पहले आराम से सांस बराबर होने देना नि तो बुजा लग जायेगा. और लो, पानी घूंट घूंट पीने के बाद ये छिरपी खाप में डाल चूसना. वो अणवाल मिले थे न ऊपर वो ही दे गए. एकदम चॉकलेट हुई. बस चूसते रहो. ताकत भी खूब आती है. ये याक के दूध को जमा कर बनती है.लो चाखो…”

खूब पानी पिया. बड़ा मीठा पानी कुंड का. जैसा बताशा घोल आमा गंगा दशहरे के दिन पिलाती थी. ठंडा इतना कि पेट भी अरड़ महसूस करने लगा. अब आराम से एक शिला पर पीठ टेक सोबन की दी छिरपी मुंह में डाली.दूधिया रंग के चौकोर छोटे टुकड़े. सोबन ये कह दे गया कि खाप और गला सूखने, रिंगाई आने और पस्त पड़ जाने पर गजब का फैदा करती है ये जो याक के दूध को जमा कर बनाई जाती है. छिरपी का एक टुकड़ा मुंह में रखा तो अजीब सी एक सड़ेन बदबू आई. अब मुंह में डाल ली थी, सबके सामने थूकता भी कैसे सो मुंह में गलती रही और धीरे धीरे मीठा-मीठा दूधिया स्वाद आने लगा.
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लगातार दो तीन घंटे उतार में इन घांघलों से हो गुजरते अब तो आगे चलते पिण्डलियों में बहुत पीड़ और चसक रह-रह कर बढ़ रही थी. सबसे बुरा हाल तलुवों का था. आगे बढ़ते रहे तो एक मोड़ के बाद देखा कि एक खाई थी. बहुत गहरी. जहाँ हम सब पहुँच गए थे वहां बोल्डर थे अनगिनत छोटे बड़े. सभी अपना सामान कंधों-पीठ से उतार उन घांघलों में विश्राम की मुद्रा में पसरे बैठे थे. डमर दा मेरे बगल ही अलसाया था बोला, “पूरे बाट में केदार द्यो यहीं परीक्षा लेता है सैबौ! एक तो उतार हुआ ऊपर से चलना भी माठु-माठ, जरा तेज हुए तो रड़ी जाने का खतरा हुआ.अब आगे देखिये ये खाई पार करने के लिए हम इसी पहाड़ी के बाएँ इसकी उस चोटी तक जायेंगे बिलकुल धार-धार. चिपक के किनारे-किनारे “

“बाप रे यह तो मील भर चढ़ना हुआ अभी. अभी तो चढ़ाई से उतरे हैं. ये ऊँची चढ़ाई देख मुझे तो अभी से रिंगाई आ रही ” दीप बोला.

“माठू-माठ सब बाटे पार हो जाते हैं. बस सांस पर काबू रखना हुआ. अब इतना उतरे हैं तो फिर ये चढ़ाई पार हो ही जाएगी.” भगवती बाबू बोले और अपना बोझ पीठ पर डाल उठ खड़े हुए.

“सैsबोss! वो ऊँचा चढ़ते बस सांस पर काबू रहे. कदम भी छोटे धीरे-धीरे रख चढ़ना हुआ. सांस फूली तो बर्माडँ हिला, रिंगाई आ जाने वाली हुई.” सोबन बोला.

“अब भेड़-बाकरे लाते हैं हम तो धीरे-धीरे एक के पीछे एक वो जाते रहते हैं. अपने मतलब के पत्ते-घास पे मुंह भी मारते चलते हैं. एक भी नहीं घुरिता” संकरू ने ज्ञान दिया.

उस ऊँची चोटी की ओर देख चढ़ने की हिम्मत जुटाई. सपाट-समतल तो कुछ है ही नहीं. नुकीले पत्थर कंटीली घास पर उभरे हुए हैं. घास से उभर कर आये तिनके आधा-पौन फिट ऊपर हैं. इन्हीं पर कदम रख आगे बढ़ना है. कई जगह तो यह इतने घने हैं कि अगला कदम कहाँ रखा जाय वाली उलझन पैदा होती है. शुक्र है मेरे आगे चार जन हैं और मैं संकरू के ठीक पीछे. इनके आगे चलने से लम्बी उठी नुकीली घास थोड़ा सिमट गयी है. घास इतनी मजबूत है कि मुट्ठी की पकड़ कर खींचने से उखड़ भी नहीं रही है. पत्थरों के बीच यह बहुत मजबूती से जमी है. इसी को पार करते आगे बढ़ा जा रहा है. हर चार-पांच कदम आगे चलते जमीन में इस घास से रहित गड्ढे पार करने पड़ रहे हैं जिनके नीचे शिला होने से ये वनस्पति विहीन हैं. नमी से इन गड्डों के पाथर चिकने हो रहे हैं जूता मजबूती से न पड़े तो बस फिसलने का भय.कहीं नुकीली घास से कदम डगमगा जा रहे तो अब ये फिसलन भरे पाथर.
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समझ गया कि जल्दबाजी और हड़बड़ी कहीं नहीं चलेगी. बहुत धीरे-धीरे बस इसी राह का अनुसरण करना है जो हर कदम पर कुछ नई उलझन दे रही है और इस असमंजस में चढ़ाई पार करते उन गड्ढों में गिरने से भी बचे रहना है जो बिलकुल किनारे पर हैं और जिनके नीचे विकट खाई. रेंजर साब बनकोटी जी अब मेरे ठीक आगे हैं. ऊपर चढ़ते इस रास्ते पर बढ़ते दम फूल रहा है जिसे थामने नियंत्रित करने के लिए हर चार-पांच कदम चलने के बाद रुक सांस नियंत्रित करना जरुरी है.

“पांडेजी, बस यही प्राथमिकता है कि हर सांस के साथ अगला कदम पड़े इस नुकीली चुभन वाले रास्ते, फिसलन भरे रास्ते. ये कंटक तो आते रहेंगे, चुभेँगे भी. गिर पड़ने लुढ़क जाने के भय पर काबू करना है. इनके प्रति कृतज्ञ होना है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद ये रास्ता दे रही, आगे बढ़ा रही, ऊपर उठा रही, भरोसा दे रही कि जरूर पहुँचाएगी उस शिखर तक जिस पर चढ़ने के लिए इस खाई को पार करना है. यहाँ पर महसूस होने वाली हर छोटी से छोटी परेशानी से बचाव की जो सोच उभर रही उसके प्रति कृतज्ञ होना है.”

“बस सोचो, ऊपर की उस चोटी जहाँ हमने पहुंचना है को देख अब हर कदम आगे बढ़ाते गिरने लुढ़कने फिसलने के भय से मुक्त होते इस रास्ते के प्रति कृतज्ञ होना है जो मंजिल की ओर जाता है. रुपहले सुनहरे शिखर किसे अच्छे नहीं लगते पर उन तक पहुँच वही सकता है जो इस राह पर चलती हर छोटी से छोटी चीज के प्रति कृतज्ञ रहे. तो बस आगे बढ़ते हर कदम के साथ इस पथ इस रस्ते इस रह गुजर का मैं कृतज्ञ हूं कि वह मुझे आगे बढ़ा रहा है. इस हर पल इस बीते समय में की गई ऊपर की ओर जाने में बहुत सारी शक्तियां मदद दे रहीं हैं. मैं हर उस सांस का कृतज्ञ हूं जो आगे चलने के लिए मुझे आगे ठेले जा रही है. छोटी से छोटी बात के लिए, छोटी से छोटी चीज के लिए कृतज्ञ होना”. रेंजर साब की मौके पर कही बात मन में खुब गई है, बस गई है.

मन अचानक ही रजनी मैडम पर टिक गया. छोटी से छोटी चीज के प्रति सिंसेयर रहना ऐसा ही रजनी सिंह मैडम भी कहती थीं, इसके मायने तो आज इस रास्ते पर चलते समझ मैं आ रहा है. रेंजर साब भी वही बात कह रहे है. कड़ियाँ जुड़ रही हैं. रजनी सिंह मैडम. सम्मोहक व्यक्तित्व था उनका. वह इतने प्यार से मिलतीं, बोलतीं, बातें करतीं कि मैं तो उनका फैन हो गया था. छोटी छोटी बातों पर ध्यान देना, उन्हें पकड़ लेना उनकी खासियत थी. ये कॉपी इतनी मुड़ी तुड़ी क्यों है? इतनी ठंड है और स्वेटर नहीं पहना. नैनीताल में निमोनिया बहुत होता है. सर्दी लगी तो पढ़ाई कैसे करोगे? जीड और रिस्ट की किताब लाइब्रेरी से इश्यू करने को कहा था, वो ली? और एरिक रॉल की किताब ली या नहीं. आजकल ड्रामा की प्रैक्टिस में ज्यादा दिख रहो हो? ये कमीज की कॉलर इतनी तुड़ी मुड़ी क्यों है? उनकी बातों ने कहीं अंदर से सुधार दिया. कितनी छोटी सी बात वह पकड़ लेती थीं. मेरी प्यारी रजनी मैडम.

एम ए में हिस्ट्री ऑफ़ इकोनॉमिक थॉट के उनके पीरियड की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती थी. मैडम हर बार नये से रूप में फिजिक्स लेक्चर थिएटर में अवतरित होती थीं. उस क्लासरूम में सीढ़ी दार बेंच लगी थीं जिसके बाईं ओर लड़के और दायें तरफ लड़के बैठते थे. मैं सबसे आगे कोने में बैठता. मैडम तीसरी घंटी बजते ही क्लास में अवतरित हो जातीं. वह समय की बहुत पक्की थीं. उनके क्लास में आते ही धीमी खुशबू भरी बयार फैल जाती. उनका ड्रेसिंग सेंस बड़ा सुरुचि पूर्ण था. नैनीताल जैसी फैशनबल जगह में खूबसूरत चेहरे अनगिनत थे पर उनका सलीका और सुमधुर आवाज आर्थिक विचारों के इतिहास को अमिट कर देता था. मैंने तो पाया कि जीड और रिस्ट की रिफरेन्स बुक उन्हें पूरी याद थी. उन्हें सुनते तो मैं कई बार नोट्स लेना भी भूल जाता था.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

फिजियो क्रेट्स पढ़ाते मैडम ने बड़ा जोर दे कर समझाया था कि हमें अपने आसपास की चीजों, अपने वातावरण, अपने परिवेश के प्रति सजग होना चाहिए. जब हम इनसे दिली रिश्ता बना लेते हैं तो हमारे आसपास और चीजें आएंगी. तब हमारे पास और और भी कुछ होगा कुछ नया सा, अचीन्हा. वहीँ अगर कृतघ्नता होगी भाव, सेंटीमेंट और विचारों में, तो नकारात्मकता आएगी. असंतुष्टि पैदा होगी. ईर्ष्या और द्वेष पैदा होगा. इसलिए प्रकृति के उपहार को स्वीकारो, मेरे पास कुछ भी नहीं है का भाव भरो अपने भीतर. प्रकृति से कहो कि उसने जो कुछ हमारे आस पास रचा उनसे ही हमने अपना जीवन संवारा. ये प्रकृतिवादी-फिजियोक्रैटस ही थे जिन्होंने मानव सभ्यता के विकास में प्रकृति को मूल माना, मुख्य माना.

प्रकृति किसने हमें संसाधन दिए. नेचुरल रिसोर्स. उदारता से सब दिया, जल-जंगल-जमीन-जीवधारी. हमें उनका उपयोग करने की चेतना दी, बुद्धि दी. अपने को और बेहतर बनाने के लिए हमने कच्चे माल से वस्तु बना डाली. अपने काम में कुशल हुए तो सेवा दी.उसने उदारता से सब दिया तो अपने आप को बनाये बचाए रखने के लिए इन साधनों से हम बनाना सीखे. चीजों को बनाना, सुविधा हो ऐसा कुछ कर जाना. इसी बोध से ही मनुष्य ने बहुत कुछ पा लिया, हासिल कर लिया क्योंकि वह प्रकृति के प्रति उदार था. प्रकृति के दिए साधनों से कच्चे माल को निर्मित माल में बदलने की कला ही कौशल और उपक्रम बना. इसके बाद और नया, नई विधि, नया तरीका यह नवप्रवर्तन की कहानी है.प्रकृति ने साधन दिए. उदार हो कर दिए.सब कुछ दिया. बस यह बात समझ लेनी है.

घांघलों से भरी इस धार से उतरते रजनी मैडम की वह बात भी याद आ गई जो वह अक्सर कहती कि परेशानी हो तो बस यह सोचो कि थोड़ी कोशिश से आगे सब ठीक हो जायेगा.बस यही सोच आगे बढ़ा जा रहा है उस कंटकाकीर्ण पथ पर जहाँ पत्थर ऐसे बिखरे है जैसे रोड़ी कूट के डाल दी गई हो इनके टुकड़े भी इतने अंगुल-अंगुल भर बड़े और नुकीले कि उनमें जूता आवाज भी करे और तलवे में चुभ- बुड़ टीस भी करे. पैर का वजन पड़ते ही पत्थर के टुकड़े आपस में टकराएं और जूता नीचे को जाते-रड़ीते धंसे और लगे कि अब फिसले अब फिसले. आगे देखा तो टेंट सहित भारी सामान उठाए पार्टी के बहादुर चले जा रहे. अब तो मैं ही पीछे रह गया हूं बस साथ में डमर दा है. परछाई की तरह.

मैं देख रहा हूं कि दूसरी ओर का पहाड़ है हिम से भरा, नीचे हरियाली से भरा, वह हमारी प्रतीक्षा कर रहा है और पीछे डमर दा, चुस्त फुर्तीले और चौकस. मुझे मालूम है उनका पूरा ध्यान मुझ पर और दीप पर है कि हम कहीं भी डगमगाएं तो वह हमें थाम लें. मैं कृतज्ञ हो रहा हूं लड़िया कांटा की उस चढ़ाई का जिस पर किशोर होते ही मैं चढ़ा था और तब मेरे साथ थे कॉलेज के माली दीनामणि सगटा जी कॉलेज के सबसे बेहतरीन माली जो अपने झोले में कितने किसम के ऒरकिड,जंगली फूलों की गांठ और बल्ब भी बटोर लाये थे. नैनीताल और गरम पानी धनियाकोट की पहाडियों पर चढ़ते चढ़ते पैरों का संतुलन बनाये रखने के साथ पेट को पीठ के साथ सपाट करने का कौशल तो आ ही गया था.न कभी मेद चढ़ी न चर्बी.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

अब रास्ते के अगल बगल मिट्टी दिख रही है जिन पर गड्ढे खुदे है.डमर दा बता रहे ये सब उन काणि चेले जड़ी बूटी खोदने वालों का काम है जिनके लिए डबल ही सब कुछ है. हरामी एक खुनरा एक टुकुड़ हर जड़ खोद ले जाते हैं ये भी नहीं सोचते कि अगली बार कैसे पनपेगी.देबता का वास हुआ यहाँ तो ये राकछस.ये कमीन बोट काटने वाले जड़ खोदने वाले निरबंसी ही रह जाते हैं माट्साब. अब ये देखो…”

सामने ढाई-तीन फीट चौड़ा और इतने ही गहरे गड्ढे उस रास्ते से नीचे उतरते मुझे दिख रहे हैं.

“इस इलाके में क्या नहीं होता मास्साब, सुने से ज्यादा मोल हुआ उसका. यहाँ कि दवा दारू येई हुई. लोग ठीक भी हो जाएं, आंग में ताप भी रहे. ऐसी जाग में रै हाड़ तोड़ने हुए. भेड़-बकर लाने हुए. द्यापता पूजना हुआ उसको भेट देनी हुई. अब उसका भी डर कहाँ रहा. सालम मिश्री और सालम पंजा बहुत होने वाला हुआ बिलकुल हड्डी के माफिक. बदन को लोहा बना दे. कोई बेकूफ़ ऐसे ही बिना पूछ किये खा ले तो तुरंत हगभरी जाए. मंडी में मुख मांगी कीमत मिलने वाली हुई. अब रत्ती भर नहीं दिकती. काणि चेले सब मिश्या गए. अब तो गभरमेन्ट ने भी रोक लगा दी है. पर कहाँ कहाँ रोक लगेगी. शिकारी आ ही रहे, कीड़ा जड़ी वाले गिरोह आ ही रहे. नीचे के इलाके में तो आईटीभीपी और असअसबी की गस्त से डरे रहते हैं. वर्दी देख फटी रहती है सबकी पर खोपड़ी तो स्याव की हुई. कभी निचे इलाके पन आग लगा देते हैं,जानवर भाग ऊपर की तरफ चढ़े तो वहां फंदे लगा देते हैं. कभी उनके खाने लायक चीज बस्त में बिष वाली बेहोस वाली जड़ी मिला देते हैं. बस फिर खाल भी खींचो बेचने को. हड्डी, नखून, दंत भी साबुत मिल जाते हैं. सब वार-पार हो जाता है. निचे अतर और सुने की तस्करी हुई नेपाल से. कित्ते लौंडे- मोंडे लगे हैं.ये जो इलाका अब दिख रहा वो कोस-दो कोस दूर वहां होने वाली हुई फर्न, मसक बाला,अर्चा, कुथ, चौरा, फरड़, तिलपुशपी जैसी हजार जड़ी जो पहचान सकें सयाने. ये जंगलात वाले ये लखनौ दिल्ली की सरकार थोड़ी फाम रखती तो कश्मीर हिमाचल क्या बेचता हमारे आगे”?

बातों-बातों में पता ही न चला कि इन घांघलों और नुकीले पत्थरों के बीच कील सी चुभती रोड़ी को पार कर वह दर्रा आ ही गया जिसके बाद सब बाटे ठीक हो जाने सुभीते से हिटने वाले हो जाने की रट से डमर दा कान कल्या चुके थे. अब इस बेरहमी से खुद रहे गड्डों के साथ भ्योल और खाई के संगम ने हिमालय का वह चट्टानी बीहड़ स्वरुप भी दिखा दिया था जिसके बारे में फोटोग्राफी के बादशाह एस. पाल साब कहते थे कि हमेशा कैलेंडर वाली फोटोग्राफी से बचना वह सिर्फ कुछ पलों के लिए सम्मोहित करती है. हकीकत बड़ी तल्ख़ होती है उस हिमालय की नयनाभिराम चोटी के नीचे कीचड़ मलवे भरे हिमनद और आसपास मंडरा रहे रौखड़ की तरह.कैलेंडर जैसे फोटो बेच तुम्हें कुछ रूपये तो मिल जायेंगे विज्ञापन के ठगों से निचुड के. पर तुम्हारे भीतर की वह आंख, वह नजर कभी डेवलप नहीं होगी जिसका मुकाबला दुनिया का महंगा से महंगा लेंस भी नहीं कर सकता. उन्होंने रेगिस्तान में खींचे अपने कई दुर्लभ चित्र मुझे दिखाए थे. उनको देख मुझे दुनिया के बेहतरीन फोटोग्राफरों के चित्र भी कई बार कमजोर लगते . संवेदना और जीवन प्रतिबिम्ब को पकड़ने की उनकी शैली का कमाल था ये.

अब हम दर्रे के प्रवेश स्थल तक आ पहुंचे थे. रेंजर साब दो पत्थरों पर टिकी कितली की आग का जोर बढ़ाने को फू फू किये जा रहे थे और कुण्डल दा ने मग सजा दिए थे.थकान से चूर एक पत्थर पर बदन टिका के बैठा तो पाँव के तलवों में लगातार बुड़ने वाले ढूंगों से उपजी टीस जूता खोलने के चक्कर में और उभर गई. दर्द भी अब पिण्डलियों की ओर सरक रहा था. बायीं टांग तो सुन्न झटक दे रही थी.

“मेरे तो साढ़े साती चल रही. बाएँ पाँव में आया है शनि”. दीप भी पस्त हो जूता खोल चुका था. जुराब उतरी तो तलवे नीले पड़े दिखे.”

“अभी उतारता हूं इस सनीचर को “कह रेंजर साब ने अपना झोला खोल एक छोटा लकड़ी का काला भूरा टुकड़ा निकाल संकरू को दिया और बोले,”ले इसे घिस चपटे पत्थर पर, फिर फतोड़ दे दोनों मास्टरों के तलवों में, अभी थोड़ा आराम आ जायेगा. खून जम के नील पड़ जाने वाली हुई.”
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

“यो त डोलू हुई मालिकों “. संकरू बोला.

“अँss. संध्या काल नीचे डेरे तक पहुँच ही जायेंगे, वहां खटाखट दारू का इंतज़ाम कर लेना बे. आधा पउवा ये भी चड़क लेंगे. सुबे तक टिल्ल रहो तो कैसी-कैसी नील फू ठेरी. तू तो स्साले अपनी दोनों की नराई चिता रहा होगा. एक को अंगवाल खिता दूसरी से चुपड़ी मालिस, ये स्साले का मुख देखो, कैसी खाप तान रहा. सुन के ही टन्न हो गया.”

“आपणे गीत गाण, उल्ट सिद्द कुण वालि उल्ट कपाई ” भगवती बाबू का मौन टूटा.

संकरू को सरम लग गई. तेजी से पाथर पर पानी के छींटे डाल वह डोलू की मलाई घिसने लगा जिसका रंग भी टिंचर आयोडीन की तरह था. ज्यूँली से चले चार साढ़े चार घंटे तो हो ही चुके थे. छितराये हुए नुकीले पत्थरों ओर चलते और अनगिनत गह्वर गड्ढे पार करते दर्रे तक पहुँचने में आज बदन की ताकत बिलकुल निचुड गई थी. दीप और मैं तो हुए ही अपना सोबनिया भी खूब हांफने लगा था. दर्रे के पास पहुँच जब काफ़ी दूर से तीन कुंड दिखाई देने लगे तब डिकर दा के चेहरे पर थोड़ा सुकून दिखाई देने लगा.

आपी शिखर तक फैली सामने की घाटी को फिर पहले कोहरे ने छुपा लिया और धीरे-धीरे बादलों ने ढक दिया. जहाँ हम चल रहे थे वहां से ढलान तक नीचे की ओर पसर रहे थे बादल बड़ी तेजी के साथ, दो विपरीत दिशाओं से आते हुए. कभी एक तरफ से कुछ धुंधलाये से गद्देदार बादल का झुण्ड आता दीखता तो दूसरी दिशा से बड़े मुलायन सफेदी भरे गोले जो अजीब अजीब आकृति बनाते और फिर आपस में समा जाते. कई बार ठीक बीच और करीब दो तिहाई हिस्से में इनका रंग काला पड़ता दिखता तो किनारे सफेद द्युति से भरे.अब तो सामने फैली पूरी घाटी बादलों के पीछे कहीं गुम हो गयीं और वह चोटियां भी छुप गईं जिनके दीदार करते हम तेरह- चौदह हज़ार फिट की ऊंचाई नाप आये थे.

कुछ पा लेने का संयोग था यह जिससे मिला संतोष अतीत के बहुत सारे पन्ने खोल पुरानी यादें सामने रख गया था. छुटपन से ही न जाने कहाँ चीना रेंज से दिखती लड़ियाकांटा की वह चोटी दिल कहूं या दिमाग़ में खुब गई थी .मन में बस गई थी. फिर कई चोटियां छुटपुट चढ़ी गईं. साथी भी मिलते गए ऐसे जिनको पैदल चलने की लत थी. जब से पिथौरागढ़ आया तब से कितनी बार कितनों से ये नाम सुना छिपला केदार, छिपला कोट. देवराज ने तो ऐसा सजीव वर्णन किया कि फिर मन में हूक उठी कि यहाँ तो जाना ही है.

अपने गुरु कर्नाटक जी अक्सर कहते कि जो करना है उसे पक्का तय कर दो. और बस पुकार लगाओ कि मुझे तो करना ही है यह. दिमाग़ में वही रहे बस कि जाना है. यह असंभव भी नहीं, मैं एवरेस्ट चढ़ने की थोड़ी सोच रहा. पोलिटिकल साइंस का अपना लेक्चरर देवराज पांगती भी जब से छिपला जा पूजा का आया तब से मुझे भी सपनों में वहीँ के बिम्ब उभरने लगे. फिर जब देवराज सा गोल मटोल थुलथुला इतना ऊँचा चढ़ पंद्रह बीस दिन चल सकता है तो आखिर में क्यों नहीं. उसका तो पेट भी बाहर निकला है, थोड़ी थोड़ी देर में कुर्सी पर बैठ लधार लगाने की आदत भी है उसकी. बता रहा कि ब्लड प्रेशर भी बढ़ा है. डॉ खरकवाल की बताई दवा चल रही और अपने गांव पांगू से आई दवा जड़ी बूटी भी.

“सर, मन में इच्छा हो तो देबता खींच ही लेता है. आप को तो चढ़ने उतरने का खूब शौक भी हुआ.बनाइये मन, बस सही मौसम और छुट्टी का बंदोबस्त करना हुआ. कुण्डल भी कब से सोच रहा, एक बार तो वह हो भी आया है. अब लड़का होने की मनौती पूरी होने पर जाना ही है उसने. आप तो दुबले पतले चलत फिरत हैं, थोड़ा सिगरेट तमाखू कम कीजिये.

दीप से तो रोज ही बात हुई. वह यात्रा का पक्का साथी हुआ. इधर उसको भी खांसी खुर्रा बहुत हुआ. एलो पैथी से मामला दबता, दिन भर की धूप के बाद शाम को जब सोर घाटी बरसात से नहाती तो फिर खों-खों शुरू हो जाती. नैनीताल में तो हम कैलाश आयुर्वेदिक में जा पीताम्बर पंत जी बैद्य जी के पास जाते तो वह अपनी फर्म का बना सितोप्लादी चूर्ण शहद में घोल चाटने को देते. वहां कैलाश दा अनारदाना चूर्ण भी देते हर किसी को. छिपला जाने की तरंग उठी तो मैं दीप के साथ पिथौरागढ़ नई बाजार शर्मा जी वैद्य के पास पहुँच गया. वो स्वाधीनता संग्राम सेनानी रहे. खद्दर धारी और गुस्सैल भी. उनकी दी आयुर्वेदिक दवा तुरत असर करती.

पाटनी इलेक्ट्रॉनिक्स के ऊपर शर्मा जी की भीतर तक पसरी दर थी. दोनों तरफ रैक जिन पर दवाओं के डब्बे ठुँसे दिखते. जिस आसन पर वह आलथी-पालथी मार बैठते उसके अगल बगल अनगिनत झोले, थैले-डब्बे पतेड़े दिखते. कई पैकेट बंद कई खुले-अधखुले. गोली, रस, आसव, जड़ी, कंद सब उनके भंडार में हुआ. शर्मा जी की दुकान में अगर भीड़ भाड़ हो तो चुपचाप एक कोने पसर जाओ. जल्दबाजी नहीं करनी. वरना डांठ भी खानी पड़ सकती. कइयों से तो नाराज हो कर वह हड़का कर भगा देते कि नहीं है आनंदकर टिकड़ी, चलो बाहर जबकि उसका पैकेट उनके पास ही धरा होता.

जब सब गाहक चले गए तो मैं और दीप उन्हें प्रणाम कर आगे बैठे. दीप की खांसी की बात जान वह भीतर के गोदाम में गए और थोड़ी देर बाद एक बोतल ले वापस आये. उसे हंतरे से साफ कर दीप को थमाई और बोले, “लो ये कनकासव है. धतूरे से बनती है. खूब पुरानी है धूत पापेश्वर कम्पनी की है. दो-दो चम्मच सुबह शाम गुनगुने पानी के साथ लो. और क्या हो रहा. क्या चल रहा?कहां हो रहा घूमना फिरना”?

“छिपला कोट जाने की सोची है, जल्दी ही. बस आप ऐसी कुछ दवाएं बताएं जिनसे वहां चढ़ उतर सकें”. दीप बोला.

“हां, असली रक्षा तो देह की करनी ही हुई पर मन स्थिर रहे तो सब रोग-शोक कट जाता है” अब अपने आसन से उठ उन्होंने कुछ डब्बे निकालने शुरू किये. तभी एक महिला तेजी से दुकान में आई. बाहर बरखा पड़ रही थी वह छाता बंद कर टपकती धार लिए तेजी से भीतर घुस गई.

“अरे? निकलो, छात भैर धरो. ऐ जानी बेकूफ़.के चें?

“पुठ पीड़ है गे बैद जु, फड़फडेट ले हूं नौ. चार गोई दी दिना.”

शर्मा जी ने तुरंत एक पत्ता निकाला और महिला की तरफ भन्का दिया. “पुर पत्त मिलोल, लाओ द्वि रुपे, टूटी डबल दिया हां, रत्ती ब्याव खैया पांच दिन. दे-भात झन खैया, अब जाओ”

“अंss”

दो रुपए का नोट शर्मा जी के भूरे बंद गले के कोट में समा गया. हमारी दवा की खोज की खटर बटर फिर शुरू हो गई.

“बाबू की तबियत कैसी है?” उन्होंने दीप से पूछा.

“ठीक हो रई अब, आपकी दवा रोज खाते हैं. ब्लड प्रेसर और नींद की डॉ मल्होत्रा वाली दवा बंद कर दी है.”

उनको जवाहर मोहरा दिया है मैंने,साथ में बसंत कुसुमाकर. ये एलोपैथी की तो लत लगा देते हैं डॉक्टर. जनम भर का ठेका, अब दो लड़के तो मेरे भी हुए डॉक्टर, देख ही रहा हूं “.

इस बीच तीन चार पैकेट निकाल अब एक डब्बे का ढक्कन खोलने में जुट गए वो. हाथ से नहीं खुला तो पेचकस का जोर पड़ा. तभी फिर एक लम्बा तड़ँगा गाहक आया और बोला, “छेरुवा लग गया हो बैद जू, जल्दी रोक की दबाई दो”

“और चड़म्म से देसी पी साले करमुआ. अभी भी बास आ रई. लिवर सड़ेगा तेरा, ऐसे ही फुकेगा तू”

“कसम से अब ठर्रे पै मोख भी नई लगाऊंगा, लाओ हो. ये लो डबल “

“ये साले बाप के कमाए डबल से दुर्गत कर रहा तू. तेरा बबा अस्सी पार कर फुका घाट. तू तो अभी तीस भी नहीं. ले ये गोली डाल मुख में और वो लोटे से पानी पी. ये बोतल से दो-दो चम्मच अरिष्ठ पी. फिर ले जाना अगले हफ्ते. हो गया पचास का हिसाब. चल निकल.”

“ये दारू ने सब चौपट कर दिया. वो मोरारजी सही था जो दारू बंद करा गया. अब देखो फिर वही. दूध नहीं मिलेगा अभी बजार में, बोतल मिल जाएगी.”

“आप दोनों साथ जा रहे हो छिपला? ये देखो सिद्ध मकर ध्वज की गोली है लाल रंग की. एक गोली रात को लेना नींद गाड़ने से पहले और ये दूसरी सुबह खाने के बाद इसमें पारा, गंधक, अभरक, रौप्यभस्म के साथ मूसली असगन्ध, बंसलोचन वगैरह वगैरह है. पूरी महीने भर की खुराक. दोनों के लिए अलग अलग लिफाफे में डाल देता हूं.जरा वो बटन खटका दो तो बाहर के बल्ब वाला. संध्या हो गई. मैं भी जरा धूप बत्ती कर लूँ.”

मैंने स्विच ऑन किया. फिर एक गाहक आया, जुसांदे की पुड़िया मांगने. “आधे घंटे बाद आना, जाओ ‘

इतनी दवा देख मुझे वो दीप को लग रहा था कि पता नहीं इनकी कीमत की धन राशि हमारे पर्स में है भी जने नहीं. दीप ने पूछ ही लिया.

“अब छिपला केदार जा रहे हो, मेरी तरफ से भेट चढ़ाना एकावन रुपे की और परसादी लाना ब्रह्म कमल की. जाओ, खुश रहो “.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

नजरों के ठीक सामने समुदवारि देवता था जिसके पीछे छिपलाकोट के विस्तार की हिम से नहाई चोटियां जो अभी बादलों की यवनिका में विश्राम कर रहीं थीं. इनके साथ ही नजरिकोट का पूरा इलाका भी उमड़ते घुमड़ते बादलों की गहरी पर्त में छुप गया था. रह रह दूर कोनों में तड़ित की सरपीली किरण कोंधती और फिर आती उसकी कम्प करने वाली ध्वनि. इस अनंत को शीश नवा अब हमें फिर धार में उतरना था.शाम होने तक हमें अपने नये बसेरे तक पहुँच जाना है. थोड़ी तेज चलना है. तलुवों के साथ पिण्डलियों में लगे डोलू और जटामासी के लेप ने चलने लायक बना दिया था हालांकि थोड़ी लचक अभी बाकी थी.नीचे धार में उतरते पेड़ पौंधों के साथ मिट्टी की कुछ खास सी सुवास महक रही थी. पहले पहले तो अचानक तेज छीँक आयीं. लगा उन्होंने बर्माण्ड खोल दिया और फिर धीरे धीरे सांस साफ होती गई. कुंड से आगे बढ़ते हुए बादल पूरी तरह घिर आये थे तो अब देखते ही देखते वह आसमान को जाते दिखे ऊपर और ऊपर और फिर हिमपात होना शुरू हो गया.बिलकुल बारीक तुषार के कण चेहरे पर झरते और फिर बदल गए छोटे छोटे लॅच्छोँ में, छोटे गोलों में कपड़ों पर फिसलते और जमते. ठंड का कोई एहसास नहीं. बस आगे बढ़ते कदमों की घुप्प-घुप्प सी दबी आवाज और इससे इतर शांति. मौन का अद्भुत वातावरण. बस कभी हिम टप्प से अगल बगल के वृक्ष से टपकती. हम सब बिलकुल साथ साथ लाइन में बढ़े जा रहे थे एकसार धीमी गति से.

“ऊ अघिल देखिये ला!” कुण्डल और डिकर दा दलबहादुर की आवाज से रस्ते के अगले मोड़ पर एक संकरी झुकी चट्टान के पास रुक गए.

“आव! आ, मस्त जाग छ ” थोड़ा ऊपर चढ़ देखा तो पाया दलबहादुर एक उडियार के भीतर कुछ तांकाझांकी कर रहा था.

“लाकड़ाक गिँड ले छन हो याँ,भलि ठोर छ. भितेर सामान एकबट्याओ हो जवानो. आ हो सोबन. तू आग पाणी देख ला.” दल बहादुर ने धाल लगाई.

उडियार के मुख पर आ इतना तो मुझे भी साफ लगा कि हम सब जन इसमें समा सकते हैं. मैं भीतर को घुस ही रहा था कि दल बहादुर ने रोक दिया.

“रुको हो ss सेबो. पहले हंतरा लगा आग पाड़ता हूं. भीतेर भोत गैर है कोई जनावर ना हो.चमगादड़-चुथ रोव भी होने वाले ठेरे स्साले.”
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डंडे में हंतरा लपेट मिट्टी तेल डाल दल बहादुर उडयार के भीतर घुस गया. तीन चार मिनट मैं वापस भी आ गया.

“ठीकछ हो, पंशी जाओ.”

सबने अपने अपने कोने तलाशे.रेंजर साब पास आ गए, बोले, “सुमद्वारी मंदिर से आगे कुंड को पार करने के बाद ही ह्युन की फाल पड़ी, नहीं तो कहीं ठौर नहीं मिलती.तेरह चौदह फीट की ऊंचाई पार कर आये हम. आप पहले चढ़े इतना?”

हां जब श्रीनगर था तब वहां से गया था, हेमकुण्ड, केदारनाथ और उधर भोजवासा तक, बेदिनी बुग्याल भी गया. तेजी से गिरती बर्फ के बीच सब सामान उडयार के बीच जमा दिया गया. भगवती बाबू तो जैसे छिपला के दर्शन के बाद सहज मौन धारण कर गए थे. अपने थैले से धूप निकाल उन्होंने उडयार की स्योंदेंण को बहुत कम कर दिया था. देबता का दंडोज भी एक कोने थोड़ा ऊपर विराजमान कर दिया दिख रहा था.

डमर दा उडयार में रखे अधजले एक बड़े गिंडे के अगल-बगल छोटी लकड़ियाँ बढ़याट से काट-काट जमा रहा था तो कुण्डल दा चाय की कितली में बरफ ठूंसने में लगे थे. उमेद अपने साथियों के साथ उडयार के पास पड़े बेतर तीब पत्थरों को एक के ऊपर रख आधे हिस्से तक हाथ भर ऊँची दिवार बना चुका था जिसे जरुरत पड़ने पर फलांगा भी जा सके.

“रात पड़ने पर बाकी हिस्से में भी ढूंग रख देंगे. बाहर आग भी रहेगी तो जानवर भालू का खतरा नी रहेगा. बरफ में वो भी ऐसी ही खोह में घुस आते हैं. बुज कि बाघ समझे नि ऊन “

बदन को गर्मी देने के लिए मैं भी उठ इस उपक्रम में जुट गया. बैठे-बैठे ठंड लग रही थी, हाथ चले तो तात भी आई. अब हमारी फाइव स्टार उडयार में धीमी-धीमी सुलगती चटकती लकड़ियों की खुसबू थी, हाथ में काली चाय के मग और अब आराम से खा पी के लमलेट हो लेंगे का सुकून था. थोड़ा धुवाँ होते ही डमर दा हाथ भर लम्बी लोहे की फुंकनी से पूरा जोर लगा फू-फू करता तो लपट उभर आती और चिंणुके भी. ये फुकनी भी डमर दा की अचल संपत्ति में एक थी. और चल संपत्ति के रूप में तो जितना कदमों से नाप सको उतनी जमीन जितनी प्यास लगे उतना जल और जितनी छाँव चाहिए उतने जंगल.

कुण्डल दा ने रात का मीनू घोषित कर दिया था. मडुवे और ग्युँ के रवाट् और आलू का थेचवा. गुड़ और घी इफरात से.

“अरे यार ये संकरू कहाँ मर गया. कहीं उड़ तो नहीं गया अपनी पधानियों के अंग्वाल चुड़काने” रेंजर साब ने बल्बलेट मचाई.

“यहीं हुआ मालिको, जेरकेन का बुजा निकाल रहा था. ये वाली तो खास है चाखती. बहुत छोप-छाप लपेट के रखी है.”

“अबे तो घूंघट के पट खोल ना. तू भी साले सेणीयों की तरह असण-पसण कर देता है. ला अब. अबेर नि कर.”

“लाओ हो कुण्डल दा, कितली का पाणी कुनकुना गया होगा, स्साब को झँग चढ़ गई, वो सुखा मीट भी धरो क्वेलों में.लगाड भी हैं उको भी तता दो. खुस्स कर देना है बाबसेब को”

“ये स्साला, मतका-मतका के मारता है. थोड़ी भागवत पंडित को भी चखाओ, आज एकादशी भी नहीं है इनके लिए भड़भुज्जे वाले चने हैं मेरी गठरी में.”

आश्चर्य! भगवती बाबू मौन ही रहे. तामचीनी वाले बड़े मग में रेंजर साब को पेश की गई. उनका मुख् मण्डल खिल उठा. बाकी के आगे गिलास थे. आखिरी वालों को टूटे कप भी झेलने पड़े. उडयार के भीतर जलती लकड़ियों कि झिलमिल रौशनी में दिख रहे छेदों से प्रवेश करती मचलती हवा को बूजों से छोपने की कोशिश का सुर दीप को लग गया था. इसे निबटा फिर वह अपनी मोटी कॉपी में बड़ी तल्लीनता से कुछ लिखने लगा था. मैं डायरी नहीं लिखता बस इस कॉपी के पेज भरता हूं. वह यही कहता. कभी कभी कुछ हिस्से सुना भी देता.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

उसमें अद्भुत मेटा फिजिक्स होता था, विल ड्यूराँ की फलसफा भी और किसी अज्ञात को लिखी मनो भावना भी. आज वह संयोग बना कि द्रव के आचमन के बाद रात खाना खा लुढ़क जाने के बीच का समय दीर्घायु हो चला था और कुछ लिखने के बाद दीप उस मोटी कॉपी के पन्नों का रहस्य प्रकट अधिमान मैं ले आया था और गाने लगा था.

 टूटे हुए ख्वाबों ने हमको ये सिखाया है
 दिल ने, दिल ने जिसे पाया था, आँखों ने गँवाया है
हम ढूंढ़ते हैं जिनको जो मिल के नहीं मिलते
रूठे हैं न जाने क्यों, मेहमाँ वो मेरे दिल के.

सोबन अपनी डायरी खोल हाथ में पेन नचाने लगा था. “बजर पड़े ऐसी माशूका पै, तू नहीं और सही”

रेंजर साब की आवाज सुनाई दी और पँखी से मुंह छोप वह लधर गए. लो अब उनके खुर्राटे भी सुनाई देने लगे. रात में नौराट-पिपाट बहुत करते हैं वो.

अब सुबह का उजाला उडयार के भीतर उन छिद्रोँ से प्रवेश करने लगा जिसे अपने परिश्रम से दीप बाबू ने बूजा लगा छोपने की भरपूर कोशिश की थी. कुण्डल दा हमेशा की तरह पनामा सिगरेट धोंकते चूल्हे में चाय की कितली चढ़ा चुके थे. डमर दा ओने कोने से कोयले बीन एक प्लेट में रख पदमासन में विराजे भगवती बाबू के सामने रख चुके थे. “जी रे ss” के आशीर्वाद के साथ ही भगवती बाबू ने अपनी पूजा की पुंतुरी से गुगल व धूप जड़ी निकाल कोयलों में खित दी.”अब बीड़ी-सिगरेट बाहर जा के फूको रे” कह वह गणानंतवा गणपति में रम गए.

उमेद डेग में ताजी बरफ ला कुण्डल दा के आगे रख गया. दल बहादुर अपनी जेबें पुड़पुडाते बाहर निकलने की जल्दी में दिखा. दो तीन शेर बीड़ी खींचे बिना उसकी उतरती नहीं थी. चेहरे से वह बड़ी असण-पसण में था. एक तरफ सोबन पसरा था जो अपना भोला मुख दिखाए गहरी नींद में था, कल्टोव परण. सोने से पहले उमेद से रोज ही कहता मेरी नीन मत तोडना. पर उमेद भी उसे तंग करने से बाज न आता.कभी क्वेले से मुछे बना देता कभी बालों में आटा लागा जोकरर्योल करता. छनती दोनों में खूब थी.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

तैयार होते घंटा भर तो लग ही गया. इस उड़ियार की साफ सफाई कर सलाम ठोक हम नीचे छप्पन भेंक ताल की ओर उतरे. आज तो धूप के दर्शन ही नहीं हुए. सब तरफ बदरा जो रह रह गड़गड़ा रहे थे. छप्पन भेंक ताल भी काफ़ी बड़ी है पर केदार कुंड से छोटी. इसके एक ओर खूब प्रपात वाला तीखा ढाल लिए पहाड़ी है. डिकर दा ने समझा दिया था की इन तालों के अगल-बगल होते उत्तर पूर्व की ओर जाना होता है. दारमा घाटी वाला रास्ता यहीं से हो कर जाता है. ताल वाले इलाके से गुजरते कुछ किसम की चिड़ियाएं जल क्रीड़ा में निमग्न दिखीं. रेंजर साब ने बताया ये सब जल मुर्गी हैं. मैंने उनसे कहा कि नैनीताल झील की जल मुर्गीयों से यह बिलकुल अलग दिखतीं हैं तो बोले ये अलग प्रजाति हुई उड़ती भी तेज है और आप देख ही रहे हो इनका वजन भी बहुत कम हुआ.

ताल वाले इलाके को पार करने के बाद अब सघन वनस्पति वाला इलाका दिखाई देने लगा था हालांकि ये ऊबड़ खाबड़ होने के साथ उतार चढ़ाव वाला था. कई जगह धप्प से पाँव जमीन में गहरे धंसते चसक के साथ पीठ में भी दर्द करने लगा था. इस रास्ते कई जगहों में गोल और चपटे पत्थरों के साथ छोटे शिलाखंड के ढेर जमा दिखे. डिकर दा ने बताया कि ये ढेर सही बाट की पहचान के लिए थोबड़ा दिए गए हैं वैसे ही जैसे मील के पत्थर संकेत देते हैं.

नीचे उतरते रहे. उतराव ज्यादा थका देता है. मेरे आगे दल बहादुर था उसने बताया कि नीचे उतरते करीब तीन मील तक नीचे को पहुँचता यह घांघल पार करने में बहुत टैम लगाता है. उतार में शरीर का वजन नीचे की ओर असंतुलित ही रहता है.” पीछे से एक ठपुक भी लग जाये तss भतड़म्म हुई बाब सैब.तss कदम जमा के धरना”.

नीचे जहाँ तक नजर जाए पाथर की नदी से बने घांघल का नाम भी बड़ा सोच विचार कर रखा गया है, “घन घांघल”. काली सिलेटी रंगत के इस खुसक उजाड़ इलाके को पार करते अजीब सा नेस्ती पना महसूस हो रहा. नुकीले पत्थरों पर जूता धरते किरच-किरच चुभन का एहसास होता. टेढ़े मेढ़े कंटीले पथ जिसमें पहले से नील पड़े तलुवों पर हल्की सी ठपुक लगे तो कदम बढ़ाना कठिन लगे. कमर-पुठ एके है गईं.पथ तो कंटकाकीर्ण हुआ ही बाईं तरफ भ्योल पसरा है. आस पास देखते चलते रहना है.किरच-किरच पत्थरों के ऊपर पाँव पड़ते ही वह धसकने लगते. घांघलों भरे इस पूरे रास्ते पैरों में लगातार टीस उभरती गई जिसका दर्द अब पिण्डलियों को बेजान बना गया. अगल बगल भी इतनी ज्यादा जगह नहीं कि कहीं सपाट सी धरती दिखे. नीचे चूरा-चूरा धचकने वाले पत्थर तो कहीं कहीं पेड़ों की टेढ़ी मेढ़ी जड़ें जो पसरी तो जमीन के भीतर थी पर रास्ते को ऊबड़-खाबड़ कर गईं थीं. नीचे खाई पर ज्यादा निगाह टिकी रह जाए तो सर घूम रहा था, चक्कर आने जैसा.

 रेंजर साब ने ये घांघल शुरू होते ही कह दिया था,” नीचे भ्योल है, खाई है, नजर नहीं टिकानी है उस पर, रिंगाई आ जाएगी,इथ भ्योल, उथ रौखाड़, परयेss मुख चाण बाट काटण भै! ओषाण उण जै भ्यो!”

आगे कोस भर की दूरी पर घांघल के बीच एक थाली जैसी सपाट जगह दिखाई देने लगी है. डिमर दा ने बताया कि वह सूख गया ताल है.जिस तेजी के साथ बादल आ बरस गए थे तो अब झुमझुमी लग गई थी. भीगते हुए चलने के सिवाय और कोई विकल्प न था. पानी से धुले घांघल अब खूब चमकीले दिख रहे थे. अब दूर इन विशाल घांघलों पर पसरी हुई गोल और अंडाकार आकार की चमकती हुई कटोरियां सी दिखने लगीं. डमर दा ने बताया कि बरसाती पानी से यहाँ के छिछले गड्डे भर गए हैं, वोई चम्म ब्यालों जैसे दिख रहे हैं.
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

तेरह हज़ार फीट की ऊंचाई का सफर हुआ यह. घांघलों की बस्ती पार होती है. टेढ़े मेड़े पथ, दर्रे और धार पार कर अब आराम से चलने लायक जमीन दिखने लगी है. मिट्टी भी और उस पर उगी मुलायम घास भी. हवा भी सौंधी महक लिए है. यह दर्रे का समापन बिंदु था. आगे चलते जैसे ही पहाड़ी के मोड़ से फरके तो आगे चल रहे भगवती बाबू की धाल सुनाई दी, “लो, देखो आ गया सामने मंदिर.”पहाड़ ने अब फिर अपना नया ही रूप सामने रच रखा था. खूब फैला बुग्याल जिसके ऊपर की ओर घने बोट दिख रहे थे और उनमें झंडे फहरे हुए थे, लाल, कत्थई, जोगिया, पीले, बसंती और सफेद. मंदिर के उस इलाके में एक स्थान पर लम्बे डंडो में भी पताका और चीर लगीं थीं.

पैरों में पिण्डलियों में चसक पड़ने के बाद भी खुद भी खुद चाल तेज हो गई. बढ़ते चले और मंदिर से कोस भर की दूरी पर देखा कि प्रांगण और उसके आसपास जगह जगह पत्थर समेट कर रखे हुए हैं. संभवत: इन्हें हो थान का रूप दिया गया है. इनके आगे छोटी-बड़ी अनगिनत घंटियाँ रखी हुई हैं बीच में कोने में कहीं त्रिशूल और एक दो जगहों पर तो कुंडे वाले चिमटे भी जैसे जोगी-सन्यासी आपने हाथ में रखते हैं.जगह जगह दिये भी हैं छोटे-बड़े, धातु के भी और मिट्टी के भी. शिलाओं में जगह जगह लाल टूल और सफेद वस्त्र चढ़ा है. जगह जगह तोरण और चौकोर चीर वाली झंडियां. भगवती बाबू भी सबकी तरफ से घंटी लाए हैं. पूजा की चीज वस्त्र भी. उन्होंने बताया कि ये स्थान छिपला धूरा कहा जाता है. तब रेंजर साब ने कहा कि खम्पा लोग इस स्थान को बड़ा पवित्र मानते हैं. यहाँ आ कर अपने तौर तरीके से भेट- घाट चढ़ाते हैं. इसी कारण छिपला धूरा को “खम्पादर ज्यू” या खम्पाओं का मंदिर भी कहा जाता है.

छिपला धूरा के इस विशाल फैले हुए इलाके में जो समतल सा मैदान है उसे “घुड़ धाप” कहा जाता है. इस मैदान के दायीं ओर जो शिखर यहाँ से साफ दिखाई दे रहा है वह छिपला का कोट है जिसके दर्शन यहाँ नीचे से एक विस्तृत फलक की तरह हो रहे हैं. छिपला धूरा के इस मैदान से एक तरफ अपनी काफ़ी लम्बी श्रृंखला में जो हिम शिखर अभी पीली गुलाबी धूप में दमक रहे हैं वह नेपाल हिमालय है.

अभी मौसम बिलकुल सुहावना है आसमान भी खुला खुला बस कुछ रुई के गोले ओने कोने से ताक झाँक करते दिखाई दे रहे हैं. कोने से प्रकट हो रहे और सुस्ताते हुए ऊपर उठ जा रहे बर्फ़ीली चोटियों का आलिंगन करते. आँख में कैमरा लगाए मैं आराम से पीठ को एक शिला की टेक दे ये अनुपम दृश्य देख रहा हूं. दो सौ ऍम ऍम के लेंस पर पोलराइजिंग फ़िल्टर चढ़ा आसमान पर तिरते बादल का कांट्रेस्ट और भी शार्प हो जाता है. बादलों के ये गुच्छे आपस में अठखे लियां भी करते हैं. अलग-अलग आकार बनाते हैं एक दूसरे में तिरोहित भी और फिर नये रूप का अविर्भाव भी. इस कुछ ज्यादा ही फैले आकाश उसके किनारे पसरी हिम पट्टी और मंद गति से आते समाते बिखर जाती रासलीला में मन ऐसा डूबा कि पैर घुटने कमर का सारा दर्द चुक गया लगा.हवा इतनी ठंडी और शीतल थी कि गहरी सांस गले तक बर्फ निगल जाने का एहसास करा रही थी. भीतर तक कुछ जम जाने का एहसास. लम्बी सांस तो खींची ही न जा रही थी.रह रह मुंह से सांस खींचो और वापसी में उसकी भाप उड़ती दिखे. सहज हो रही थी सांस की गति. अभी शिला के आसन पर पाषाण की टेक लगाए आसमान में धीमी गति से बढ़ते बादलों सी गति मन की भी हो गई लग रही थी कि बस छिपला धूरा की उस चोटी पर जा पहुंचूँ. क्या मालूम वही हो अधिकतम संतुष्टि का बिंदु. पैरिटो ऑप्टिमेलिटी…
(Najirkot Chappan Bhek Tal Khampadarjyue)

जारी…

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया

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